Wednesday, April 24, 2024
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कुमार गन्धर्व से मेरी लम्बी बातचीत

*यह ऐतिहासिक इंटरव्यू मैं ने अप्रैल 1990 में दिल्ली के गान्धर्व महाविद्यालय में लिया था। बड़ी मुश्क़िल से पंडित जी इसके लिए तैयार हुए थे। जब नवभारत टाइम्स में इसका प्रकाशन हुआ तो वह इतने प्रसन्न हुए कि दिल्ली की एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में उन्होंने नवभारत टाइम्स की इस क्लिपिंग को सब पत्रकारों के सामने लहरा कर पूछा था – “हिन्दी को छोड़िए, क्या किसी अन्य भाषा में भी कभी किसी ने मेरे ऊपर ऐसा लिखा है?” मैं उस प्रेस कॉन्फ़्रेस में नहीं था, पर यह बात मुझे वहाँ मौजूद इलाहाबाद के संगीतज्ञ स्वर्गीय पं.शांताराम कशालकर और दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स के संगीत-समीक्षक स्वर्गीय श्री आर.एन.वर्मा ने बाद में बताई थी। साक्षात्कार के समय प्रयाग शुक्ल, मधुप मुद्गल, कलापिनी कोमकली और रवीन्द्र मिश्र भी मौजूद
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 मैं घराने की कुलगीरी नहीं करता
कुमार गन्धर्व यानी हिन्दुस्तानी संगीत का नया सौंदर्यशास्त्र। कुमार गन्धर्व यानी बग़ावत। घरानों के ख़िलाफ़ बग़ावत। ऐसी बग़ावत जिसने घरानों के नाम पर चली आ रही ‘श्रेष्ठता’ का पर्दाफ़ाश किया। बताया कि नक़ल कर लेने से कोई बड़ा नहीं होता। बड़ा होता है सृजन से, कुछ नया रचने से। “मैं तोताराम नहीं हूँ” कहना है उनका।
कुमार गन्धर्व की बग़ावत से घरानेदार संगीत के हिमायतियों में खलबली मच गयी। जिन्हें अभिमान था कि संगीत को घरानों ने पनपाया है, उनके सामने अब ऐसा आदमी आ खड़ा हुआ जो कह रहा था कि घरानों की ही वजह से हमारा संगीत नीचे गया है। यह कोई छोटी बात नहीं थी, वह भी आज से चालीस साल पहले।
नतीजा यह कि हर तरफ़ से हमले होने लगे कुमार पर। कोई कहता – “ये भी कोई गाना है इयेSS करके बिल्लियों की तरह आवाज़ निकालना!” (आचार्य बृहस्पति)। बहुतों को कुमार के राग-रूपों से शिकायत होने लगी – “अगर राग के परंपरागत रूप की रक्षा नहीं कर सकते तो उसका नाम बदलकर कुछ और क्यों नहीं रख लेते?” किसी ने इल्ज़ाम लगाया – “मेरे बनाए राग ‘वेदी की ललित’ में तुमने तीव्र निखाद लगा दी और कह दिया लगनगंधार! हमारे राग के ऊपर तुम एक सुर और नया लगाते हो!!” (पं. दिलीपचन्द्र वेदी)। गरज़ यह कि परंपरा के प्रति भावुक लगाव रखने वाला हर संगीतज्ञ कुमार गन्धर्व को एक ख़तरे के रूप में देखने लगा। और यह ग़लत भी नहीं था। कुमार ने उन जड़ों को ज़ोरदार झटका दे दिया था, जिन पर हिन्दुस्तानी संगीत का वटवृक्ष सीना ताने खड़ा था।
क्या सचमुच कुमार परंपरा-विरोधी हैं, इसकी पड़ताल के लिए हमने उन्हीं से पूछा – कुछ लोगों का आरोप है कि आप परंपरा को नहीं…।” इतना सुनना था कि आवेश में आ गए – “परंपरा के ऊपर आप क्यों इतने लट्टू होकर बैठे हैं? हमको समझ नहीं आता। फिर क्यों नहीं रहते आप पुरानी तरह से? यह इतना फ़ालतू लफ़्ज़ है। लोग इसमें क्यों इतने अटके हैं? आप आगरा-फ़ोर्ट देखने जाइए न! मैं तो नकार नहीं कर रहा। हम भी जाते हैं आपके साथ। अच्छा भी लगता है। आपको फिर राजा लोग चाहिए क्या? फिर बैलगाड़ी चाहिए आपको? यानी, फिर कुआँ चाहिए क्या? तो फ़्लश-संडास निकाल दीजिए घर से। आपको फ़्लश-संडास भी चाहिए घर में, नल भी चाहिए और कुआँ भी चाहिए। और कुआँ का अभिमान भी छूटना नहीं चाहिए आपको!”
जवाब सुनकर मैं हैरान रह गया। कैसी बेलाग टिप्पणी है हमारे दोग़ले जीवन-मूल्यों पर। ‘फिर राजा लोग चाहिए क्या’ में कितनी गहरी समझ है। किसी कट्टर घरानेदार से यह वाक्य सुनने को नहीं मिलेगा आपको। उलटे रजवाड़ों के न रहने का रोना ही सुनेंगे उससे। यह वो चीज़ है जो एक तरफ़ कुमार गंधर्व की समाज-सापेक्ष चिंतनशीलता का सबूत देती है, तो दूसरी तरफ़ उनकी गायकी का रहस्य भी खोलती है। यह बताती है कि क्यों परम्परागत गायकी और कुमार गंधर्व की गायकी एक-दूसरे को पीठ दिए बैठी रहती हैं। एक ही उत्स से जन्म लेकर भी क्यों दोनों अलग दिशाएँ पकड़ती हैं और आगे जाकर उन में इतनी दूरी आ जाती है कि समझौते की सम्भावना तक बाक़ी नहीं बचती।
असल में हमारे ज़्यादातर संगीतज्ञ, जिन में पढ़े-लिखे भी हैं, ‘परम्परा’ का जो मतलब समझते हैं, गड़बड़ उसी में है।* उनकी नज़र में परम्परा का अर्थ है पिछली पीढ़ियों से मिली कलात्मक सम्पदा को ज्यों-का-त्यों अपना लेना। उसी को शुद्ध और आदर्श मानना। उस में ज़रा-सी मिलावट, प्रयोग की हलकी-सी आहट भी उन्हें विचलित कर देती है। ताज्जुब की बात यह है कि इन में ऐसे लोग भी हैं, जो मानते हैं कि हमारा संगीत कभी एक-सा नहीं रहा, बदलता रहा है। आप उनसे कह दें कि आज की ज़रूरतों के हिसाब से कुमार गंधर्व भी संगीत को बदल रहे हैं तो वे आपे से बाहर हो उठेंगे — “यह बदलना नहीं, शास्त्रीय संगीत की धज्जियाँ उड़ाना है।“
जो हो, कुमार को इस सबकी परवाह नहीं। ऐसा इसलिए नहीं कि वे दुराग्रही हैं, अहंकारी हैं और बुज़ुर्गों की इज़्ज़त नहीं करते। बल्कि इसलिए कि ‘परम्परा’ क्या है, इसके मर्म को उन्होंने समझ लिया है। वह जानते हैं कि पुरखों ने जो कुछ पैदा किया, अपने ज़माने के हिसाब से किया। वह यह भी जानते हैं कि जो कलात्मक विरासत हमें मिली है, उसे हमारे पूर्वजों ने ही सदियों की जद्दो-जेहद के बाद हासिल करके हमें दिया है। उन्हें मालूम है कि इस धरोहर में ऐसा बहुत-कुछ है, जो हमारे काम का है। मगर, साथ ही वह यह भी जानते हैं कि इसमें बहुत-कुछ ऐसा है जो आज सार्थक नहीं रह गया, जो मरणासन्न है। हमारी परम्परा में क्या जीवन्त है और क्या मृत, इसको पकड़ने वाली बारीक़ नज़र कुमार गंधर्व के पास मौजूद है। इस नज़र ने ही वह ताक़त दी है, जो क़दम-क़दम पर बाधाओं के बावजूद उन्हें अपने पथ से विचलित नहीं होने देती। वह मज़बूती दी है, जो चौतरफ़ा हमलों के बावजूद उन्हें समझौता नहीं करने देती।
व्यावसायिक मंच से जुड़े होने पर भी इतना बड़ा ख़तरा मोल लेने का साहस कुमार गंधर्व की काठी का आदमी ही दिखा सकता है।
मज़े की बात है कुमार अपने को सच्चा परम्परावादी मानते हैं— “मेरे जितना ऑर्थोडॉक्स कोई है ही नहीं। कोई नहीं है संगीत में मेरे जितना ऑर्थोडॉक्स।” कितना आत्मविश्वास है उन्हें — “और मैं ऑर्थोडॉक्स हूँ, इसीलिए कुछ कर सकता हूँ। आप फ़ंडामेंटल विचार करना छोड़ बैठे हैं संगीत में, तो इसमें मेरा क्या क़सूर।”
इसीलिए कुमार गन्धर्व को स्वच्छंदतावादी कह देना इतना आसान नहीं। ‘स्वच्छंदता’ से निजी स्वार्थ की और परम्परा के तिरस्कार की गंध आती है। कुमार में ये दोनों ही नहीं हैं। उनका विद्रोह स्वैराचार नहीं है। बंधनों से मुक्ति नहीं चाहता वह। “राग-संगीत में बंधन है। जितना बंधन आप डालेंगे, उसका ‘पावर’ बढ़ता जाता है।” किसी स्वच्छंदतावादी से कभी सुनी है आपने ऐसी बात ?
कुमार गन्धर्व ‘बंधनयुक्त स्वैर’ में विश्वास करते हैं। ‘स्वैरयुक्त बंधन’ में उनकी दिलचस्पी नहीं। बंधन ज़्यादा और फिर स्वैर यानी स्वच्छंदता। यह बड़ा मुश्क़िल है। बंधन वह ख़ुद पैदा करते हैं। राग लगनगंधार के उतरे-चढ़े दोनों कोमल गंधार और दोनों कोमल निषाद उन्होंने ख़ुद बनाए। ख़ुद बंधन तैयार किया अपने लिए। बार-बार उसे निभाते हैं, बँधते हैं। अपनी ही रस्सी से जकड़ते हैं ख़ुद को। जेवड़ा तुड़ाकर नहीं भागते, ख़ुद खूँटे से बँधते हैं। मगर यह जेवड़ा उनका अपना ही है, खूँटा भी अपना है। अपना कहना भी ग़लत है। यह रस्सी, यह खूँटा अपनी विरासत को समझने, उसे आत्मसात करने से पैदा हुए हैं। हमारी परम्परा के सकारात्मक हिस्सों का निचोड़ है इनमें।
कुमार गन्धर्व का संगीत आदमी की पुनर्प्रतिष्ठा की ज़बरदस्त कोशिश है। हमारे रागदारी संगीत का अधिकांश आज भी दरबारी मानसिकता से जकड़ा है। वह भी उस दौर की मानसिकता से जब रजवाड़े अंतिम साँसें ले रहे थे। दरबारी संगीत पूरी तरह आदमी से कट गया था। तानबाज़ी की विकरालता और लयकारी के गणितीय चमत्कार हावी हो चले थे। असुरक्षा की भावना ने अपने गुर छिपाने की मजबूरी उस्तादों के सामने ला धरी थी। गोपनीयता की इस प्रवृत्ति ने समाज के बड़े हिस्सों से संगीत का रिश्ता ख़त्म कर दिया। कला जब सिमट कर बिलों में घुसने लगे तो ज़िंदगी की ताज़ा हवा से उसका महरूम हो जाना लाज़िमी है। वह बीमार पड़ जाती है। आदमी से डरने लगती है। यह अकारण नहीं कि आज भी शास्त्रीय संगीतज्ञों का एक बड़ा हिस्सा अपने संगीत को आम आदमी से दूर रखने की सिफ़ारिश करते कोई शर्म महसूस नहीं करता।
कुमार ने हमारे रागदारी संगीत को ताज़ा हवा में साँस लेने का मौक़ा दिया है। जड़ बंधनों को काटकर उसे पनपने और फिर से तंदुरुस्ती हासिल करने का अवसर दिया है।
लोक-संगीत का उनका अभ्यास उनके रागदारी संगीत को ऑक्सीजन देता है। इस तरह उनका संगीत अभिजात होते हुए भी लोकोन्मुखी है। लोक उसमें अनायास घुल गया है। बेशक़ उसका चरित्र उच्चवर्गीय है, मगर खाद-पानी जुटाने के लिए वह बार-बार ज़मीन से जुड़ता है। उससे रस-ग्रहण करता है। इसके लिए कुमार सोची-समझी कोशिश नहीं करते। लोक-संगीत का उनके रक्त में घुल-मिल जाना अनजाने इस प्रक्रिया को सम्पन्न कराता रहता है।
कुमार गन्धर्व की शिकायत है कि घरानों ने हमारे संगीत की सर्जनात्मकता समाप्त कर दी है।
वे कलाकार से कुलीगीरी कराते हैं। “कुलीगीरी यानी लीक पर चलना, जो पुराने कहते चले आ रहे हैं, उसे कहना। बोझ लेकर चलना। घराना तो एक बोझा ही हुआ न। मेरे अपने संगीत का जब मुझ पर बोझा नहीं, तो आपका बोझा कहाँ लेता फिरूँ मैं! मैं ने कल जो गाया, वह ख़तम हो गया। आज फिर फ़्रैश विचार करूँगा। मेरे पास राग है और ताल है। जो गाया, उसको काहे को, क्यों याद रखूँ? आप जब लिखते हैं, तो कुछ याद करते हैं क्या? कविता करते में कुछ याद करते हैं आप? एक कविता करने के बाद दूसरी लिखते वक़्त पहली को याद करते हैं आप? अच्छी पेन्टिंग करने के बाद नई पेन्टिंग बनाते समय आपको उसे याद रखना पड़ता है क्या? फिर संगीत से ही ऐसी उम्मीद क्यों करते हैं? संगीत को आप फिर कला क्यों कहते हैं? बहुत कुछ याद करके आप विद्वान भले ही हो जाएँ, ज्ञानी नहीं हो सकते। एक तरफ़ कलाकार कहना, दूसरी तरफ़ सृजन का बिलकुल लोप, यह कैसे? यह तो जमती नहीं बात। हमारे विचार में नहीं जमती। रोज़ आपको नई भूख लगनी चाहिए, तो ही आपका पेट है और आप ज़िंदा हैं। आप ‘म्यूज़ियम’ क्यों बनते हैं?”
कुमार गंधर्व के ये सवाल किसी सिरफिरे के सवाल नहीं। न किसी एक आदमी के सवाल हैं ये। हमारा पूरा युग इनके पीछे हिलोरें ले रहा है। सामंती कला के सामने लोकतंत्री आशा-आकांक्षाओं से पैदा हुए सवालिया निशान हैं ये। दरबारी सौंदर्यशास्त्र के ख़िलाफ़ जनतन्त्री सौंदर्यशास्त्र की बग़ावत हैं ये। इन्हें झुठलाया नहीं जा सकता, दबाया नहीं जा सकता।

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(लेखक साहित्य व संगीत से जुड़े विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं) 
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