Friday, April 19, 2024
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क्या म.प्र. में 52 साल पुराना इतिहास ेक बार फिर दोहराया जाएगा…?

क्या मप्र में एक बार फिर से सिंधिया राजघराने के परकोटे में कांग्रेस सरकार के पतन की पटकथा लिखी जा रही है, ठीक वैसे ही जैसे 1967 में तब की राजमाता और कांग्रेस नेत्री राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने डीपी मिश्रा की जमीन हिला कर देश भर की सियासत में हलचल मचा दी थी।और देश मे पहली संविद सरकार बनाने का राजनीतिक इतिहास रचा था।मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार 2019 में राजमाता विजयाराजे सिंधिया के प्रपौत्र और कांग्रेस महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नही बनाएं जाने से नाराज होकर कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को जमीदोज कर सकते है उन्होंने कथित रुप से पार्टी को अल्टीमेटम भी दे दिया है ऐसा इन रिपोर्टस में दावा किया जा रहा है।कहा जा रहा है कि सिंधिया 30 कांग्रेस विधायकों को लेकर बीजेपी में शामिल हो सकते है हालांकि दो दिन पहले ही उन्होंने उज्जैन में इन खबरों का खंडन किया था कि वे बीजेपी ज्वाइन करने जा रहे है।

इन दो दिनों में मप्र की कांग्रेस सियासत में घटनाक्रम तेजी से बदला है प्रदेश प्रभारी दीपक बाबरिया ने इसी महीने पीसीसी चीफ पर निर्णय का बयान दिया और मुख्यमंत्री कमलनाथ भी कल दिल्ली के लिये रवाना हो गए सीएम के इस दौरे को नए प्रदेश अध्यक्ष के मनोनयन के साथ जोड़ा जा रहा है इससे पहले दीपक बाबरिया प्रदेश के नेताओ से व्यापक रायशुमारी कर अपनी रिपोर्ट आलाकमान को सौंप चुके है।लेकिन मामला इतने भर का नही है असल कहानी तो यह है कि मप्र के सीएम कमलनाथ और एक्स सीएम दिग्विजयसिंह किसी सूरत में नही चाहते कि सिंधिया को पीसीसी को कमान सौंपी जाये ,दोनो के बीच इस एक मुद्दे पर आपसी समझ और सहमति जगजाहिर है क्योंकि सिंधिया का पीसीसी चीफ बनने का सीधा सा मतलब है मप्र में सीएम,दिगिराजा के बाद सत्ता का तीसरा शक्ति केंद्र स्थापित होना।पहले से ही जुगाड़ के बहुमत पर टिकी कमलनाथ सरकार के लिये यह एक चुनोती से कम नही होगा।इसीलिए दो दिन पहले अचानक दिग्विजय सिंह सक्रिय हुए है उन्होंने अपने ढेड़ दर्जन सीनियर विधायकों के साथ पूर्व सीएम अर्जुन सिंह के पुत्र अजय सिंह के भोपाल आवास पर बैठक की रिश्ते में दिग्विजयसिंह के भांजे दामाद अजय सिंह को पीसीसी चीफ की दौड़ में शामिल कराया जाना असल मे कमलनाथ और दिग्गिराजा की साझी युगलबंदी ही है।मुख्यमंत्री पहले ही प्रदेश में आदिवासी अध्यक्ष का कार्ड ओपन कर गृह मंत्री बाला बच्चन का नाम आगे किये हुए।जाहिर है सिंधिया को रोकने के लिये मप्र कांग्रेस में उनकी व्यापक घेराबंदी की गई है।

इधर कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने के बाद से ही यह खबर सोशल और प्रिंट मीडिया पर वायरल है की सिंधिया बीजेपी में जाने वाले है उनकी बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से बैठक का दावा भी इन खबरों में किया जा रहा है करीब 20 दिन बाद सिंधिया ने उज्जैन में इसका खंडन किया लेकिन बहुत ही सतही तौर पर।

अब प्रश्न यह है कि क्या वाकई सिंधिया मप्र में कमलनाथ सरकार को जमीन पर लाने की स्थितियों में है?जिन 30 विधायकों का दावा किया जा रहा है उनकी वस्तुस्थिति वैसी नही है ।सिंधिया के सर्वाधिक विधायक ग्वालियर चंबल में जहां कुल सीटों की संख्या 34 है जिनमें से 25 पर कांग्रेस के विधायक है लेकिन ऐसा नही है कि ये सभी विधायक सिंधिया के प्रति वफादार हो। 25 में से 9 विधायक तो दिग्विजयसिंह कोटे से आते है और इनका सिंधिया से सीधा टकराव है लहार विधायक डॉ गोविन्द सिंह, केपी सिंह पिछोर,जयवर्धन सिंह राधौगढ़, लक्ष्मण सिंह चाचौड़ा,गोपाल सिंह चंदेरी,घनश्याम सिंह सेंवढ़ा,जंडेल सिंह श्योपुर, प्रवीण पाठक ग्वालियर साउथ,एडल सिंह सुमावली ऐसे नाम है जो घोषित रूप से दिग्गिराजा के चेले है इनके अलावा भांडेर से रक्षा संतराम पर किसी की छाप नही है। भितरवार से लाखन सिंह ,पोहरी से सुरेश धाकड़,करैरा से जसवंत जाटव अपैक्स बैंक अध्यक्ष और घुर सिंधिया विरोधी अशोक सिंह के सम्पर्क और अतिशय प्रभाव में माने जाते है।जाहिर है अंचल के 25 में से13 कांग्रेस विधायक सिंधिया समर्थक नही है।इनके अलावा जो विधायक है वे अधिकतर पहली बार चुनकर आये है और सरकार के परफॉर्मेंस से इनकी हालत अपने अपने क्षेत्रों में बेहद पतली हो चुकी है।

अंचल से बाहर की बात करें तो सांवेर इंदौर से तुलसी सिलावट,सुर्खी सागर से गोविंद राजपूत,वदनावर धार से राज्यवर्धन दत्तीगांव सांची रायसेन से प्रभुराम चौधरी की गिनती सिंधिया समर्थकों में होती है लेकिन इनमें से प्रभुराम,गोविंद राजपूत, तुलसी सिलावट कैबिनेट मंत्री है।समझा जा सकता है कि दलबदल अगर होगा तो इन सभी की सदस्यता जायेगी और लोकसभा परिणाम बताते है कि इन सभी के इलाकों में पार्टी का सफाया हो चुका है।जाहिर है 30 विधायको के साथ दलबदल की मीडिया रिपोर्ट्स जमीनी हकीकत से काफी दूर है यह सही है कि सिंधिया लोकप्रिय फेस है लेकिन जमीनी स्तर पर उनका मामला दिगिराजा की तरह मजबूत नजर नही आता है।

इस तथ्य को भी ध्यान रखना होगा कि कोई भी कांग्रेस विधायक इस वक्त चुनाव का सामना करने की स्थितियों में नही है जिन मन्त्रियों ने सिंधिया को अध्यक्ष बनाने का अभियान चला रखा है उनके विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी अभी हाल ही में 50 हजार से भी ज्यादा वोटों से पराजित हुई है।खुद सिंधिया की चमत्कारी पराजय मप्र की जनता के मूड का इंडिकेटर माना जा सकता है।
अब सवाल यह है कि 1967 में जिस तरह राजमाता ने राजनीति की चाणक्य कहे जाने वाले डीपी मिश्रा की सरकार को अपदस्थ किया था क्या वही हालात आज उनके प्रपौत्र ज्योतिरादित्य के सामने है?गहराई से देखा जाए तो राजमाता ने कभी पद की अभिलाषा से राजनीति नही की वह 36 कांग्रेस विधायकों को लेकर पार्टी से बाहर आई थी उनके मुद्दे जनहित से जुड़े थे तब के छात्र आंदोलन पर हुए बर्बर गोलीकांड एक मुद्दा था लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ इस समय ऐसा टैग नही लगा है वे स्वयं चुनाव हार चुके है औऱ पार्टी के साथ उनका गतिरोध पद को लेकर है।राजमाता सिंधिया के साथ उनके वफादार अनुयायियों की फ़ौज थी जो दलीय सीमाओं और सत्ता की चमक धमक से दूर थे।लेकिन ऐसे अनुयायियों की फ़ौज सिंधिया के पास नही है अगर वे कांग्रेस छोड़ने का निर्णय करते है तो इस बात की संभावना है कि कमलनाथ सरकार के मामले में मोदी शाह की जोड़ी कर्नाटक का प्रयोग नही दोहराएगी और नए चुनाव ही मप्र में कराए जायेंगे।इन परिस्थितियों में सिंधिया समर्थक विधायक क्या जनता के बीच जाने की हिम्मत दिखा पाएंगे ?इसकी संभावना न के बराबर है।

एक दूसरा पहलू यह भी है कि अगर सिंधिया समर्थकों के साथ बीजेपी में आते भी है तो उनके समर्थकों को टिकट के मामले में बीजेपी कैडर कैसे समन्वित कर पायेगा क्योंकि बीजेपी में आये दूसरे दलों के नेताओं का अनुभव बहुत हीं दुखान्तकारी रहा है।मप्र में कर्नाटक मॉडल पर सरकार बनाना बीजेपी की कोई मजबूरी नही है शिवराज सिंह आज भी प्रदेश के सबसे लोकप्रिय फेस है और वह चुनाव हारने के बाबजूद मप्र में मुख्यमंत्री कमलनाथ से ज्यादा सक्रिय है।सच्चाई यह है कि मप्र में कांग्रेस ने बीजेपी को नही हराया है बल्कि खुद बीजेपी बीजेपी से पराजित हुई है प्रदेश में बीजेपी को वोट भी सत्ताधारी दल से ज्यादा मिले है।

बीजेपी के उत्तरी अंचल में सिंधिया को आसानी से पार्टी में में पचा पायेगा मूल कैडर इसकी संभावना बहुत ही कम है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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