Saturday, April 20, 2024
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जब दौड़ी उम्मीदों की रेल…

कई दिनों से उसकी रातों की नींद और दिन का चैन ग़ायब था| बार-बार उसकी आँखों के आगे उसके बूढ़े पिता का चेहरा कौंध जाता था, बार-बार उसके कानों में विदा के वक्त कही गई उसकी माँ की लड़खड़ाती आवाज़ गूँज जाया करती थी- ”बेटा, दाल-रोटी तो अपने गाँव में भी मिल ही जाती है| खेत-खलिहान, ढोर-मवेशी की देख-भाल भी हो जाती है और दो जून की रोटी भी नसीब हो जाती है| क्या करेगा परदेस जाकर? भगवान का दिया बहुत है, उसी से काम चला लेंगें| यहाँ तू कम-से-कम हमारी आँखों के सामने तो है| तुझे देखकर हम बूढ़ों का कलेजा जुड़ जाता है| तू सामने है तो एक गिलास पानी पूछने वाला तो कोई है! भगवान न करे……|” उसने माँ को पूरा बोलने भी नहीं दिया था और बीच में ही रोककर बोल पड़ा था- ” तू ऐसा क्यों सोचती है माँ! अब दुनिया बहुत बदल चुकी है| देख, यह जो छोटा-सा यंत्र है न इसमें पूरी दुनिया समाई हुई है और इससे तो हम ऐसे बतिया सकते हैं, जैसे आमने-सामने बैठकर बतियाते हैं| और वो जो तू आसमान में उड़ता देखती है न, उसमें बैठकर दिनों की दूरी घण्टों में तय की जा सकती है| इस यंत्र से तूने उधर संदेश भेजा और इधर मैं उड़कर तेरे पास| अब ग़रीब-गुरबे भी चाहें तो हवाई सफर कर सकते हैं माँ! अब अपना देश भी बदलने लगा है|”

पर आज उसे एहसास हो रहा था, कि यह सब इतना आसान नहीं| कुछ पाने की आस में पीछे कितना कुछ छूट जाता है| आज उसे लग रहा था कि इंसानों ने न जाने कैसे-कैसे अजूबे रच डाले, कैसे-कैसे यंत्र बना डाले, कैसा-कैसा करिश्मा कर डाला, मगर फ़िर भी ऊपर वाले की मर्ज़ी और वक्त के आगे वह है एकदम लाचार, बेबस| वह और उस जैसे तमाम परदेसी, ग़रीब, मज़दूर सब बेबसी में एक-दूसरे का मुँह ताकने, एक-दूसरे को ढाँढ़स बंधाने के अलावा और कर भी क्या पा रहे थे? और वही क्यों जिनकी रातें चाँदी और दिन सोना उगलता था, जो हवा से बातें करते थे, आसमान से पल भर धरती पर पाँव तक नहीं धरते थे, जिनका आठों पहर मौज-मस्ती में बीतता था, ऐसे धन्ना सेठों की भी इस छोटे-से जीव ‘कोरोना’ के आगे क्या चल पा रही है! इन्हीं विचारों में डूबता- उतराता वह सोचने लगा कि काश, विधना ने उसे पंख दिए होते तो वह उड़कर अपने गाँव पहुँच जाता और अपने बूढ़े माता-पिता से लिपट उन्हें हिम्मत देता कि ”अब मैं आ गया हूँ| अब तुम्हें चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं|” पर इंसान का सोचा और चाहा कब हुआ है, कब होता है!

आज उसे लग रहा था कि उसके हँसुआ-हथौड़े वाले साथी ठीक ही कहा करते थे कि सरकार तो केवल अमीरन का पेट भरने का काम करती है, हम गरीबन की फ़िक्र करने वाला तो इत्ते बड़े संसार में कौनो नहीं है| पर अगले ही पल उसे यह भी याद आता कि इस लॉकडाउन के कारण जब से उसका काम-धंधा छूटा है, सरकार उसका और उसके तमाम मज़दूर भाइयों का भी रहने-खाने का ठीक-ठाक ख़्याल रख रही है| बल्कि उसे यह भी याद आता कि उसके हँसुआ-हथौड़ा वाले साथी युवावस्था में उसे समझाते कि इन शहरों में रहने वाले लोग हम गरीबों का खून चूस-चूसकर ही बड़े बनते हैं, मोटे-ताजे रहते हैं, उन्हें गरीबों से जन्मजात नफ़रत होती है, पर पिछले दो महीनों से बिना किसी जान-पहचान के उन्हीं शहरों, उन्हीं मोहल्लों, उन्हीं मकानों में रहने वाले लोग अकारण उसकी और उसके साथियों की कुछ-न-कुछ मदद कर जाते हैं| कोई उनसे किराया नहीं लेता है तो कोई मास्क बाँट जाता है तो कोई राशन सामग्री दे जाता है तो कोई दवा-पानी की व्यवस्था कर जाता है और कोई कुछ नहीं तो प्यार के दो मीठे बोल बोलकर धीरज ही बँधा जाता है| उसे तो विपदा की इस घड़ी में अमीर-ग़रीब, बड़े-छोटे की ‘लड़ाई’ के स्थान पर चारों ओर मदद और इंसानियत नज़र आ रही थी, प्रेम और सहयोग दिखाई दे रहा था| वह अपने दोस्त भोलुआ से पूछता कि ” भोलुआ, तुम्हें याद है कॉमरेड बर्मन दा, हम सबसे कहा करते थे कि हर समय अमीर-गरीब, छोटे-बड़े के बीच में लड़ाई चलती रहती है| पर मुझे तो कोई लड़ाई नहीं दिखती, सब दुःख-सुख के साझीदार नज़र आते हैं, ज़रूरत के वक्त सब एक दूसरे के काम आते हैं, दर्द हमें होता है और ऑंखें किसी और की भर आती है| ये जो ख़ाकी पेंट वाले अपनी जान जोख़िम में डालकर हमें खाने का पैकेट दे जाते हैं, वे जो ऊँची बिल्डिंग वाले साहब हमें मास्क-दवा-राशन बाँट जाया करते हैं, उनसे आदमियत के अलावा हमारा कौन-सा रिश्ता है! देख भोलुआ, हमरी मोटी बुद्धि को बस यही बात समझ आती है कि ज़रूरत के वक़त इंसान ही इंसान के काम आवत है और यह इंसानियत ही है जो दुनिया थामे है|” भोलुआ बिचारे को कोई उत्तर न सूझता तो बस इतना बोल देता कि ”बर्मन दा बहुते पढ़े-लिखे आदमी हैं| उनकी बात हम कम पढ़े-लिखों को थोड़े समझ आएगी| तुझे याद नहीं, वे अपने गाँव में भी कभी-कभी साहबों जैसी कैसी फर्राटेदार अँग्रेजी बोलते थे| हम लोगन तो उनका मुंहे ताकत रह जाते थे कि ई कौन ज़ुबान है, कहाँ से निकलत है, कैसे बोलत जात है! उनकी ज़ुबानन के मायने-मतलब तब भले समझ में नाहि आवत रहीं, पर जब ऊ मोटर पर बैठ के आवत रहें, और मेहनत-मजूरी के मायने समझावत रहें तो कैसे ताली बजा-बजाकर लोग-बाग उनका स्वागत-समर्थन करते थे| हम लोगन तो केवल रमायन-महाभारत के किस्सा-कहानी सुन-सुनके कित्ता समझ-संस्कार सीख लेत हैं| और हम तो सुना हूँ कि ई कॉमरेड लोगन देश-विदेश के ई बड़ी-बड़ी, मोटी-मोटी, भारी-भरकम किरांती के किताब घोंट लेत हैं| उनकी बात हम साधारन लोगन की समझ में थोड़े आई|”

इतने में उनका दोस्त मिथुनवा दौड़ा-दौड़ा एक ख़बर लेकर आया और हाँफते-हाँफते बोला- ”सुना तुम लोगों ने, एक खुशखबरी है| सरकार ने हम मजदूरों को अपने खर्चे पर घर पहुँचाने का फैसला किया है| हिसार से बिहार, केरल से हिंडौल और ऐसे तमाम शहरों से मजदूरों को उनके घर भेजने के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाई जाने वाली है| देख दिनेशबा, मैं कहता था न कि ये अपनी सरकार है, कोई मुग़ल-अंग्रेज थोड़े न है कि अपने लोगों पर ही जुल्म ढाएगी| वह तो हम लोगन के हित में ही इतनी देरी हुई, वरना और पहले ई सब व्यवस्था हो जाती| ई बीमारी भी तो अजीब है, न इसका कौनो रूप है, न रंग, न ठीक-ठीक लक्षण| कब कौन वेश में किसी के शरीरन में प्रवेश कर जाय, ई कौनो नाहिं जानत| चलो-चलो ज़ल्दी तैयारी करो सब| दो दिन बाद ही गाड़ी खुलने वाली है| आधार कार्ड, मास्क और रास्ते में काम आने वाला सब ज़रूरी सामान तैयार कर लो|” यह सुनते ही दिनेश की आँखों में खुशी के आँसू छलछला आए| वृद्ध माता-पिता की चिंता में व्यग्र उसके मन को ठौर मिला| वहाँ मौजूद सभी मज़दूरों में भी खुशी की लहर दौड़ गई| उन्हें बड़ा संतोष था कि उन्होंने देश के जिम्मेदार नागरिकों की भाँति धैर्य और संयम से लॉकडाउन के नियमों का पालन किया| अपने देश, अपने परिजनों के लिए उन्होंने यह त्याग किया| उन्हें इस बात की खुशी और संतुष्टि थी कि जमातियों की तरह वे बीमारी के इहाँ-उहाँ फैलाने वाले अधर्मी न बने|

और अंततः वह दिन भी आया जब अपनों से मिलने की उमंग और उछाह लिए वे अपने-अपने घर की ओर प्रस्थान किए| रेल की पटरियों पर ज़िंदगी दौड़ने लगी, सपने कुलाँचे मारने लगीं, अरमान मचलने लगे, रिश्ते परवान चढ़ने लगे, और मन-मयूर अपनों की सुधि में मदमस्त होने लगा| अपनों का अपनों के प्रति यह आदिम जुड़ाव सतत गतिमान रहे, अनवरत प्रवहमान रहे| अपनों का अपनों के प्रति यह तड़प ही तो जीवन है| जीवन यदि एक प्रतीक्षा है तो मिलन उसकी पूर्णता| धड़कती जिंदगियां तमाम मुसीबतों में भी उम्मीदों का दामन नहीं छोड़तीं और ख़ुद समेत औरों को भी जीने का हौसला देतीं हैं, जीने के मायने समझा जाती हैं!
प्रणय कुमार
गोटन, राजस्थान
9588225950

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