Wednesday, April 24, 2024
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सरकार की जीत मगर जनता की हार

हाल ही में इंडोनेशिया के बाली में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की नौवीं मंत्रिस्तरीय बैठक हुई। गौरतलब है कि डब्ल्यूटीओ को बने २० साल हो चुके हैं, पर अब तक इसमें एक भी सर्वसम्मत समझौता नहीं हो पाया है। कारण यह है कि अमेरिका व यूरोपीय संघ के देश विकासशील देशों के संसाधनों और बाजार का उपयोग अपने फायदे के लिए करना चाहते रहे हैं। इस बार डब्ल्यूटीओ का अस्तित्व बने रहने के लिए विकसित देशों को लग रहा था कि बाली में कोई न कोई समझौता होना ही चाहिए।

जो मसौदा समझौते के लिए रखा गया, उसमें एक बिंदु भारत और अन्य विकासशील देशों के खिलाफ था। इस मसौदे में यह चाहा गया था कि विकासशील देश खाद्य सुरक्षा के लिए खर्च की जाने वाली कृषि सबसिडी का आकार १० फीसद से ज्यादा नहीं रखेंगे। ऐसा न करने की सूरत में अमीर देश व्यापारिक प्रतिबंध लगा सकते हैं। इस पर हमारे वाणिज्य मंत्री समेत अन्य विकासशील देशों की आपत्ति के बाद यह तय किया गया कि विकासशील देश ग्यारहवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन तक अपनी मौजूदा सीमा तक कृषि सबसिडी को जारी रख सकते हैं। पर इस समझौते के भी अपने खतरे हैं। जाहिर है यह छूट लगभग चार साल के लिए ही है।

गौरतलब है कि अमेरिका जैसे देश भारत पर लगातार दबाव बनाते आ रहे हैं कि वह खेती और खाद्य सुरक्षा के लिए किए जाने वाले खर्च को कम करे। उनका तर्क है कि जब सरकार किसानों को सबसिडी और लोगों को सस्ता राशन देती है तो इससे व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और कंपनियों के लाभ कमाने के अवसर कम होते हैं। बहरहाल, सच यह है कि अमेरिका की जनसंख्या भारत की आबादी के मुकाबले तकरीबन एक चौथाई है, वहीं खाद्य सबसिडी पर भारत अमेरिका से तीन-चौथाई कम खर्च करता है। अमेरिका ४५ खरब रुपए खर्च करके अपने यहां अतिरिक्त पोषण सहायता कार्यक्रम (सप्लीमेंटल न्यूट्रिशन असिस्टेंस प्रोग्राम) चलाकर ४.७० करोड़ लोगों को ९६४८० रुपए प्रतिव्यक्ति खर्च करके हर साल २४० किलो अनाज की मदद देता है। वहीं दूसरी तरफ भारत में, जहां ७७ फीसद लोग ३० रुपए प्रतिदिन से कम खर्च करते हैं, हमारी सरकार यदि पीडीएस के तहत भूख के साथ जीने वाले ४७.५ करोड़ लोगों को १६२० रुपए प्रतिव्यक्ति सालाना खर्च करके ५८ किलो सस्ता अनाज देती है, तो अमेरिका और उनके मित्र देशों को दिक्कत होती है।

कहा जा रहा है कि बाली में भारत के पक्ष की जीत हुई है, क्योंकि इस समझौते में हमारी खाद्य सुरक्षा संबंधी चिंताओं का ध्यान रखा गया है। पर यह सच नहीं है। आज भारत असमान आर्थिक विकास कर रहा है। उस विकास में समानता लाने के लिए खाद्य सुरक्षा पर सरकारी खर्च (खाद्य सुरक्षा सबसिडी) बढ़ाना जरूरी है, जो अब किया जाना संभव न होगा। हमें यह भी समझना होगा कि डब्ल्यूटीओ, अमेरिका और यूरोपीय संघ इस बिंदु पर भारत पर इसलिए भी दबाव बना रहे हैं, ताकि कृषि और खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए उन्हें ज्यादा ठोस माहौल मिल सके।

इस प्रावधान में बंधकर भारत सरकार और राज्य सरकारें किसानों से अनाज की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी नहीं कर सकेंगे या कम करेंगे और इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए नए रास्ते खुलेंगे। हम जानते हैं कि मौजूदा केंद्र सरकार देश में वैसे भी अनाज के बदले नकद अंतरण (कैश ट्रांसफर) की योजना लागू करना चाहती है। नए संदर्भ से उसे कैश ट्रांसफर लागू करने का बहाना भी मिलेगा। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि जो भी बाली में हुआ, वह अकस्मात नहीं था। हमारी सरकार भले ही इसे अपनी जीत बताए, पर वास्तव में यह हमारे लोगों की हार है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और राईट टू फुड अभियान व भोपाल की विकास संवाद सेवा से भी जुड़े हैं ये उनके निजी विचार हैं।)

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साभार- दैनिक नईदुनिया से 

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