Saturday, April 20, 2024
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हाड़ोती पुरातत्व दर्शन: गागरोन दुर्ग, झालावाड़

( इस दुर्ग का भव्य इतिहास और कई कहानियां हैं सब को संक्षिप्त में समाहित करना संभव नहीं था। कोई बहुत महत्वपूर्ण जानकारी आपके पास हो तो साझा कर समर्थ बनाए।)
काली सिंध एवं आड नदियों के संगम पर स्थित गागरोन का यह दुर्ग भारत में जल दुर्ग का बेहतरीन उदाहरण है। यह दुर्ग झालावाड से मात्र तीन किलोमीटर दूरी पर स्थित है। सड़क मार्ग से जाने पर यह दूरी 14 किलोमीटर है।

इसका निर्माण समय-समय पर 8वीं से 18वीं शताब्दी के मध्य किया गया। इस दुग को इसके महत्व के कारण इसे यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया है। ** दुर्ग के चारों तरफ विशाल खाई, नदियां एवं सुदृढ़ प्राचीर इसे सुरक्षा प्रदान करते हैं। दुर्ग तक पहुँचने के लिए नदी में एक पुल बनाया गया है। इस दुर्ग पर शुंग, मालवों, गुप्तों, राष्ट्रकूटों, खींचियों का शासन रहा। अल्लाउद्दीन खिलजी इसे कई वर्षो तक घेरे रखने के बाद भी जीत नहीं सका। अकबर ने यह दुर्ग बीकानरे के पृथ्वीराज राठौड़ को दे दिया।

भक्त शिरोमणी रामानंद के शिष्य संत पीपा भी इस दुर्ग के शासक रहे, जिन्होंने अपना राजपाठ त्याग कर दुर्ग अपने भाई अचलदास खींची को सौप दिया। वर्ष 1436 ई. में राजा की रानी उमादेवी की सुंदरता के कारण उसे पाने के लिए सुल्तान महमूद खिलजी (मालवा) ने काफी समय दुर्ग को घेरे रखा। शत्रु को हराने का उपाय न सूझा तो उमादेवी ने स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया एवं पुरूष रण में मारे गये। अचलदास खिचीं की वचनिका नामक काव्य रचना से पता चलता है कि उमा रानी ने चालीस हजार महिलाओं के साथ जौहर किया। अगले वर्ष अचलदास के पुत्र पाल्हणसी ने अपने मामा कुंभा की सहायता से दुर्ग पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। राठौड़ों के पतन के बाद दुर्ग बूंदी के शासकों हाड़ाओं के अधीन आ गया एवं यहीं से कोटा रियासत के अधीन हो गया।

दुर्ग में सूरजपोल, भैरवपोल एवं गणेशपोल के साथ दुर्ग की सुदृढ़ बुर्जों में राम बुर्जों एवं ध्वज बुर्जों बने हैं। किले में विशाल जौहर कुंड, राजा अचलदास एवं रानियों के महल, बारूदघर, शीतलामाता एवं मधुसूदन के मंदिर हैं।

यहाँ कोटा राज्य के सिक्के ढालने की टकसाल भी थी। वर्ष 1838 ई. में झालावाड़ राज्य की स्थापना के बाद से यह दुर्ग स्वतंत्रता प्राप्ति तक झाला शासकों के अधीन रहा। गागरोन दुर्ग के समीप संत पीपा की समाधी बनी है। संत पीपा संत कबीर, रैदास के समकालीन थे। पीपा जी तपस्या करते हुए वहीं समाधिस्ठ हो गये थे। उनकी समाधि पर जयंती पर प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल दशमी को पांच दिवसीय महोत्सव धूम-धाम से मनाया जाता है। आज समाधि पर मंदिर बनवा दिया गया है। समय – समय पर दुर्ग में मरम्मत कार्य भी करवाए गए हैं। यह दुर्ग पुरातत्व महत्व का होने के साथ जेड साथ पर्यटकों के आकर्षण का भी केंद्र है।

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