Tuesday, October 15, 2024
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हिंदी के विश्वदूत : डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय

डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय और उनकी जर्मन पत्नी हाइडी से मेरी पहली मुलाकात सितंबर 2012 में जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ्रीका में विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान हुई । एक आकर्षक व गरिमामय व्यक्तित्व के धनी वयोवृद्ध किन्तु सक्रिय डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय और पूर्णत: भारतीयता के रंग में रंगी सहधर्मिणी उनकी जर्मन पत्नी हाइडी से हुई परिचयात्मक सी मुलाकात ने उनके बारे में मन को जिज्ञासा से भर दिया था । भारत लौटने पर वरिष्ठ साहित्यकार गुरुवर डॉ. सुधाकर मिश्र, जो मुंबई के ऐल्फिंस्टन कॉलेज में हिंदी के विभागाध्यक्ष पद से काफी पहले सेवा निवृत हुए थे, जब मैंने उनसे डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय जिक्र किया तो उन्होंने बताया कि वे उनके कॉलेज में उनके वरिष्ठ थे। वे जब वे कॉलेज में लेक्चरर लगे तब वे वहाँ विभागाध्यक्ष थे। डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय और उनकी पत्नी से मेरी दूसरी मुलाकात पिछने साल नवंबर या दिसंबर में हिंदुस्तानी प्रचार सभा में हुई और कई मुद्दों पर चर्चा हुई । उनकी विद्वता व सहजता ने मुझे पुन: प्रभावित किया। नब्बे वर्ष की आयु में भी डॉ. पाण्‍डेय की सक्रियता में कोई कमी नहीं है। वर्तमान में वे ‘ नागरी प्रचारिणी सभा’ तथा ‘भारतीय पी.ई.एन.’ के स्‍थाई सदस्‍य हैं।

एक छोटे से गाँव से निकलकर जिस प्रकार डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय ने देश में हिंदी भाषा व साहित्य की सेवा की और फिर हिंदी का विश्वदूत बनकर विदेशों में हिंदी भाषा व साहित्य को उंचाइय़ाँ प्रदान की ऐसा बिरला ही लोग कर पाते हैं। इन्दु प्रकाश पाण्डेय का जन्म 4 अगस्त 1924 को गंगा तट पर बसे गाँव शिवपुरी, जिला राय बरेली, उत्तर प्रदेश में हुआ। डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय बचपन से ही पहले परिवार के साथ और फिर शिक्षा पाने के लिए और शिक्षा प्रदान करने और हिंदी की सेवा के लिए जीवन पर्यंत यहाँ से वहाँ घुमते रहे और फिर जब जर्मनी में जाकर बसे तो भी भारत से नाता निरन्तर बना रहा और अब भी लगभग हर साल भारत में आते हैं।

डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय ने इण्‍टरमीडिएट की शिक्षा कानपुर से 1945 में प्राप्त की फिर बी.ए. व एम.ए. की पढ़ाई इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय से की। स्‍वतंत्रता संग्राम के दैरान वे महात्मा गांधी से प्रभावित हुए और 1946-47 में गाँधी आश्रम सेवापुरी वाराणसी में रहे जहाँ उन्होंने ‘गाँधियन अर्थशास्‍त्र और गाँधियन राजनीति दर्शन का अध्ययन किया। इसी दौरान वे आचार्य कृपलानी, धीरेन्‍द्र भाई मजूमदार और प्रो. आसरानी आदि के सम्‍पर्क में आए और इलाहाबाद लौटकर ‘रचनात्‍मक परिषद ’ की स्‍थापना की और गाँधीवादी रीति से जीवनयापन को लक्ष्‍य बनाया। उन्‍हीं दिनों उन्होंने प्रौढ़ शिक्षा का प्रशिक्षण लिया और अनेक गाँवों में प्रौढ़ शिक्षा की कक्षाएँ भी चलाईं। उन्होंने गाँधी जी के अनुयायी के रूप में भारत की आज़ादी की लडा़ई में भाग लिया और 1942 के “भारत छोडो़“ आन्दोलन में गिरफ्तार हुए और राय बरेली के सैन्ट्रल जेल में रहे।

डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय

डॉ. पाण्डेय ने 1955 में पुणे के दक्षिण कॉलेज द्वारा आयोजित ‘समर और ऑटम स्‍कूल ऑफ़ लिंग्विस्टिक्‍स’ में भाग लेकर भाषाशास्‍त्र की अनेक नवीन विधाओं का अध्‍ययन किया। 1974 में उन्‍हें हॉलैण्‍ड के उटरैष्‍ट विश्‍वविद्यालय से उनकी पुस्‍तक ‘रीजनलिज़्म इन हिन्‍दी नॉवल्‍स’ पर डी. लिट्. की उपाधि प्राप्‍त हुई। उन्होंने अपनी मातृभाषा अवधी के अतिरिक्‍त हिन्‍दी, ब्रजभाषा और भोजपुरी, का ज्ञान भी प्राप्‍त किया। साथ ही उर्दू, गुजराती और मराठी भाषाएँ भी सीखीं, इन भाषाओं की पुस्‍तकों का अध्‍ययन किया और अनेक पुस्‍तकों की समीक्षाएँ भी लिखीं। विदेशी भाषाओं में वे अंग्रेज़ी और जर्मन अच्‍छी तरह जानते हैं और प्रयोग भी करते हैं। रूमैनियन भाषा समझने में भी उहें कोई कठिनाई अनुभव नहीं होती।

हिन्दी भाषा और साहित्य में उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से 1949 में एम.ए. किया और यूटरैष्ट विश्वविद्यालय, हौलैँड से उन्हें “Regionalism in Hindi Novels” विषय पर D.Litt. की उपाधि मिली। 1949 से बम्बई विश्वविद्यालय के एलफिऩ्स्टन कौलेज में हिन्दी भाषा एवं साहित्य का 1963 तक अध्यापन किया तथा विभागाध्यक्ष रहे। 1950 से 1961 तक के काल में वे सैंट्रल बोर्ड औफ़ फ़िल्म सैंसर के सदस्य और राष्ट्रपति के पुरस्कार के लिए चयन समिति तथा आकाशवाणी के फिल्मी गीतों की चयन समिति के सदस्य रहे।

डॉ. इन्‍दु प्रकाश पाण्‍डेय ने सैंकड़ों लेखों, पचासों कविताओं, कहानियों, व्‍यक्तिचित्रों आदि के माध्‍यम से अपनी राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी के भण्‍डार में अपना योगदान दिया है। उनका साहित्‍य अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहा है। उनकी प्रमुख पुस्तकें – ‘अवधी लोकगीत और परम्‍परा’, ‘हिन्‍दी रचनाबोध’‘शान्ति के नूतन क्षितिज’, ‘अवध की लोक कथाएँ’, ‘ख़ून का व्‍यापारी’ (कहानी संग्रह), ‘साहित्‍य समिधा’ (निबन्‍ध संग्रह), ‘मँझधार की बाँहें’ (कविता संग्रह), अवधी व्रत कथाएँ’, कुर्स दे लिम्‍बा हिन्‍दी’, ‘रीज़नलिज़्म इन हिन्‍दी नॉवेल’ (अंग्रेज़ी में), ‘हिन्‍दी लिटरेचर : ट्रैण्‍ड्स् एण्‍ड ट्रेट्स्’ (अंग्रेज़ी में), ‘हिन्‍दी लिटरेचर : ट्रैण्‍ड्स् एण्‍ड ट्रेट्स्’ (अंग्रेज़ी में), ‘हिन्‍दी के आँचलिक उपन्‍यासों में जीवन सत्‍य’, ‘रोमैण्टिक फ़ेमिनिज़्म इन हिन्‍दी नॉवल्‍स रिटेन बाई वीमैन ’ ‘उपन्‍यास : विधा और विधान हैं। इसके अतिरिक्त जर्मन भाषा में हिन्‍दी के तीन उपन्यासों,मृदुला ग्रर्ग के ‘चित्‍तकोबरा’, मंजुल भगत के ‘अनारो’ तथा कृष्णा सोबती के ‘मित्रो मरजानी’ का अनुवाद भी डॉ. पाण्‍डेय ने अपनी सहधर्मिणी हाइडी के साथ मिलकर किया है। इन अनुवादों की जर्मनी के साहित्यिक क्षेत्र में बहुत प्रशंसा हुई है। नागार्जुन के 3 उपन्‍यासों पर डॉ. पाण्‍डे की एक आलोचनात्‍मक पुस्‍तक प्रकाशाधीन है।

हिंदी के विश्वदूत के रूप में डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय ने विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण कार्य किया। इन्दु प्रकाश पाण्डेय जर्मनी के फ्रैंकफुर्त नगर में स्थित जॉन वौल्‍फ़गॉग गोएटे विश्‍वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग से 1989 में अवकाश प्राप्‍त प्राध्‍यापक हैं। उन्होंने दक्षिण एशिया संस्थान, हाइडेलबर्ग, जर्मनी (1963-64), कैलीफो़र्निया विश्वविद्यालय बर्कले में (1964-65), रोमानिया के बुखारेष्ट विश्वविद्यालय में (1965-67) और तदुपरान्त जर्मनी के गोएटे विश्वविद्यालय, फ्रांकफुर्ट में 1967 से 1989 तक हिन्दी भाषा और साहित्य एवं भारतीय संस्कृति का अध्यापन किया। पाण्डेयजी ने 1987 में काशी विद्यापीठ में और 1991 में चीन के बेजिंग विश्वविद्यलय में अतिथि प्रौफ़ेसर के रूप में धर्म, लोक-साहित्य एवं हिन्दी साहित्य पर व्याख्यान प्रस्तुत किये।

विदेश में सक्रिय रहते हुए भी डॉ. इन्दू पांडेय भारत में हिंदी की स्थिति के प्रति सजगता बनाए रहे हैं । पिछले दिनों जब अंग्रेजी लेखक चेतन भगत ने हिंदी को देवनागरी में लिखने की वकालत की तो उन्होंने तल्ख टिप्पणी की –‘अज्ञान प्रदर्शन भी स्वतंत्रता का दूसरा पक्ष है. कौन किस का मुँह बंद कर सकता है. वैज्ञानिक युग में ऐसी अवौज्ञानिक बात किसी भारतीय को ही शोभा दे सकती है।’ इसी प्रकार डॉ, विजय कुमार मल्होत्रा को भेजे एक मेल में उन्होंने लिखा- ‘यह कैसी विडम्बना है कि हमें आज भी, वह भी, अपने देश में हिन्दी प्रचार की आवश्यकता है. इन सभी बातों के बारे में बहुत-कुछ लिखा गया है लेकिन हम कितने बेशर्म हैं कि आज़ादी के 67 सालों के बाद भी अपनी अंग्रेज़ी की ग़ुलामी से छुटकारा नहीं पा रहे। स्वस्थ हूँ फिर भी दुखी मन से यह लिखना पड़ रहा है।’ एक अन्य प्रसंग में नेवे लिखते हैं- ‘प्रिय विजय, उस समय की याद दिला दी तुम ने जिस समय हम उन के दो डगों के मग पर चल उठे थे और जेल के जंजाल मे डाल दिये गये थे. आज न तो वे डग हैं और न मग. जंजाल बढ़ा हुआ है. खुश रहो अहले वतन…..इन्दु पाण्डेय’

1985 में डॉ. इन्दु प्रकाश पाण्डेय ने सपत्निक फ्रैंकफुर्ट में ‘भारतीय संस्‍कृति संस्‍थान’ नाम से एक ऐसी संस्‍था की स्‍थापना की जो भारत व भारतीय संस्‍कृति में रुचि रखने वालों को भारतीय भाषाओं तथा भारतीय संगीत एवं नृत्‍यकला का प्रशिक्षण दे रही है। इसका उद्घाटन वरिष्‍ठ साहित्‍यकार सच्‍च‍िदानन्‍द हीरानन्‍द वात्‍स्‍यायन 'अज्ञेय' ने किया था जो आज भी सक्रिय है। 1967 से पाण्डेयजी ने जर्मनी के श्वालबाख़ नगर में स्थायी आवास बना लिया है. 1993 से हरिद्वार में भी गंगा तट पर एक छोटा-सा घर बना लिया है, जहां हर साल तीन-चार महीने बिताते हैं।

हिंदी व हिन्दुस्तानियत के दायित्व को लिए ‘हिंदी के विश्वदूत’ के रूप में हिंदी की सतत् सेवा कर रहे वयोवृद्ध हिंदी सेवी का ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ की ओर से सादर अभिनन्दन। संपर्क – pandey <[email protected]>,

डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई

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