Thursday, April 25, 2024
spot_img
Homeपुस्तक चर्चाभावों की एक सच्ची अभिव्यक्ति

भावों की एक सच्ची अभिव्यक्ति

——————————-
‘मैं भारत हूँ’ युवा पत्रकार और लेखक लोकेन्द्र सिंह की प्रथम काव्यकृति है। लोकेन्द्र सिंह मूल रूप से गद्य लेखक हैं। उनके सशक्त समसामयिक आलेख अक्सर हमें पढ़ने मिलते रहते हैं। चूँकि पेशे से पत्रकार हैं इसलिये कमियों और बुराइयों को खोजना और उन पर प्रहार करना उनके कार्य का आग्रह भी है और आवश्यकता भी। लेकिन, प्रस्तुत काव्य संकलन उनका नया रूप सामने लाया है, जो भले ही काव्य-सृजन के इतिहास में अपनी जगह का दावा नहीं करता लेकिन सच्ची और अच्छी भावनाओं का सुन्दर दस्तावेज है। उनकी कविताएं आलोचक से अलग एक कोमल भावभूमि को प्रस्तुत करतीं हैं, जिसमें अपने देश के लिये गहरा प्रेम और गर्व है। अपनी संस्कृति और अतीत के वैभव के लिये अटूट आस्था व विश्वास है। माता-पिता के लिये कृतज्ञता है। अजन्मी बेटी के लिये करुणा है। गाँव की यादें हैं। शहर का गौरव है, स्वाभिमान है। एक सकारात्मक दृष्टिकोण है, जो आज हाथ से छूटता नजर आ रहा है।
ऐसे समय में जबकि वैश्विक बाजार और सुविधाओं की चकाचौंध के प्रभाव से देश में विदेशी प्रभाव बढ़ रहा है, अपने देश व समाज के प्रति नाकारात्मकता आती जा रही है, देशभक्ति हाशिये पर जाती दिखाई दे रही है, जबकि रिश्तों में विश्वास और औदार्य का निरन्तर हास हो रहा है और व्यक्ति अपने आप में सिमटता जा रहा है, ‘मैं भारत हूँ‘ काव्य-संग्रह एक दिशा बनाता है कि जहाँ हम जन्मे हैं, जिसकी मिट्टी में पलकर बड़े हुए हैं वह भूमि हमारे लिये सर्वोपरि है। उसमें कमियां भी हैं तो वे गाने के लिये नहीं, दूर करने के लिये हैं, जो दूर तभी होंगी जब हम अपने देश व समाज के प्रति निष्ठावान् रहेंगे और यह तभी होगा जब हृदय में अपने देश के लिये आत्मीयता होगी, गर्व होगा। निम्न पंक्तियाँ कवि की अपने देश के प्रति अपना प्रेम और निष्ठा को बड़े आसान शब्दों में व्यक्त करतीं हैं-

“मेरे देश मेरे देश ,
मेरी रग-रग में है तू मेरी हर धड़कन में तू।
तू ही जिस्म तू ही जान …तुझसे स्पन्दित है हर साँस…”
और –
“मैंने देखा है भारत को
बहुत करीब से।
रोटी के लिये बिलखते हुए भी,
पर स्वाभिमान के साथ सिर ऊँचा किये,
स्वयं कष्ट सहकर दूसरों के जख्मों को सीते हुए भी
देखी है मैंने मानवता उसकी रग-रग में…”
कवि मानता है कि देश में गरीबी है और बहुत सी दूसरी कमियाँ हैं तो क्या हुआ माँ तो माँ है। सोचो कि किसी की माँ कितनी ही अच्छी हो पर क्या वह अपनी माँ से अधिक प्यारी हो सकती है? नहीं न? ….फिर कमियाँ ही क्यों, देखना है तो उसके नैसर्गिक सौन्दर्य को भी देखो, वैभवशाली सुदूर अतीत को देखो। विभिन्नता में भी देशवासियों की अपने देश की अखण्डता के लिये अटल अटूट एकता को देखो। मनन करो वह समय जब भारत विश्वगुरु कहलाता था।
इसी सुविशाल भावभूमि का एक हिस्सा है – ‘मैं भारत हूँ‘।

कवि ने अपनी बात में स्पष्ट कहा है कि “मैं अपने अतीत के स्वर्णिम पृष्ठों पर गर्व करता हूँ और वर्तमान को बेहतर बनाने की बात करता हूँ तथा उसके उज्ज्वल भविष्य के सपने बुनता हूँ। मेरा देश मेरे लिये महज एक भूगोल नहीं है, वह जीता-जागता देवता है। उसी की स्तुति में मैंने ये गीत रचे हैं।”

यही बात है जो कवि लोकेन्द्र को लीक से अलग बनाती है। मातृभूमि के लिये उनका स्नेह और ममत्त्व हर जगह दिखाई देता है। चिड़ियों का कलरव उनके लिये मातृभूमि की वन्दना है। सूरज की किरणें जैसे मातृभूमि के चरणों में सिर झुकाने के लिये ही हैं। यह आस्था और भक्ति का उत्कर्ष है।

कवि ने ठीक ही कहा है कि भले ही हमारे पास यूरोप और अमेरिका जैसी सुविधाएं नहीं लेकिन हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है जो दुनिया में कहीं नहीं है। तो फिर अपने देश के लिये हीनता का भाव क्यों? कमियाँ तो हर कहीं हैं तो क्या उनके कारण हम अपने देश को कमतर मान लें।
“क्यों आत्मविस्मृत हो रहा, अपना अस्तित्त्व पहचान रे।
सुकर्म और स्वधर्म से, कर राष्ट्र का पुनरुत्थान रे।।”

भावनाओं की दृष्टि से ‘मैं भारत हूँ’ की काव्यधारा विभिन्न तटों का स्पर्श करती हुई बहती है। पिता के लिये कही गई पंक्तियाँ देखें –
“पिता पेड़ है बरगद का,
सुकून भरी है उसकी छाँव
कैसी भी बारिश हो, डर नहीं
पिता छत है घर की।”
बेरोजगारी और बाहर की चकाचौंध में लोग गाँव से पलायन कर रहे हैं। उन्हें जीविका के साधन मिल भी जाते हैं लेकिन कितना कुछ छूट जाता है इसे लेकर कवि काफी व्यथित है। महानगर में फ्लैट की जिन्दगी का चित्र देखें-
“…देहरी छूटी, घर छूटा
माटी छूटी, खेत छूटा
नदी और ताल छूटा
नीम की वो छाँव छूटी
ऊँची इमारत के फ्लैट में
न आँगन है न छत अपनी
पैकबन्द… चकमुन्द दिनभर
बन गया कैदी बाजार का…”
कहीं-कहीं उनकी व्यथा की झलक भी दिखाई देती है, कहीं व्यंग्य में-
“वे रह रहे हैं पड़ोस में जाने कबसे
पर हमसे अनजान हैं…”
और कहीं विद्रोह में भी–
“दरियादिली से दुश्मन की हिमाकत बढ़ रही है।
अदब से रहेगा वो, तू जरा तिरछी नजर कर।।”

‘मैं भारत हूँ ‘ हाथ में आने से पहले ही मैं कवि भाई लोकेन्द्र सिंह के विचारों से अच्छी तरह परिचित हो चुकी हूँ इसलिये मुझे उनके भाव और अभिव्यक्ति की सच्चाई पर पूरा विश्वास है। उसमें कहीं भी आडम्बर या सायास लाया गया भावातिरेक नहीं है। चूँकि काव्य-सृजन में उनका यह प्रथम प्रयास है। रचनाएं निस्सन्देह कुछ और तराशे जाने की माँग करतीं हैं। कवि के भावों की ऊँचाई की तुलना में शब्दों की उड़ान कुछ निर्बल प्रतीत होती है, फिर भी इसमें सन्देह नहीं कि ये कविताएं कवि के नेक इरादों और अच्छे विचारों की सच्ची गवाह हैं। और अगर इरादे नेक हैं तो उम्मीदों की एक लम्बी श्रंखला सामने होती है। विश्वास की धरती पाँवों तले होती है कि सफर कितना भी लम्बा हो, धूप पाँव नहीं डिगा पाएगी। हौसलों में छाँव हमेशा साथ रहेगी। इस दृष्टि से यह संकलन स्वागत योग्य है। पठनीय हैं और अनुकरणीय भी। पूरा विश्वास है कि कवि का यह लोक कल्याणकारी सृजन और भी परिष्कृत रूप में अनवरत चलता रहेगा।
——————————
पुस्तक : मैं भारत हूँ
कवि : लोकेन्द्र सिंह
मूल्य : 200 रूपये
प्रकाशक : सन्दर्भ प्रकाशन, भोपाल
उपलब्धता : पुस्तक अमेज़न और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है।

संपर्क
लोकेन्द्र सिंह
Contact :
Makhanlal Chaturvedi National University Of
Journalism And Communication
B-38, Press Complex, Zone-1, M.P. Nagar,
Bhopal-462011 (M.P.)
Mobile : 09893072930
www.apnapanchoo.blogspot.in

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार