Friday, March 29, 2024
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भारतीय विज्ञान को विश्व पटल पर स्थापित करने वाले डॉ. चन्द्रशेखर वेंकट रमन

हर साल 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाता है। लेकिन आपको पता है इसके पीछे की वजह। यह जानने के लिए आपको 28 फरवरी 1928 में जाना होगा, जब प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी सर सीवी रमन ने प्रकाश के प्रकीर्णन (scattering of light) नाम की उत्कृष्ट वैज्ञानिक खोज की थी। सीवी रामन ने कणों की आणविक और परमाणविक संरचना का पता लगाया था। हालांकि बाद में उनकी इस खोज को उनके ही नाम पर “रमन प्रभाव” कहा गया। सीवी रमन का पूरा नाम चंद्रशेखर वेंकट रमन था, जिन्हें 1930 में अपनी खोज के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह किसी भी भारतीय को मिला और विज्ञान के क्षेत्र में किसी भी एशियाई को मिला पहला नोबल पुरस्कार था। उनके इस योगदान के स्मरण में भारत में हर साल 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस या नेशनल साइंस डे मनाया जाता है। 1917 में सरकारी नौकरी से इस्‍तीफा देने के बाद वह कलकत्‍ता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हो गए. उसी दौरान उन्‍होंने कलकत्‍ता में इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्‍टीवेशन ऑफ साइंस(आईएसीएस) में अपना शोध कार्य निरंतर जारी रखा. यहीं पर 28 फरवरी, 1928 को उन्‍होंने केएस कृष्‍णन समेत अन्‍य वैज्ञानिकों के साथ मिलकर रमन प्रभाव की खोज की.

सीवी रमन मशहूर वैज्ञानिक सुब्रमण्‍यन चंद्रशेखर के चाचा थे. ‘चंद्रशेखर लिमिट’ की खोज के लिए सुब्रमण्‍यन को 1983 में नोबेल पुरस्‍कार दिया गया. सीवी रमन का 82 साल की आयु में 1970 में निधन हो गया.


कौन थे सीवी रमन?

भारत के भौतिक विज्ञानी चंद्रशेखर वेंकट रमन का जन्म 7 नवंबर, 1888 को तत्काल मद्रास प्रांत (वर्तमान में तमिलनाडु) में हुआ था। उन्हें प्रकाश के विवर्तन का पता लगाने के लिए 1930 में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया साथ ही1954 में भारत का सबसे बड़ा सम्मान भारत रत्न दिया गया। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक सरकारी नौकरी से की थी, लेकिन 1971 में सरकारी नौकरी छोड़ कोलकाता यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बन गए। उन्होंने इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्‍टीवेशन ऑफ साइंस में अपना शोध जारी रखा और 28 फरवरी को रमन प्रभाव की खोज कर भौतिक के क्षेत्र में एक नया परिवर्तन किया।

क्या है रमन प्रभाव?

रमन प्रभाव के मुताबिक, जब प्रकाश किसी पारदर्शी मैटेरियल से गुजरता है तो उस दौरान प्रकाश की तरंगदैर्ध्‍य में बदलाव दिखता है। यानी जब प्रकाश की एक तरंग एक द्रव्य से निकलती है तो इस प्रकाश तरंग का कुछ भाग एक ऐसी दिशा में प्रकीर्ण हो जाता है जो कि आने वाली प्रकाश तरंग की दिशा से भिन्न है। इसी को रमन प्रभाव कहा जाता है. इस महत्‍वपूर्ण खोज के लिए 1954 में भारत ने उनको सर्वोच्‍च सम्‍मान भारत रत्‍न से नवाजा था।

तरंग लम्बाइयों का यह परिवर्तन उनकी ऊर्जा में परिवर्तन के कारण होता है। ऊर्जा में बढ़ोतरी हो जाने से तरंग की लंबाई कम हो जाती है और ऊर्जा में कमी आने से तरंग की लम्बाई बढ़ जाती है। जब हम लाल रंग के प्रकाश से बैंगनी की ओर और उससे भी आगे पराबैंगनी की ओर बढ़ते हैं, तो ऊर्जा बढ़ती है और तरंग लम्बाई छोटी होती जाती है। यह ऊर्जा सदैव निश्चित मात्रा में ही घटती-बढ़ती है तथा इसके कारण हुआ तरंग-लम्बाई का परिवर्तन सदैव निश्चित मात्रा में होता है। अत: हम कह सकते हैं कि प्रकाश ऊर्जा-कणिकाओं का बना हुआ है। प्रकाश दो तरह के लक्षण दिखाता है। कुछ लक्षणों से वह तरंगों से बना जान पड़ता है और कुछ से ऊर्जा कणिकाओं से। आपकी खोज `रमण प्रभाव’ ने उसकी ऊर्जा के भीतर परमाणुओं की योजना समझने में भी सहायता की है, जिनमें से एक रंगी प्रकाश को गुज़ार कर रमण स्पेक्ट्रम प्राप्त किया जाता है। हर एक रासायनिक द्रव का रमण स्पेक्ट्रम उसका विशिष्ट होता है। किसी दूसरे पदार्थ का वैसा नहीं होता। हम किसी पदार्थ के रमण स्पेक्ट्रम पदार्थों को देख कर उसे पहचान सकते हैं। इस तरह रमण स्पेक्ट्रम पदार्थों को पहचानने और उनकी अन्तरंग परमाणु योजना का ज्ञान प्राप्त करने का महत्वपूर्ण साधन भी है।

यह एक अद्भुत प्रभाव है, इसकी खोज के एक दशक बाद ही 2000 रासायनिक यौगिकों की आंतरिक संरचना निश्चित की गई थी। इसके पश्चात् ही क्रिस्टल की आंतरिक रचना का भी पता लगाया गया। रमन प्रभाव के अनुसार प्रकाश की प्रकृति और स्वभाव में तब परिवर्तन होता है। जब वह किसी पारदर्शी माध्यम से निकलता है। यह माध्यम ठोस, द्रव और गैसीय, कुछ भी हो सकता है। यह घटना तब घटती है, जब माध्यम के अणु प्रकाश ऊर्जा के कणों को छितरा या फैला देते हैं। यह उसी तरह होता है जैसे कैरम बोर्ड पर स्ट्राइकर गोटियों को छितरा देता है। फोटोन की ऊर्जा या प्रकाश की प्रकृति में होने वाले अतिसूक्ष्म परिवर्तनों से माध्यम की आंतरिक अणु संरचना का पता लगाया जा सकता है। रमन प्रभाव रासायनिक यौगिकों की आंतरिक संरचना समझने के लिए भी महत्वपूर्ण है।

रामन इफेक्ट की लोकप्रियता और उपयोगिता का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि खोज के दस वर्ष के भीतर ही सारे विश्व में इस पर क़रीब 2,000 शोध पेपर प्रकाशित हुए। इसका अधिक उपयोग ठोस, द्रव और गैसों की आंतरिक अणु संरचना का पता लगाने में हुआ। इस समय रामन केवल 42 वर्ष के थे और उन्हें ढ़ेरों सम्मान मिल चुके थे।

रामन को यह पूरा विश्वास था कि उन्हें अपनी खोज के लिए ‘नोबेल पुरस्कार’ मिलेगा। इसलिए पुरस्कारों की घोषणा से छः महीने पहले ही उन्होंने स्टॉकहोम के लिए टिकट का आरक्षण करवा लिया था। नोबेल पुरस्कार जीतने वालों की घोषणा दिसम्बर सन् 1930 में हुई।

रामन पहले एशियाई और अश्वेत थे जिन्होंने विज्ञान में नोबेल पुरस्कार जीता था। यह प्रत्येक भारतीय के लिए गर्व की बात थी। इससे यह स्पष्ट हो गया कि विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय किसी यूरोपियन से कम नहीं हैं। यह वह समय था जब यूरोपियन विज्ञान पर अपना एकाधिकार समझते थे। इससे पहले सन् 1913 में रवीन्द्रनाथ टैगोर साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार पा चुके थे।

नोबेल पुरस्कार के पश्चात रामन को विश्व के अन्य भागों से कई प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हुए। देश में विज्ञान को इससे बहुत ही प्रोत्साहन मिला। यह उपलब्धि वास्तव में एक ऐतिहासिक घटना थी। इससे भारत के स्वतंत्रता पूर्व के दिनों में कई युवक-युवतियों को विज्ञान का विषय लेने की प्रेरणा मिली।

चंद्रशेखर वेंकट रामन के पिता चंद्रशेखर अय्यर एक स्कूल में पढ़ाते थे। वह भौतिकी और गणित के विद्वान और संगीत प्रेमी थे। चंद्रशेखर वेंकट रामन की माँ पार्वती अम्माल थीं। उनके पिता वहाँ कॉलेज में अध्यापन का कार्य करते थे और वेतन था मात्र दस रुपया। उनके पिता को पढ़ने का बहुत शौक़ था। इसलिए उन्होंने अपने घर में ही एक छोटी-सी लाइब्रेरी बना रखा थी। रामन का विज्ञान और अंग्रेज़ी साहित्य की पुस्तकों से परिचय बहुत छोटी उम्र से ही हो गया था। संगीत के प्रति उनका लगाव और प्रेम भी छोटी आयु से आरम्भ हुआ और आगे चलकर उनकी वैज्ञानिक खोजों का विषय बना। वह अपने पिता को घंटों वीणा बजाते हुए देखते रहते थे। जब उनके पिता तिरुचिरापल्ली से विशाखापत्तनम में आकर बस गये तो उनका स्कूल समुद्र के तट पर था। उन्हें अपनी कक्षा की खिड़की से समुद्र की अगाध नीली जलराशि दिखाई देती थी। इस दृश्य ने इस छोटे से लड़के की कल्पना को सम्मोहित कर लिया। बाद में समुद्र का यही नीलापन उनकी वैज्ञानिक खोज का विषय बना।

छोटी-सी आयु से ही वह भौतिक विज्ञान की ओर आकर्षित थे।

एक बार उन्होंने विशेष उपकरणों के बिना ही एक डायनमों बना डाला।

एक बार बीमार होने पर भी वह तब तक नहीं माने थे जब तक कि पिता ने ‘लीडन जार’ के कार्य का प्रदर्शन करके नहीं दिखाया।

रामन अपनी कक्षा के बहुत ही प्रतिभाशाली विद्यार्थी थे।

उन्हें समय-समय पर पुरस्कार और छात्रवृत्तियाँ मिलती रहीं।

अध्यापक बार-बार उनकी अंग्रेज़ी भाषा की समझ, स्वतंत्रप्रियता और दृढ़ चरित्र की प्रशंसा करते थे।

केवल ग्यारह वर्ष की उम्र में वह दसवीं की परीक्षा में प्रथम आये।

मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में पहले दिन की कक्षा में यूरोपियन प्राध्यापक ने नन्हें रामन को देखकर कहा कि वह ग़लती से उनकी कक्षा में आ गये हैं।

संगीत वाद्य यंत्र और अनुसंधान

डॉ.रामन की संगीत में भी गहरी रुचि थी। उन्होंने संगीत का भी गहरा अध्ययन किया था। संगीत वाद्य यंत्रों की ध्वनियों के बारे में डॉ. रामन ने अनुसंधान किया, जिसका एक लेख जर्मनी के एक ‘विश्वकोश’ में भी प्रकाशित हुआ था। वे बहू बाज़ार स्थित प्रयोगशाला में कामचलाऊ उपकरणों का इस्तेमाल करके शोध कार्य करते थे। फिर उन्होंने अनेक वाद्य यंत्रों का अध्ययन किया और वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर पश्चिम देशों की इस भ्रांति को तोड़ने का प्रयास किया कि भारतीय वाद्य यंत्र विदेशी वाद्यों की तुलना में घटिया हैं।

रामन संगीत, संस्कृत और विज्ञान के वातावरण में बड़े हुए। वह हर कक्षा में प्रथम आते थे। रामन ने ‘प्रेसीडेंसी कॉलेज’ में बी. ए. में प्रवेश लिया। 1905 में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वह अकेले छात्र थे और उन्हें उस वर्ष का ‘स्वर्ण पदक’ भी प्राप्त हुआ। उन्होंने ‘प्रेसीडेंसी कॉलेज’ से ही एम. ए. में प्रवेश लिया और मुख्य विषय के रूप में भौतिक शास्त्र को लिया। एम. ए. करते हुए रामन कक्षा में यदा-कदा ही जाते थे। प्रोफ़ेसर आर. एल. जॉन्स जानते थे कि यह लड़का अपनी देखभाल स्वयं कर सकता है। इसलिए वह उसे स्वतंत्रतापूर्वक पढ़ने देते थे। आमतौर पर रामन कॉलेज की प्रयोगशाला में कुछ प्रयोग और खोजें करते रहते। वह प्रोफ़ेसर का ‘फ़ेबरी-पिराट इन्टरफ़ेरोमीटर’ का इस्तेमाल करके प्रकाश की किरणों को नापने का प्रयास करते।

रामन की मन:स्थिति का अनुमान प्रोफ़ेसर जॉन्स भी नहीं समझ पाते थे कि रामन किस चीज़ की खोज में हैं और क्या खोज हुई है। उन्होंने रामन को सलाह दी कि अपने परिणामों को शोध पेपर की शक्ल में लिखकर लन्दन से प्रकाशित होने वाली ‘फ़िलॉसफ़िकल पत्रिका’ को भेज दें। सन् 1906 में पत्रिका के नवम्बर अंक में उनका पेपर प्रकाशित हुआ। विज्ञान को दिया रामन का यह पहला योगदान था। उस समय वह केवल 18 वर्ष के थे।

विज्ञान के प्रति प्रेम, कार्य के प्रति उत्साह और नई चीज़ों को सीखने का उत्साह उनके स्वभाव में था। इनकी प्रतिभा से इनके अध्यापक तक अभिभूत थे। श्री रामन के बड़े भाई ‘भारतीय लेखा सेवा’ (IAAS) में कार्यरत थे। रामन भी इसी विभाग में काम करना चाहते थे इसलिये वे प्रतियोगी परीक्षा में सम्मिलित हुए। इस परीक्षा से एक दिन पहले एम. ए. का परिणाम घोषित हुआ जिसमें उन्होंने ‘मद्रास विश्वविद्यालय’ के इतिहास में सर्वाधिक अंक अर्जित किए और IAAS की परीक्षा में भी प्रथम स्थान प्राप्त किया। 6 मई 1907 को कृष्णस्वामी अय्यर की सुपुत्री ‘त्रिलोकसुंदरी’ से रामन का विवाह हुआ।

श्री वेंकटरामन के विषय में ख़ास बात है कि वे बहुत ही साधारण और सरल तरीक़े से रहते थे। वह प्रकृति प्रेमी भी थे। वे अक्सर अपने घर से ऑफिस साइकिल से आया जाया करते थे। वे दोस्तों के बीच ‘वैंकी’ नाम से प्रसिद्ध थे। उनके माता-पिता दोनों वैज्ञानिक रहे हैं। एक साक्षात्कार में वेंकटरामन के पिता श्री ‘सी. वी. रामकृष्णन’ ने बताया कि ‘नोबेल पुरस्कार समिति’ के सचिव ने लंदन में जब वेंकटरामन को फ़ोन कर नोबेल पुरस्कार देने की बात कही तो पहले तो उन्हें यकीन ही नहीं हुआ। वेंकट ने उनसे कहा कि ‘क्या आप मुझे मूर्ख बना रहे हैं?’ क्योंकि नोबेल पुरस्कार मिलने से पहले अक्सर वेंकटरामन के मित्र फ़ोन कर उन्हें नोबेल मिलने की झूठी ख़बर देकर चिढ़ाया करते थे।’


स्वप्नद्रष्टा रामन

रामन ने कई वर्षों तक एकान्तवास किया। लेकिन वह सदा सक्रिय रहे। उन्हें बच्चों का साथ बहुत भाता था। वह अक्सर अपने इंस्टीट्यूट में स्कूल के बच्चों का आमंत्रित करते और घंटों उन्हें इंस्टीट्यूट और वहाँ की चीज़ें दिखाते रहते। वह बड़ी दिलचस्पी से उन्हें अपने प्रयोग और उपकरणों के बारे में समझाते। वह स्वयं स्कूलों में जाकर विज्ञान पर भाषण देते। वह बच्चों को बताते कि विज्ञान हमारे चारों ओर है और हमें उसका पता लगाना है। विज्ञान केवल प्रयोगशाला तक सीमित नहीं है। वह बच्चों को कहते थे कि तारों, फूलों और आसपास घटती घटनाओं को देखों और उनके बारे में सवाल पूछो। अपनी बुद्धि और विज्ञान की सहायता से उत्तरों की खोज करो।

आज के कई ख्याति प्राप्त वैज्ञानिकों ने रामन की बातें और भाषण सुनकर ही विज्ञान को अपना विषय चुना था। वह आनेवाली नई सुबह के अग्रदूत थे। चंद्रशेखर वेंकट रामन ने अपने जीवन काल में ही रामन इफेक्ट के लिए फिर से आधुनिक प्रयोगशालाओं में रुचि उत्पन्न होती देखी। इसका श्रेय सन् 1960 में लेजर की खोज को जाता है—एक संसक्त और शक्तिशाली प्रकाश। पहले रामन इफेक्ट की स्पष्ट तसवीर के लिए कई दिन लग जाते थे। लेजर से वही परिणाम कुछ ही देर में मिल जाता है। अब ज़्यादा से ज़्यादा क्षेत्रों में जैसे रसायन उद्योग, प्रदूषण की समस्या, दवाई उद्योग, प्राणी शास्त्र के अध्ययन में छोटी मात्रा में पाये जाने वाले रसायनों का पता लगाने के लिए रामन इफेक्ट इस्तेमाल हो रहा है। रामन इफेक्ट आज उन चीज़ों के बारे में सूचना दे रहा है जिसके बारे में रामन ने इसकी खोज के समय कभी सोचा भी नहीं था।


स्वतंत्र संस्थान की स्थापना

सन 1933 में डॉ. रामन को बंगलुरु में स्थापित ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज़’ के संचालन का भार सौंपा गया। वहाँ उन्होंने 1948 तक कार्य किया। बाद में डॉ.रामन ने बेंगलूर में अपने लिए एक स्वतंत्र संस्थान की स्थापना की। इसके लिए उन्होंने कोई भी सरकारी सहायता नहीं ली। उन्होंने बैंगलोर में एक अत्यंत उन्नत प्रयोगशाला और शोध-संस्थान ‘रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। रामन वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की साक्षात प्रतिमूर्त्ति थे। उन्होंने हमेशा प्राकृतिक घटनाओं की छानबीन वैज्ञानिक दृष्टि से करने का संदेश दिया। डॉ.रामन अपने संस्थान में जीवन के अंतिम दिनों तक शोधकार्य करते रहे।

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