Wednesday, September 18, 2024
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विदेशों में हिन्दी कैसे बढ़े : अमरीकी शहरों में किए जा रहे प्रयास

हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय भाषा बनाने के नाम पर देश के बाहर विश्व हिन्दी सम्मेलन लंबे समय से आयोजित किए जा रहे हैं , इनमें लंबे लंबे शोध पत्र पढ़े जाते हैं जिनको सुन कर लगता है बस हिन्दी अंतरराष्ट्रीय पटल पर छाने ही वाली है . अगले साल शोध पत्र पढ़े जाते हैं उनमें फिर से वही सरोकार और चिंताएँ होती हैं .यानि, बेताल फिर से जा कर वृक्ष पर बैठ जाता है . सच तो यह है कि ये सम्मेलन नेटवर्किंग और सैर-सपाटे का माध्यम बन चुके हैं.

भारत से बाहर डेढ़ करोड़ से भी अधिक भारतीय मूल के लोग रहते हैं जिनमें से मोटे अनुमान के अनुसार आधे से भी अधिक लोग हिन्दी समझ और बोल सकते हैं . यह संख्या छोटी मोटी नहीं है , यह किसी भी माध्यम आकार के देश की जनसंख्या से कहीं अधिक है . तो अगर हिन्दी को एक ताकतवर भाषा के रूप में स्थापित करना है तो उसके लिए भारतवंशी लोगों को प्रेरित करना होगा क्योंकि ये सभी लोग हिन्दी भाषा को बोलने , लिखने और पढ़ने लगें तो चमत्कार हो सकता है . मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि अब अमेरिका के बड़े शहरों में ही नहीं छोटे शहरों में भी ग़ज़ल – गीत के कार्यक्रम , हिन्दी नाटक बैले मंचित होने लगे हैं जिन्हें भारतीय मूल के शौक़ीन उत्साहपूर्वक देखते और सराहते हैं .

ऐसा ही एक चमत्कार मुझे कल अमेरिका के सम्मामिश कौंसिल की लाइब्रेरी में देखने को मिला. यहाँ अंग्रेज़ी, चाइनीज़ , जापानी, कोरियन, स्पेनिश पत्रिकाओं की भीड़ में हिन्दी की तीन पत्रिकाएँ दिखीं , सरिता, गृहशोभा तो थी हीं साथ ही वनिता भी रखी हुई थीं जिसकी संपादिका लंबे अरसे तक मेरी मित्र जयंती रंगनाथन रह चुकी हैं. मेरी पीढ़ी सरिता , मुक्ता, कारवां पत्रिकाएँ पढ़ते हुए युवा हुई है , मैंने अपनी किशोरावस्था से ही इन पत्रिकाओं में जम कर लिखा भी , गृहशोभा जब प्रारंभ हुई तभी से उसमें लिखना शुरू किया , उसमें मेरा कालम “संगीत शोभा” संभवत: इसमें किसी एक स्तंभकार का सबसे लंबे समय तक चलने वाला कालम रहा .

लेकिन ये पत्रिकाएँ अपने आप वहाँ नहीं रखी गई हैं . निश्चय ही इसके पीछे वहाँ बसे हिन्दी भाषियों का अथक प्रयास शामिल है, ये सार्वजनिक पुस्तकालय सदस्यों की रुचि के अनुसार पुस्तकें और पत्र पत्रिकाएँ मंगाते ज़रूर हैं लेकिन किसी ना किसी को लगातार तिकतिकाना पड़ता है. एक बार अगर ये पत्र पत्रिकाएँ शेल्फ में लगी दिखती हैं तो फिर अन्य हिन्दी भाषी लोग सच में उठा कर ज़रूर पढ़ते हैं.

एक और घटना साझा करना चाहता हूँ . अब से दस वर्ष पूर्व इसाकुआ लाइब्रेरी में रोज़ नेट से टाइम्स ऑफ़ इंडिया डाउनलोड करके शेल्फ में रखा जाता था जो न्यूयार्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट वाली क़तार में रहता था , भारतीय मूल के लोगों में उसे पढ़ने की एक तरह से क़तार रहती थी . मैंने लाइब्रेरियन को अनुरोध किया कि क्या वे नव- भारत टाइम्स भी उपलब्ध करा सकते हैं , उन्होंने दो दिन का समय माँगा . जब मैं वहाँ दो दिन बाद गया तो देखा शेल्फ में नव भारत टाइम्स नहीं था , मैंने लाइब्रेरियन ने शिकायत की तो उसने मुस्कुरा कर सामने टेबल की ओर इशारा किया जहां एक मध्य-वय की महिला तन्मयता से नव भारत टाइम्स पढ़ रही थीं .

यह उदाहरण देने के पीछे यही दृष्टि है कि अगर हिन्दी भाषी अगर चाहें तो दुनिया के किसी भी कोने में उन्हें उनकी पसंदीदा पत्रिकाएँ मिल सकती हैं.

(लेखक स्टेट बैंक के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं और इन दिनों अमरीका यात्रा पर हैं)

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