Saturday, April 20, 2024
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युवा शक्ति के प्रेरक और आदर्श स्वामी विवेकानंद

जयंती(12जनवरी)पर विशेषः राष्ट्रीय युवा दिवस

स्वामी विवेकानंद भारतीय आध्यात्मिकता और भारतीय जीवन दर्शन को विश्वपटल पर स्थापित करने वाले नायक हैं। भारत की संस्कृति, भारतीय जीवन मूल्यों और उसके दर्शन को उन्होंने ‘विश्व बंधुत्व और मानवता’ को स्थापित करने वाले विचार के रूप में प्रचारित किया। अपने निरंतर प्रवासों, लेखन और मानवता को सुख देने वाले प्रकल्पों के माध्यम से उन्होंने यह स्थापित किया कि भारतीयता और वेदांत का विचार क्यों श्रेष्ठ है। कोलकाता महानगर के एक संभ्रांत परिवार में 12 जनवरी,1863 को जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त या नरेन का विवेकानंद हो जाना साधारण घटना नहीं है। बताते हैं कि बाल्यावस्था से ही नरेन एक चंचल प्रकृति के विनोदप्रिय बालक थे। सन्यासी जीवन के प्रति उनका सहज आकर्षण था। बचपन में वे अपने मित्रों से कहा करते थे- “मैं तो अवश्य ही सन्यासी बनूंगा। एक हस्तरेखा विशारद ने ऐसी भविष्य वाणी की है।” स्वामी रामकृष्ण परंमहंस ने उनकी जिंदगी को पूरा का पूरा बदल डाला। नवंबर,1881 के आसपास हुई गुरु-शिष्य की इस मुलाकात ने एक ऐसे व्यक्तित्व को संभव किया, जिसे रास्तों की तलाश थी।

छोटी जिंदगी का बड़ा पाठ-

स्वामी विवेकानंद ज्यादा बड़े संन्यासी थे या उससे बड़े संचारक (कम्युनिकेटर) या फिर उससे बड़े प्रबंधक ? यह सवाल हैरत में जरूर डालेगा पर उत्तर हैरत में डालनेवाला नहीं है क्योंकि वे एक नहीं,तीनों ही क्षेत्रों में शिखर पर हैं। वे एक अच्छे कम्युनिकेटर हैं, प्रबंधक हैं और संन्यासी तो वे हैं ही। भगवा कपड़ों में लिपटा एक संन्यासी अगर युवाओं का ‘रोल माडल’ बन जाए तो यह साधारण घटना नहीं है, किंतु विवेकानंद के माध्यम से भारत और विश्व ने यह होते हुए देखा। उनके विचार अगर आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं तो समय के पार देखने की उनकी क्षमता को महसूस कीजिए। एक बहुत छोटी सी जिंदगी पाकर भी उन्होंने जो कर दिखाया वह इस धरती पर तो चमत्कार सरीखा ही था।

स्वामी विवेकानंद की बहुत छोटी जिंदगी का पाठ बहुत बड़ा है। वे अपने समय के सवालों पर जिस प्रखरता से टिप्पणियां करते हैं वे परंपरागत धार्मिक नेताओं से उन्हें अलग खड़ा कर देती हैं। वे समाज से भागे हुए सन्यासी नहीं हैं। वे समाज में रच बस कर उसके सामने खड़े प्रश्नों से मुठभेड़ का साहस दिखाते हैं। वे विश्वमंच पर सही मायने में भारत, उसके अध्यात्म, पुरूषार्थ और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को स्थापित करने वाले नायक हैं। वे एक गुलाम देश के नागरिक हैं पर उनकी आत्मा,वाणी और कृति स्वतंत्र है। वे सोते हुए देश और उसके नौजवानों को झकझोर कर जगाते हैं और नवजागरण का सूत्रपात करते हैं। धर्म को वे जीवन से पलायन का रास्ता बनाने के बजाए राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र के लोगों से प्रेम और पूरी मानवता से प्रेम में बदल देते हैं।शायद इसीलिए वे कह पाए-“ व्यावहारिक देशभक्ति सिर्फ एक भावना या मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। देशभक्ति का अर्थ है अपने साथी देशवासियों की सेवा करने का जज्बा।”

अप्रतिम संवाद कला और नेतृत्व क्षमता-

अपने जीवन,लेखन, व्याख्यानों में वे जिस प्रकार की परिपक्वता दिखाते हैं, पूर्णता दिखाते हैं वह सीखने की चीज है। उनमें अप्रतिम नेतृत्व क्षमता, कुशल प्रबंधन के गुर,परंपरा और आधुनिकता का तालमेल दिखता है। उनमें परंपरा का सौंदर्य है और बदलते समय का स्वीकार भी है। वे आधुनिकता से भागते नहीं, बल्कि उसका इस्तेमाल करते हुए नए समय में संवाद को ज्यादा प्रभावकारी बना पाते हैं। स्वामी जी का लेखन और संवादकला उन्हें अपने समय में ही नहीं, समय के पार भी एक नायक का दर्जा दिला देती है।

आज के समय में जब संचार और प्रबंधन की विधाएं एक अनुशासन के रूप में हमारे सामने हैं तब हमें पता चलता है कि स्वामी जी ने कैसे अपने पूरे जीवन में इन दोनों विधाओं को साधने का काम किया। यह वह समय था जब मीडिया का इतना कोलाहल न था फिर भी छोटी आयु पाकर भी वे न सिर्फ भारत वरन दुनिया में भी जाने गए। अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाया और उनकी स्वीकृति पाई। क्या कम्युनिकेशन की ताकत और प्रबंधन को समझे बिना उस दौर में यह संभव था। स्वामी जी के व्यक्तित्व और उनकी पूरी देहभाषा को समझने पर उनमें प्रगतिशीलता के गुण नजर आते हैं। उनका अध्यात्म उन्हें कमजोर नहीं बनाता, बल्कि शक्ति देता है कि वे अपने समय के प्रश्नों पर बात कर सकें। उनका एक ही वाक्य –“उठो!जागो ! और तब तक मत रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता।” उनकी संचार और संवादकला के प्रभाव को स्थापित करने के लिए पर्याप्त है। यह वाक्य हर निराश व्यक्ति के लिए एक प्रभावकारी स्लोगन बन गया। इसे पढ़कर जाने कितने सोए, निराश, हताश युवाओं में जीवन के प्रति एक उत्साह पैदा हो जाता है। जोश और उर्जा का संचार होने लगता है। स्वामी जी ने अपने जीवन से भी हमें सिखाया। उनकी व्यवस्थित प्रस्तुति, साफा बांधने की शैली जिसमें कुछ बाल बाहर झांकते हैं बताती है कि उनमें एक सौंदर्यबोध भी है।

वे स्वयं को भी एक तेजस्वी युवा के रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनके विचार भी उसी युवा चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शास्त्रीय प्रसंगों की भी ऐसी सरस व्याख्या करते हैं कि उनकी संचारकला स्वतः स्थापित हो जाती है। अपने कर्म, जीवन, लेखन, भाषण और संपूर्ण प्रस्तुति में उनका एक आदर्श प्रबंधक और कम्युनिकेटर का स्वरूप प्रकट होता है। किस बात को किस समय और कितने जोर से कहना यह उन्हें पता है। 1893 में शिकागो में आयोजित धर्म सम्मेलन में उनकी उपस्थति सही मायने में भारत के आत्मविश्वास और युवा चेतना की मौजूदगी थी। जिसने समूचे विश्व के समक्ष भारत के मानवतावादी पक्ष को रखा। श्री अरविंद ने अमरीका में स्वामी विवेकानंद के प्रवास की सफलता से प्रभावित होकर कहा-“विवेकानंद का विदेश गमन, उनके गुरु की यह उक्ति कि इस वीर पुरुष का जन्म ही इस संसार को अपने दोनों हाथों को बीच लेकर बदल देने के लिए हुआ है। इस बात का प्रथम दृश्य प्रमाण था कि भारत जाग उठा है, केवल जीवित रहने के लिए नहीं बल्कि विश्वविजयी होने के लिए। ”

सामाजिक न्याय के प्रखर प्रवक्ता-

अमरीका के विश्व धर्म सम्मेलन में वे अपने संबोधन से ही लोगों को सम्मोहित कर लेते हैं। भारत राष्ट्र और उसके लोगों से उनका प्रेम उनके इस वाक्य से प्रकट होता है-“ आपको सिखाया गया है अतिथि देवो भव, पितृ देवो भव, मातृदेवो भव। पर मैं आपसे कहता हूं दरिद्र देवो भव, अज्ञानी देवो भव, मूर्ख देवो भव।” यह बात बताती है कि कैसे वे अपनी संचार कला से लोगों के बीच गरीब, असहाय और कमजोर लोगों के प्रति संवेदना का प्रसार करते नजर आते हैं। समाज के कमजोर लोगों को भगवान समझकर उनकी सेवा का भाव विवेकानंद जी ने लोगों के बीच भरना चाहा। वे साफ कहते हैं- “यदि तुम्हें भगवान की सेवा करनी हो तो, मनुष्य की सेवा करो। भगवान ही रोगी मनुष्य, दरिद्र पुरूष के रूप में हमारे सामने खड़ा है।वह नर वेश में नारायण है।” संचार की यह शक्ति कैसे धर्म को एक व्यापक सामाजिक सरोकारों से जोड़ देती है यह स्वामी जी बताते हैं। सही मायने में विवेकानंद जी एक ऐसे युगपुरूष के रूप में सामने आते हैं जिनकी बातें आज के समय में ज्यादा प्रासंगिक हो गयी दिखती हैं। धर्म के सच्चे स्वरूप को स्थापित कर उन्होंने जड़ता को तोड़ने और नए भारत के निर्माण पर जोर दिया। भारतीय समाज में आत्मविश्वास भरकर उन्हें हिंदुत्व के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान दिया जिसमें सबका स्वीकार है और सभी विचारों का आदर करने का भाव है। इसलिए वे कहते थे भारत का उदय अमराईयों से होगा। अमराइयां का मायने था छोटी झोपड़ियां। वे कहते हैं-“ जनसाधारण को शिक्षा दो। उनको जगाओ-तभी राष्ट्र का निर्माण होगा।सारा दोष इसी में है कि सच्चा राष्ट्र जो झोपड़ियों में रहता है अपना मनुष्यत्व भूल चुका है, अपना व्यक्तित्व खो चुका है। उनके मस्तिष्क में उच्च विचारों को पहुंचाओ, शेष सब वे स्वयं कर लेंगे।”

स्वामी विवेकानंद भारतीय संदर्भ में सामाजिक न्याय के सबसे प्रखर प्रवक्ता हैं। वे दिखावटी संवेदना के खिलाफ थे और इसलिए स्वामी जी को जीवन में उतारना एक कठिन संकल्प है। आज जबकि कुपोषण,पर्यावरण के सवालों पर बात हो रही है। स्वामी जी इन मुद्दों पर बहुत सधी भाषा में अपनी बात कर चुके हैं। वे बेहतर स्वास्थ्य को एक नियामत मानते हैं। इसीलिए वे कह पाए कि गीता पढ़ने से अच्छा है, फुटबाल खेलो। एक स्वस्थ शरीर के बिना भारत सबल न होगा यह उनकी मान्यता थी। वे समूची विश्व मानवता को संदेश देते हैं-“ जो ईश्वर तुम्हारे भीतर है ,वही ईश्वर सभी के भीतर विराजमान है। यदि तुमने यह नहीं जाना है तो तुमने कुछ भी नहीं जाना है। भेद भला कैसे संभव है? सब एक ही हैं। प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा का मंदिर है। यदि तुम देख सको तो अच्छा है। यदि नहीं, तो तुम्हारे जीवन में आध्यात्मिकता आई ही नहीं है। ”

सोते हुए भारत को जगाने वाला सन्यासी-

मात्र 39 साल की आयु में 4 जुलाई,1902 वे दुनिया से विदा हो गए, किंतु वे कितने मोर्चों पर कितनी बातें कह और कर गए हैं कि वे हमें आश्चर्य में डालती हैं। एक साधारण इंसान कैसे अपने आपको विवेकानंद के रूप में बदलता है। इसमें एक प्रेरणा भी है और प्रोत्साहन भी। आज की युवा शक्ति उनसे प्रेरणा ले सकती है। स्वामी विवेकानंद ने सही मायने में भारतीय समाज को एक आत्मविश्वास दिया, शक्ति दी और उसके महत्व का उसे पुर्नस्मरण कराया। सोते हुए भारत को उन्होंने झकझोरकर जगाया और अपने समूचे जीवन से सिखाया कि किस तरह भारतीयता को पूरे विश्वमंच पर स्थापित किया जा सकता है। वे अपने देश भारत और उसकी आध्यात्मिक शक्ति को पहचानते थे, इसीलिए उन्होंने सितंबर,1894 को मद्रास के हिंदुओं को लिखे पत्र में कहा-“क्या भारत मर जाएगा? तब तो संपूर्ण विश्व से आध्यात्मिकता लुप्त हो जाएगी, सभी नैतिकता पूर्णतः समाप्त हो जाएगी, आर्दशवाद समाप्त हो जाएगा तथा उसके स्थान पर काम और विलासिता रुपी पुरुष और स्त्री राज्य करेंगे। जिसमें धन पुरोहित होगा, छल,बल और प्रतियोगिता पूजा-विधि होगी तथा मानव आत्मा बलि होगी। ऐसा कभी नहीं हो सकता ।” एक बेहतर कम्युनिकेटर, एक प्रबंधन गुरू, एक आध्यात्मिक गुरू, वेदांतों का भाष्य करने वाला सन्यासी, धार्मिकता और आधुनिकता को साधने वाला साधक, अंतिम व्यक्ति की पीड़ा और उसके संघर्षों में उसके साथ खड़ा सेवक, देशप्रेमी, कुशल संगठनकर्ता, लेखक एवं संपादक, एक आदर्श शिष्य जैसी न कितनी छवियां स्वामी विवेकानंद से जुड़ी हैं। किंतु हर छवि में वे अव्वल नजर आते हैं।

राष्ट्रीय युवा दिवस क्यों-

भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने 1984 में स्वामी विवेकानंद की जयंती 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस मनाने की घोषणा की। इसके बाद 1985 से यह दिन युवा दिवस के रुप में निरंतर मनाया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1985 को “अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष” घोषित किया गया था,इसी बात को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने घोषणा की थी कि सन 1985 से हर वर्ष 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानंद के जन्मदिवस को देश भर में राष्ट्रीय युवा दिन के रूप में मनाया जाए। इस संदर्भ में भारत सरकार का विचार था कि स्वामी जी का दर्शन, उनका जीवन तथा कार्य एवं उनके आदर्श भारतीय युवकों के लिए प्रेरणास्रोत साबित हो सकते हैं। इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं, रैलियां निकाली जाती हैं, योगासन की स्पर्धा आयोजित की जाती है, व्याख्यान होते हैं और विवेकानन्द साहित्य की प्रदर्शनी लगती है। भारत सरकार के संगठन नेहरू युवा केंद्र के द्वारा देश भर में स्वामी विवेकानंद जयंती पर अनेक आयोजन किए जाते हैं।

स्वामी विवेकानंद को याद किया जाना सही मायनों में भारत की युवा तेजस्विता, भारतबोध और भारत के बहाने विश्व को सुखी बनाने के विचार को प्रेरित करना है। उनकी याद एक ऐसे नायक की याद है जिसने विश्व मानवता के सुख के सूत्र खोजे। जिसने स्वीकार्यता को, आत्मीयता को, विश्व बंधुत्व को वास्तविक धर्म से जोड़ा। जिसने सेवा के संस्कार को धर्म के मुख्य विचार के रूप में स्थापित किया। जिसने किताबों में पड़े कठिन अधात्म को जनता के सरोकारों से जोड़ा। प्रख्यात लेखक रोमां रोलां इसलिए कहते हैं-“उनके शब्द महान् संगीत हैं, बेथोवन-शैली के टुकड़े हैं, हैडेल के समवेत गान के छन्द-प्रवाह की भांति उद्दीपक लय हैं। शरीर में विद्युत स्पर्श के –से आघात की सिहरन का अनुभव किए बिना मैं उनके इन वचनों का स्पर्श नहीं कर सकता जो तीस वर्ष की दूरी पर पुस्तकों के पृष्ठों में बिखरे पड़े हैं। और जब वे नायक के मुख से ज्वलंत शब्दों में निकले होगें तब तो न जाने कैसे आघात एवं आवेग पैदा हुए होंगे।”

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान(आईआईएमसी), दिल्ली के महानिदेशक हैं।)

संपर्कः

प्रो. संजय द्विवेदी

महानिदेशकः भारतीय जनसंचार संस्थान

अरुणा आसफ अली मार्ग, जे.एन.यू. न्यू कैम्पस, नई दिल्ली-110067

मोबाइल-9893598888, ई-मेल[email protected]


– प्रो. संजय द्वेिवेदी
Prof. Sanjay Dwivedi

महानिदेशक

Director General

भारतीय जन संचार संस्थान,

Indian Institute of Mass Communication,

अरुणा आसफ अली मार्ग, जे.एन.यू. न्यू केैम्पस, नई दिल्ली.

Aruna Asaf Ali Marg, New JNU Campus, New Delhi-110067.

मोबाइल (Mob.) 09893598888

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