Saturday, April 20, 2024
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घर को सजाईये पुरातत्विक प्रतिमाओं से

हमारी विरासत ही हमारी पहचान है। आज भी कहीं न कहीं खण्डहरों और पुरा संपदा में हम अपने पूर्वजों की झलक देखते हैं और चिन्हों में अपना मान खोजते हैं। वैसे तो भारत में इतनी अधिक पुरा संपदा बिखरी पड़ी है कि एक जन्म क्या, कई जन्म भी इस भू-भाग पर लेना पड़े तो वह भी इन्हें देखने के लिए कम होंगे। फिर भी भारतीय पुरातत्व विभाग और राज्यों के पुरातत्व संचालनायल जो इन्हें सहेजने का काम कर रहे हैं, वह अपने आप में किसी चुनौती से कम नहीं है। संरक्षण और संवर्धन के अलावा पुरातत्व विभाग इन कलाकृतियों को घर-घर स्थापित करने का बड़ा कार्य कर रहा है। आप जब चाहें तब, जितने चाहें उतनी संख्या में प्राचीन कलाकृतियों को अपने साथ ले जा सकते हैं, हूबहू वैसी ही जैसी वे मूल आकार में आपने उन्हें देखा है। आज प्रदेश की प्रमुख 55 प्रतिकृतियों को कई सांचों में ढाला जा रहा है। हर प्रतिकृति को असली रूप प्रदान करने में काफी मेहनत लगती है।

मध्य प्रदेश में पुरातत्व, अभिलेखागार और संग्रहालय विभाग ने एक अलग मॉडलिंग सेल तैयार किया है, जहां दुर्लभ कलात्मक और मूल्यवान पुरातात्विक पुरातनताओं से संबंधित प्रतिकृतियां बनाई जा रही हैं। संचालनालय, पुरातत्व, अभिलेखागार एवं संग्रहालय आयुक्त अनुपम राजन इस सेल की स्थापना और उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हमारा यह प्रयास महत्वपूर्ण कला वस्तुओं को प्रचारित करने में मदद करता है। पुरातत्व संचालनालय का प्रयास यही है कि जो भी प्रतिकृतियां विभाग द्वारा तैयार की जाएं, वह पुरातात्विक मानदंडों के अनुसार, अपने आकार, आकृति और रंगों के अनुसार मूल कृति के समान हों। प्रतिकृतियां बनाने का मुख्य उद्देश्य नागरिकों के बीच सांस्कृतिक जागरूकता को बढ़ावा देना और विकसित करना है। अनुपम राजन ने ‘युगवार्ता’ को बताया कि मध्य प्रदेश में सबसे अधिक मांग शालभंजिका प्रतिकृति की रहती है। इस प्रतिकृति की विशेषता यह है कि इसके प्राचीनतम होने के साथ ही यह अपने आनुपातिक भागों और गीतात्मक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध है। यही कारण है कि इसे भारतीय वीनस और ग्यारसपुर महिला के रूप में भी जाना जाता है। विदिशा जिले से प्राप्त यह प्रतिमा अब गूजरी महल संग्रहालय, ग्वालियर में प्रदर्शित की गई है। राजन कहते हैं कि हमारे यहां जो सबसे अधिक समय लेकर बहुत मेहनत से तैयार होती है, वह प्रतिकृति शिव-पार्वती रवन अनुगृह है, मंदसौर से प्राप्त यह प्रतिमा भोपाल राज्य संग्रहालय में देखी जा सकती है। इसके अलावा भी अन्य प्रतिकृतियां भी हैं, जिनकी मांग वर्ष भर बनी रहती है। पिछले 12 सालों में 26 हजार 200 प्रतिकृतियों का निर्माण कराया गया है। साथ ही 21 प्रतिमाओं का मोल्ड तैयार किया गया हैं।

पुरातत्व, अभिलेखागार एवं संग्रहालय में उप संचालक (प्रशासन) स्वाति वशिष्ठ जो इस वक्त मॉडलिंग सेल का कार्य भी देख रही हैं, अपने इस कार्य के बारे में बताती हैं कि कैसे बहुत कठिनाई पूर्वक किसी प्रचीन प्रतिमा का हूबहू आकार प्लास्टर आॅफ पेरिस की सहायता से उकेरा जाता है। पुरातत्वीय धरोहर में जनसामान्य की अभिरुचि तथा विरासत को सहेजने के लिए महत्वपूर्ण प्रतिमाओं का चयन कर उनकी प्रतिकृतियों का निर्माण और नवीन मोल्ड निर्मित किए जाने के लिए अथाह परिश्रम लगता है। वशिष्ठ कहती हैं कि कई दिनों की मेहनत के बाद कोई एक सांचा तैयार होता है, यदि जरा सी भी गलती हो जाए, तो पूरा सांचा खराब होने की संभावना रहती है। उनके अनुसार जब एक बार सांचा बन जाता है, तो उसमें एक्सपर्ट कलाकारों द्वारा किसी मूर्ति की प्रतिकृति तैयार करने का कार्य आरंभ होता है। अभी जो भी प्रतिकृति तैयार होती है, उसका खर्च कुछ कम नहीं आता। कई बार तो वह उसकी रखी गई कीमत से अधिक ही होता है, किंतु हमारा प्रयास है कि अपनी प्राचीनतम धरोहरों के प्रति आम जनता में जाग्रति आए और उसे जानने के प्रति रुचि पैदा हो।

प्रभारी उप संचालक (उत्खनन) एवं मुख्य रसायनज्ञ, पुरातत्व, अभिलेखागार एवं संग्रहालय, एस.सी. चतुर्वेदी ने ‘युगवार्ता’ को बताया कि देखा जाए तो अभी प्रदेश में बहुत काम बाकी है। जब हम देखते हैं कि लोगों को अपनी श्रेष्ठतम प्राचीन महत्व की कलाकृतियों से जुड़ाव नहीं है, तो यह देखकर मन आहत होता है। इसलिए हमारा विभाग अपने स्तर पर बहुत कुछ जन जागरण के प्रयास कर रहा है। एक रसायनज्ञ होने के नाते हम देखते हैं कि कौन सी कलाकृति किस मिट्टी की, किस पत्थर की अथवा किस धातु की बनी हुई है। उसी के अनुरूप हमारा प्रयास होता है कि जब उसकी प्रतिकृति तैयार हो, तो वह लेप उस पर सही ढंग से किया जा सके, जिससे कि जो कोई भी उसे लेकर जाए, वह यही अनुभूत करे कि उसके पास सच में प्राचीन महत्व की कलाकृति मौजूद है।

इन प्रतिरूपों को ले सकते हैं आप

शालभंजिका

विदिशा से 40 किमी दूर ग्यारसपुर से मिली शालभंजिका की मूर्तिकला अब ग्वारी महल संग्रहालय, ग्वालियर में प्रदर्शित की गई है। मूर्ति की प्रतिकृति 24 इंच लंबाई में और 10 किलोग्राम वजन में यहां उपलब्ध है। गीतात्मक अभिव्यक्ति के कारण इसे भारतीय वीनस और ग्यारसपुर महिला के रूप में भी जाना जाता है।

नृत्य करते गणेश

गणेश की मूर्ति, जिसे बाधाओं को हटाने के लिए भी जाना जाता है, नृत्य अवतार में है। मंदसौर से प्राप्त प्रतिहार कला परंपरा में बनाई गई मूर्तिकला 8वीं शताब्दी की है।

गौरी कामदा

लगभग 10वीं शताब्दी की यह मूर्ति देवास से प्राप्त है। वर्तमान में यह राज्य संग्रहालय भोपाल में प्रदर्शित की गई है। परमार आर्ट शैली में बनाई गई इस प्रतिमा में देवी को व्याकुलता की स्थिित में चित्रित किया गया है।

महिला प्रमुख

मालवा क्षेत्र अपनी कला और सुंदरता के लिए जाना जाता है। महिला प्रमुख को हिंगलाजगढ़ से मालवा के एक प्रसिद्ध कला केंद्र से प्राप्त किया गया है। मूर्तिकला की बाल शैली अद्वितीय है।

बुद्ध पद्मासन

पद्मासन में बैठे बुद्ध की मूर्ति 11वीं शताब्दी की है। कांस्य में बुद्ध की मूर्तिकला अब राज्य संग्रहालय भोपाल में संरक्षित है। ज्ञान मुद्रा में उनके हाथ अपने ज्ञान को दर्शाते हैं।

स्त्री सिर (टेराकोट्टा)

पवैया से प्राप्त इस अनूठी टेराकोटा की उत्पत्ति लगभग 5वीं सदी की है जिसके बाल शैली और चेहरे की अभिव्यक्ति अत्यंत सुंदर है।

लकुलिसा

गुप्त काल के लकुलिसा रूप में वर्णित भगवान शिव लगभग 5वीं शताब्दी से संबंधित हैं।

सरस्वती

10वीं सदी के इस मूर्तिकला को राज्य संग्रहालय भोपाल में प्रदर्शित किया गया है। देवी के हाथ में किताब सीखने का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व है और वीणा ज्ञान का विस्तार करने का साधन है।

बुद्ध मस्तक

यह 5वीं शताब्दी के भगवान बुद्ध के सिर की एक प्रतिकृति सारनाथ (वाराणसी) में पाया गया था। मूल टुकड़ा राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली में रखा जाता है। कलाकार ने इस प्रतिकृति में शांत अभिव्यक्ति को बखूबी दर्शाया है।

पार्वती

गुप्तकाल परंपरा में देवी पार्वती की मूर्ति सतना से प्राप्त हुई है।

विष्णु मस्तक

राज्य संग्रहालय, भोपाल में यह संरक्षित है। इसके अलावा भी अनेक प्रतिकृतियों का निर्माण पुरातत्व विभाग द्वारा किया गया है।

साभार https://yugwarta.com/ से

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