Friday, April 19, 2024
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द्रेष्काण की परिभाषा एवं द्रेष्काण कुंडली से फलादेश का महत्व

द्रेष्काण राशि के तीसरे भाग को कहते हैं। राशि का तीसरा भाग 10 अंश का होता है।

एक राशि में तीन द्रेष्काण होते हैं—
प्रथम द्रेष्काण 0 से 10अंश तक होता है इसे ” नारद ” कहते हैं |
दूसरा द्रेष्काण 11 से 20 अंश तक होता है जिसे ” अगस्त्य ” कहते हैं
तीसरा द्रेष्काण 21 से 30 अंश तक होता है जिसे ” दुर्वासा ” कहते हैं।
प्रथम द्रेष्काण उसी राशि का, दूसरा द्रेष्काण उससे पंचम राशि का और तीसरा द्रेष्काण पंचम से पंचम अर्थात्‌ नवम राशि का होता है।

द्रेष्काण कुण्डली से भाई-बहन के सुख का विशेष विचार किया जाता है। द्रेष्काण कुण्डली से फल कथन के अन्य अनमोल सूत्र बताते हैं।

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द्रेष्काण कुंडली देखते समय अधोलिखित सूत्रों का पालन करना चाहिए——

1. सर्वप्रथम तीनों द्रेष्काण का फल बताते हैं जिससे आप अपनी कल्पना में तीनों का चित्र खींच लें। इसी चित्र से आप द्रेष्काण कुंडली का फल कहने में समर्थ हो सकेंगे-

प्रथम द्रेष्काण का फल

प्रत्येक राशि के प्रथम 10अंश तक प्रथम द्रेष्काण होता है। इसके स्वामी नारद मुनि माने गए हैं। प्रथम द्रेष्काण में जन्म लेने वाला जातक प्रभु में निश्चय रखने वाला, भ्रमणशील, प्रत्येक का भला चाहने वाला, अस्थिर एवं चंचल प्रकृति, विनोदी स्वभाव, बुद्धिमान, सम्प्रेषणशील, लोक का हिल करने वाला, किसी तथ्य या समाचार को जन-जन तक पहुंचाने वाला, संवेदनशील, पर्यटन से या भ्रमण से अपना भाग्य बनाने वाला, समाचार पत्र, दूरसंचार, कम्प्यूटर, पर्यटन, प्रकाशन सम्बन्धी कार्यों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ होता है। इस जातक में सेवा, भक्ति, निष्ठा एवं समर्पण की विशेष भावना होती है। कई मायनों में नारद मुनि सदृश होता है।

द्वितीय द्रेष्काण का फल

प्रत्येक राशि के प्रथम 10अंश से अधिक एवं 20अंश तक द्वितीय द्रेष्काण होता है। इसके स्वामी अगस्त्य मुनि माने गए हैं। द्वितीय द्रेष्काण में जन्म लेने वाला जातक दृढ़निश्चयी, श्रेष्ठजनों एवं साधु-सन्तों की सेवा करने वाला, परोपकारी, दृढ़ संकल्प शक्ति से युक्त, अत्यन्त पराक्रमी एवं परिश्रमी होता है। वह नीति के अनुसार आचरण करने वाला एवं समस्त सुख-साधनों से युक्त होता है। इनकी प्रकृति अगस्त्य मुनि सदृश होती है जिन्होंने लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर आसुरी शक्तियों के संहार हेतु सदैव तत्पर रहते थे। इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए और रावण जैसी अत्याचारी राक्षस के विनाश हेतु उन्होंने आदित्य हृदय स्तोत्र की रचना करके श्री रामचन्द्र जी को अमोघ अस्त्र के रूप में प्रदान किया।

तृतीय द्रेष्काण का फल

प्रत्येक राशि के प्रथम 20अंश से अधिक एवं 30अंश तक तृतीय द्रेष्काण होता है। इसके स्वामी दुर्वासा मुनि माने गए हैं। तृतीय द्रेष्काण में जन्म लेने वाला जातक मुंहफट, क्रोधी, अभिमानी तथा उनमें धैर्य की कमी होती है। ऐसे जातक कर्त्तव्यनिष्ठ, नियमों का पालन करने वाले, दूसरों की गलती को जल्दी क्षमा न करने वाले, शीघ्र उत्तेजित हो जाने वाले होते हैं। इनकी प्रकृति दुर्वासा मुनि सदृश होती है।

2. द्रेष्काण लग्न का स्वामी पुरुष ग्रह(सूर्य, गुरु, मंगल ) हो तो जातक को छोटे भाई का सुख होता है और यदि द्रेष्काण लग्न का स्वामी स्त्री ग्रह(चन्द्र, शुक्र)हो तो पहले बहिन होती है।

इस बात की पुष्टि कर लेनी चाहिए कि यदि जन्म लग्नेश पुरुष ग्रह है और मित्र ग्रह से युत है तो जातक भाई का सुख एवं सहयोग पाता है।

यदि जन्म लग्नेश स्त्री ग्रह होकर मित्रक्षेत्री या मित्र ग्रह से युत हो तो जातक अपनी बहिनों से सुख, स्नेह एवं सहयोग प्राप्त करता है।

3. द्रेष्काण लग्न शुभ ग्रहों से युत हो तथा द्रेष्काण लग्न का स्वामी केन्द्र या त्रिकोण में हो ताथा शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो जातक का भाई दीर्घायु, उच्च प्रतिष्ठित एवं सुखी होता है।

4. द्रेष्काण लग्नेश की जन्मकुण्डली के लग्नेश से मित्राता हो तो भाई से अच्छे सम्बन्ध होते हैं, शत्रुता हो तो भाई से कटु सम्बन्ध होते हैं, परस्पर सम सम्बन्ध हों तो भाई-बहिन से सम भाव रहता है।

5. द्रेष्काण लग्न में पापी या शत्रु ग्रह हों एवं द्रेष्काण स्वामी लग्न से त्रिक भाव 6, 8, 12 में स्थित हो एवं पापी ग्रह से युत या दृष्ट हो तो भाई को शारीरिक कष्ट, रोगी, दुःखी एवं अल्पायु होता है।

6. द्रेष्काण लग्न में जितने पुरुष ग्रह हों उतने भाई तथा जितने स्त्री ग्रह हों उतनी बहनें होती हैं अथवा द्रेष्काण लग्नेश जिस राशि क्रमांक में हो उतने भाई-बहिन होते हैं।

7. द्रेष्काण लग्नेश एवं जन्म लग्नेश का परस्पर जैसा सम्बन्ध होता है जातक का वैसा ही सम्बन्ध अपने भाई-बहिनों से होता है।

8. द्रेष्काण लग्नेश शत्रु या नीच राशि में हो तो उस राशि के तुल्य शरीर पर चोट, घाव आदि का चिन्ह होता है।

9. केन्द्र या त्रिकोण में स्थित ग्रह स्वद्रेष्काण में हो तो जातक विद्वान, उच्च शिक्षा प्राप्त, धनी, कलानिपुण एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति होता है।

10. द्रेष्काण स्वामी शुभ ग्रह की राशि में हो या शुभ ग्रह से दृष्ट या युत हो तो जातक निरोगी, उच्च शिक्षा प्राप्त, सम्मानित, प्रतिष्ठित, धनी, सुख-साधनों से युक्त होता है, परन्तु विरोधियों एवं शत्रुओं के कारण व्यथित होता है। उकसा भाग्योदय अपने देश में होता है।

11. द्रेष्काण स्वामी अपनी उच्च राशि में होकर केन्द्र में स्थित हो तो जातक राजा सदृश सुख साधनों से युक्त होता है, स्वराशि का हो तो धनी, मित्र राशि का हो तो निर्वाह योग्य धन लाभ करता हुआ सम्मानित होता है।

12. द्रेष्काण स्वामी पणफर अर्थात्‌ 2, 5, 8, 11वें भाव में स्थित होकर उच्च, स्व या मित्र की राशि का हो तो जातक श्रेष्ठ पद प्राप्त करके राजा सदृश सुख साधनों से सम्पन्न होता है।

13. द्रेष्काण स्वामी आपोक्लिम अर्थात्‌ 3, 6, 9, 12वें भाव में स्थित होकर उच्च, स्व या मित्र की राशि का हो तो जातक भूमि, सन्तान, वाहन आदि सुखों से सम्पन्न, सदाचारी एवं कृषि कार्यों से धनी होता है।

14. द्रेष्काण कुण्डली में चन्द्रमा यदि स्वद्रेष्काण, अथवा सूर्य, मंगल, बुध, गुरु के द्रेष्काण में हो, शुभ या मित्र दे्रष्काण में हो तो जातक आकर्षक व्यक्तित्व, विद्वान, गुणी, धनी, स्त्राी, भूमि एवं वाहनादि सुखों से सम्पन्न होता है। यदि चन्द्रमा शत्रु द्रेष्काण में हो या पाप ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो जातक रोगी, व्यवसाय में असफल, धन सम्पदा एव सुख साधनों से परेशान रहता है। यदि चन्द्र सम द्रेष्काण में हो तो शुभाशुभ दोनों प्रकार के फल मिलते हैं और आर्थिक क्षेत्र में कई उतार-चढ़ाव देखने पड़ते हैं।

उक्त योगों का विचार कर द्रेष्काण कुण्डली देखनी चाहिए।

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