Friday, March 29, 2024
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प्राचीन भारत की आर्थिक व्यवस्था में छुपे हैं विश्व की वर्तमान आर्थिक समस्याओं के हल

आज जब विकसित अर्थव्यवस्थाओं में कई प्रकार की आर्थिक समस्याएं (मुद्रा स्फीति, नागरिकों के बीच लगातार बढ़ रही आर्थिक असमानता, बेरोजगारी, घाटे की वित्त व्यवस्था, शासन पर लगातार बढ़ रहा ऋण, आदि) उत्पन्न हो रही हैं और उनका कोई हल निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसे समय में इन विकसित देशों में ही अब आवाज उठने लगी है कि इन समस्याओं का हल यदि निकट भविष्य में नहीं निकाला गया तो इन देशों की आर्थिक स्थिति विस्फोटक हो सकती है, जो पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी विपरीत रूप से प्रभावित करेगी।

इस दृष्टि से यदि भारत के प्राचीन अर्थतंत्र के बारे में अध्ययन किया जाय तो ध्यान आता है कि प्राचीन भारत की अर्थव्यस्था न केवल समृद्ध थी बल्कि भारत में उक्त वर्णित आर्थिक समस्याएं लगभग नहीं के बराबर रहती थीं। ब्रिटिश आर्थिक इतिहास लेखक श्री एंगस मेडिसन एवं अन्य कई अनुसंधान शोधपत्रों के अनुसार ईसा के पूर्व की 15 शताब्दियों तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का हिस्सा 35-40 प्रतिशत बना रहा एवं ईस्वी वर्ष 1 से सन 1500 तक भारत विश्व का सबसे धनी देश था। श्री एंगस मेडिसन के अनुसार मुगलकालीन आर्थिक गतिरोध के बाद भी 1700 ईस्वी में वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान 24.4 प्रतिशत था। ब्रिटिश औपनिवेशिक शोषण के दौर में यह घटकर 1950 में मात्र 4.2 प्रतिशत रह गया था। हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के श्री जेफ्रे विलियमसन के “इंडियाज डीइंडस्ट्रीयलाइजेशन इन 18 एंड 19 सेंचुरीज“ के अनुसार, वैश्विक औद्योगिक उत्पादन में भारत का हिस्सा, ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत आने के समय जो 1750 में 25 प्रतिशत था, घट कर 1900 में 2 प्रतिशत तक आ गया और इंग्लैंड का हिस्सा जो 1700 में 2.9 प्रतिशत था, 1870 तक ही बढ़कर 9 प्रतिशत हो गया था। भारत में पढ़ाई जा रही आर्थिक पुस्तकों में प्राचीन भारत के आर्थिक वैभवकाल का वर्णन नहीं के बराबर ही मिलता है।

प्राचीन भारत में कुटीर उद्योग बहुत फल फूल रहा था इससे सभी नागरिकों को रोजगार उपलब्ध रहता था एवं हर वस्तु का उत्पादन प्रचुर मात्रा में होता था। ग्रामीण स्तर पर भी समस्त प्रकार के आवश्यक उत्पाद पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहते थे अतः वस्तुओं के दामों पर सदैव अंकुश रहता था। बल्कि कई बार तो वस्तुओं की बाजार में आवश्यकता से अधिक उपलब्धि के कारण उत्पादों के दामों में कमी होते देखी जाती थी। आज के बाजारों में वस्तुओं की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता नहीं रहने के चलते मुद्रा स्फीति की दर बहुत ऊपर पाई जा रही है।

विश्व के कई भागों में सभ्यता के उदय से कई सहस्त्राब्दी पूर्व, भारत में उन्नत व्यवसाय, उत्पादन, वाणिज्य, समुद्र पार विदेश व्यापार, जल, थल एवं वायुमार्ग से बिक्री हेतु वस्तुओं के परिवहन एवं तत्संबंधी आज जैसी उन्नत नियमावलियां, व्यवसाय के नियमन एवं करारोपण के सिद्धांतों का अत्यंत विस्तृत विवेचन भारत के प्राचीन वेद ग्रंथों में प्रचुर मात्रा में मिलता है। प्राचीन भारत में उन्नत व्यावसायिक प्रशासन व प्रबंधन युक्त अर्थतंत्र के होने के भी प्रमाण मिलते हैं।

हमारे प्राचीन वेदों में कर प्रणाली के सम्बंध में यह बताया गया है कि राजा को अत्यधिक कराधान रूपी अत्याचार से विरत रहना चाहिए। कौटिल्य के अनुसार करों की अधिकता से प्रजा में दरिद्रता, लोभ, असंतोष, विराग आदि भाव उपजते हैं। राजा द्वारा, स्मृतियों द्वारा निर्धारित, कर के अतिरिक्त अन्य कर लगाया जाना निछिद्ध था। कर की मात्रा वस्तुओं के मूल्य एवं समय पर निर्भर होती थी। राजा सामान्यतया उपज का छठा भाग ले सकता था। हां आपत्ति के समय अतिरिक्त कर लगाने की केवल एक बार की छूट रहती थी। अनुर्वर भूमि पर भारी कर नहीं लगाया जाता था। कर सदैव करदाता को हल्का लगे, जिसे वह बिना किसी कठिनाई व कर चोरी के चुका सके। जिस प्रकार मधुमक्खी पुष्पों से बिना कष्ट दिए मधु लेती है, उसी प्रकार राजा को प्रजा से बिना कष्ट दिए कर लेना चाहिए। कर प्रणाली के माध्यम से आर्थिक असमानता एवं घाटे की वित्त व्यवस्था पर अंकुश लगाया जाता था। चुंगी को भी कर की श्रेणी में शामिल किया जाता था, जो क्रेताओं एवं विक्रेताओं द्वारा राज्य के बाहर या भीतर ले जाने या लाए जाने वाले सामानों पर लगती थी। राजा के पास राजकोष के लिए तीन साधन थे – उपज पर राजा का भाग, चुंगी एवं दंड। इस प्रकार राजकोष पर प्राचीन ग्रंथों में अत्यंत विस्तृत व व्यावहारिक विमर्श पाया जाता है।

ऊंची कर दरों से आर्थिक प्रगति बाधित न हो, इस पर करारोपण के प्राचीन सिद्धांतों में सर्वाधिक बल दिया गया है। नेहरु-इंदिरा युग में 1985 तक भारत में आयकर की अधिकतम दर 85 प्रतिशत व 10 प्रतिशत के अधिभार से प्रभावी दर 93.5 प्रतिशत हो जाती थी। सम्पत्ति कर आदि से अधिकतम कर का भार 97 प्रतिशत तक पहुंच जाता था। इससे भारत में काला धन बढ़ा और आंतरिक पूंजी निर्माण बाधित हुआ। कालेधन से जमाखोरी व कालाबाजारी तब चरम पर रही। आज आयकर की उच्चतम दर 30 प्रतिशत ही है। इससे नागरिकों के बीच कर पालन में काफी सुधार दृष्टिगोचर है।

गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति श्री भगवती प्रकाश के अनुसार, वाणिज्य से आश्य व्यापार एवं व्यापार की सहायक क्रियाओं से लिया जाता है। इन सहायक क्रियाओं में व्यापार हेतु ब्याज पर ऋण उपलब्ध करना, परिवहन, योगक्षेम अर्थात बीमा आदि आते हैं। अथर्ववेद के वाणिज्य सूक्त सहित कई सूक्त और ऋग्वेद व यजुर्वेद में व्यापार-वाणिज्य के साथ ही वस्तुओं के जल, थल व वायु मार्ग से परिवहन और अनेक उद्योगों व उद्योग वृत्तियों के विवेचन हैं। धन व ऐश्वर्य प्राप्ति हेतु ऋग्वेद में उद्योग, व्यवसाय एवं वाणिज्यिक अधिष्ठानों की स्थापना एवं वायु की गति से वाणिज्यिक क्रियाओं को प्रचुर बनाने के निर्देश हैं। सम्पूर्ण भूमंडल पर सर्वत्र नवीन उद्यमों की स्थापना से धन व यश, दोनों की प्राप्ति होती है। ऋग्वेद में प्रकृति को अनन्त सम्पदा का स्त्रोत कहा गया है। ऋग्वेद के अनुसार पृथ्वी, आकाश, वृक्ष-वनस्पतियों, नदियों और जलस्त्रोतों में अक्षय धन है। अथर्ववेद के अनुसार पृथ्वी में मणि, स्वर्ण आदि खनिजों का भंडार भरा पड़ा है। ऋग्वेद के अनुसार पर्वतों व भूगर्भ में अनंत खनिज निधि है। यजुर्वेद के अनुसार समुद्र अनंत खनिजों व रत्नों का भंडार है। ऋग्वेद के अनुसार चारों समुद्रों में अकूत प्राकृतिक सम्पदा भरी पड़ी है। इस प्रकार वैदिक काल में मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर प्रचुर संसाधन एवं अनंत लक्ष्मी प्राप्त करता रहा है और अनंत उद्योग, व्यापार व वाणिज्य में संलग्न रहा है।

अब पिछले लगभग 7 वर्षों के दौरान भारत ने कई आर्थिक निर्णय लेकर विश्व को प्रभावित करने में सफलता पाई है। आठ वर्ष पूर्व 2013 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आधार पर भारत, विश्व में दसवें स्थान पर था। इन सात वर्षों में रूस, ब्राजील, इटली, फ़्रान्स एवं इंग्लैंड को पीछे छोड़कर भारतीय अर्थव्यवस्था जीडीपी के आधार पर पांचवें स्थान पर आ गई है। वहीं क्रय सामर्थ्य साम्य के आधार पर आज भारतीय अर्थव्यवस्था अमेरिका व चीन के बाद तीसरे स्थान पर है। इन्हीं कारणों के चलते आज विकसित देश भी अपनी आर्थिक समस्याओं के हल हेतु भारत की ओर आशाभरी नजरों से देख रहे हैं एवं साम्यवाद एवं पूंजीवाद पर आधारित आर्थिक माडल की परेशानियों से बचने के लिए भारत के राष्ट्रवाद पर आधारित माडल की ओर देख रहे हैं।

प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
के-8, चेतकपुरी कालोनी,
झांसी रोड, लश्कर,
ग्वालियर – 474 009
मोबाइल क्रमांक – 9987949940
ई-मेल – [email protected]

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