Friday, April 19, 2024
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कल्पना के सनातन शिल्प में

इंदिरा दांगी, हिंदी की कोई नई कल्पिका नहीं हैं I वे लगभग एक दशक से सक्रिय हैं I पुरस्कृत-सम्मानित भी हैं I गद्य के तीनों कल्पनाप्रधान रूपों- उपन्यास, कहानी और नाटक- पर उनकी लेखनी चली है I महत्त्वपूर्ण आलोचकों ने भी सामायिक कथा लेखन में उनका प्रमुखता से उल्लेख किया है I

विपश्यना उनका नवीनतम उपन्यास है I इसे पढने के बाद हिंदी की कथात्मक कल्पना और उसके शिल्प की ओर अनायास ध्यान गया I यह उपन्यास स्थूलतः प्रचलित सा ही लगता है पर अंतरतम में उतरने पर आलोचना की चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है I यह नॉवेल के प्रचलित पश्चिमी फॉर्म और शिल्प को तोड़ता है तथा कल्पना के सनातन शिल्प से जुड़ने की कोशिश करता है I प्रस्तुत समीक्षा इस उपन्यास के कतिपय विशिष्ट प्रभावों को विश्लेषित करने की एक विनम्र कोशिश है I

(1)

इंदिरा दांगी के उपन्यास ‘विपश्यना’ का समर्पण अप्रत्याशित है-

‘’ कहाँ हो माँ ?”

अप्रत्याशित, हालाँकि, उसके कई वाक्य विन्यास भी हैं-

‘दान भी अगर नाम से दिया तो वह दान न हुआ, प्रचार हुआ ’,

‘अम्मा, अब आप यहाँ मौजूद हैं, तो फिर घर में शराब कैसे रह सकती है ? अब या तो आपको हटाना होगा या शराब को ’,

‘कौन से सवाल ? क्या तलाश रही हूँ मैं? …अपने आप को I’

समर्पण सहित यह विन्यास-क्रमिकता चौंकाने वाली है- शब्द-क्रम भी, अर्थ-क्रम भी, और अनुभव-क्रम भी I इसे जरा इस समय के, और पहले के भी, अन्य कथाकारों से मिलाकर पढ़ें तो अंतर साफ़ होगा I

यह दरअसल अनुभव विस्तार और समावेशन है I उपन्यास को कथा के भारतीय मनोजगत से जोड़ने की ललक है I केवल भौतिक नहीं अपितु आध्यात्मिक अनुभव को भी समेट लेने वाली कला है I हिंदी कथा संसार में संभवतः इसी अनुभव विन्यास की आवश्यकता कभी निर्मल वर्मा ने महसूस की थी-

“कला का धर्म समस्त प्रभावों को लेते हुए भी उनका अतिक्रमण करना है, तभी वह पूर्ण रूप से अपना ‘आत्म-सत्य’ प्राप्त करती है I उससे साक्षात् करते हुए जो अनुभव होता है, किसी बेहतर शब्द के अभाव में मैं उसे सिर्फ ‘आध्यात्मिक अनुभव’ कह सकता हूँ; क्योंकि वहां मुझे बाटने वाली समस्त विभाजन रेखाएं एक उन्मत्त लहर में डुबो जाती हैं और खुद भी उसमें डूब जाती हैं I” (निर्मल वर्मा: साहित्त्य का आत्म-सत्य)

इंदिरा दांगी दरअसल, कथा का एक चतुर्दिक,चतुर्भुज रचती है I एक संगमरमरी भाषा, लसलसी तरलता लिए I सैद्धांतिक अभिकथन इंदिरा की भाषा में नहीं हैं I भाषा और अनुभव का संवेदनशील-विन्यास साझा जरूर है पर अभिव्यक्ति में नवीनता सहज दर्शनीय है I जाहिर है की इंदिरा की कथा का सम्मोहन बहुत गहरा है I

उपन्यास की विकास यात्रा में, यह एक युगांतकारी रचनात्मक विचलन है I इस सदी में कथा में हुमककर आई और अभी तक अस्तित्त्वमान नयी पीढ़ी में कथा का ऐसा अर्थ-गुरुत्त्व, संयम, और परिपक्वता, अभी तक मेरी नजर में देखने में नहीं आए I

इसीलिए, यह उपन्यास पढ़कर मेरे जेहन में सवाल उठता है कि क्या 21 वीं सदी के इस समय में, नयी कहानी, और उसके बाद फैशनेबुल कथा आंदोलनों के शीर्षकों में गढ़ी गयीं कथाओं की धाराएँ,अन्तर्धाराएँ सूख चुकी हैं ? क्या अब हम हिंदी कथा, उपन्यास की एक बिलकुल नयी और उर्वर धरती पर खड़े हैं ? क्या यह नावेल से भारतीय कथा लेखन की अपनी पद्धति में या फिर कहें कि ‘उपन्यास’ में ही विचलन है ? अथवा यह कल्पना के सनातन शिल्प का पुनर्जागरण है ?

इन सवालों को अभी विलंबित ही छोड़ें I मेंरे मन पर इस उपन्यास के प्रभाव कुछ और भी हैं I ये प्रभाव भी चमत्कृत कर देने वाले हैं I अब जैसे की यह कि विचारधाराओं, हासिए के विमर्शों, के इस फैशनेबुल और आयातित समय में यह कथा स्त्री विमर्श के साथ खड़ी तो है पर कितनी निर्वैयक्तिक होकर ! उनकी लघुता, बड़बोलेपन, को निर्निमेष देखती I महावृत्तान्तों के आंतरिक खोखलेपन से भय खाती, लगभग निस्संग I अपनी अभिव्यक्ति की गरिमा को बचाए रखते हुए I उपन्यास की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखते हुए I

जाहिर है कि इस समय की एक स्त्री कथाकार की यह एकान्तिक पर अद्वितीय और आत्मविश्वासपूर्ण पोजिसनिंग कईयों को हैरान करने वाली लगेगी I पर यह कथा की अस्मिता के अनुरूप ही है I दरअसल, विचारधारा और विमर्श कथा के खाद-पानी हो सकते हैं, पर इसके लिए वह उनकी चेरी नहीं बन सकती I वे उसकी प्राणवायु नहीं हैं I अलंकरण वे उसके भले ही हो सकते हों I इंदिरा कथा के इस मान को समझती हैं, इसीलिए खाली टोटके के लिए, किसी पर्देदारी के लिए, स्मार्टनेस के लिए, उनके पास नहीं जातीं I इसके आखिर क्या मानी हैं ?

(2)

उपन्यास के मूल्यांकन की यह बड़ी ही तनावपूर्ण जमीन है इसलिए इसे समझने के लिए जरा गहराई में उतरना पड़ेगा I कथा, विचारधारा और यथार्थ के आपसी संबंधों को सुलझा कर यह बात आसानी से समझी और समझाई जा सकती है I इस तरह के उपन्यासों के मर्म को समझने के लिए आज यह उपक्रम बहुत जरूरी भी है, क्योंकि नॉवेल को यहाँ आप उपन्यास में बदलता हुआ देख सकते हैं I

वस्तुतः, यथार्थ की एक स्तरीयता बनाम बहुस्तरीयता; विचारधारा,विमर्श और दृष्टिकोण बनाम यथार्थ- आदि प्रश्न साहित्त्य में हमेशा से रहे हैं I लेकिन एक बात पर आम स्वीकृति है कि साहित्य और उसकी विधाओं का एक बुनियादी कर्म यथार्थ की प्रस्तुति करना है कि वह यथार्थ का जानने और उसे सम्प्रेषित करने का माध्यम है। किन्तु आलोचना का एक धड़ा ऐसा भी है जो मानता है कि यथार्थ की स्थिति साहित्य से बाहर कहीं हैं और साहित्य का काम उसे जस का तस प्रस्तुत कर देने की कोशिश करना है, यही उसका संवेदनात्मक स्तर पर संप्रेषण है । दूसरे शब्दों में, साहित्य की सत्ता, उसका औचित्य और प्रासंगिकता एक ऐसे यथार्थ से जुड़े होने में है जिसका अस्तित्व उसके बाहर है, साहित्यकार अनिवार्यतः उसी से बद्ध है, उसकी सर्जनात्मकता उसी से नियमित है। निःसंदेह यह दृष्टिकोण न केवल साहित्य के स्वायत्त अस्तित्व का पूरी तरह अतिक्रमण करता है बल्कि मानवीय सर्जनात्मकता को भी केवल यथार्थ के संप्रेषण के लिए उपयुक्त युक्तियों की तलाश तक सीमित कर देता है। यदि यह मान लिया जाय कि साहित्य का प्रयोजन अपने से बाहर स्थित यथार्थ का संप्रेषण है तो फिर कोई तर्क नहीं बचता कि यथार्थ की पहचान की कसौटी भी तब साहित्य के बाहर ही क्यों न हो ? और साहित्य यदि माध्यम ही है तो उसका उपयोग साहित्येत्तर उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्यों न किया जाय ? आगे, तब इस उपयोगिता के आधार पर ही उसकी उत्कृष्टता का मूल्यांकन स्वाभाविक होगा। कलात्मक या साहित्यिक श्रेष्ठता का मापदंड तब ऐसी रचना भर कर देना रह जाएगा जो इन साहित्येत्तर उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो सके। जाहिर है ऐसी स्थिति हमें स्वीकार्य नहीं हो सकती, क्योंकि यह सत्य नहीं है और इससे कलाकार की स्वतंत्रता एवं उसकी सर्जनात्मकता बाधित होती है। संशय नहीं, ऐसी धारणा स्वीकार कर लेने पर साहित्य को हम नाजीवादी, फासीवादी खतरों तक ले जाएंगे। संभवतः इसीलिए हमारी चिन्तन परंपरा में साहित्य को विकल्प कहा गया है। प्राचीन भारतीय साहित्य सिद्धांत में साहित्यिक पाठ में समांतर विश्व की द्वितीयक रचना के अस्तित्व पर कभी कोई संदेह नहीं रहा और सदा ही यह कहा गया कि विश्व के ज्ञान के लिए आप शास्त्र की ओर उन्मुख होI संशय नहीं कि इस समांतर विश्व की द्वितीयक रचना के जगत का प्रजापति स्वयं कवि (साहित्यकार) को माना गया।

सच कहें तो यथार्थ बहुस्तरीय, बहुरूप होता है। अज्ञेय लिखते हैं –

”लेकिन यथार्थ एक साधारण दृश्य स्तर पर होता है और एक दूसरे स्तर पर भी घटित होता है…कि घटना जो सिर्फ बाहर दिखती है उतनी नहीं होती, बहुत सी घटना भीतर घटती है।“

इसलिए यथार्थ की पहचान की विभिन्न प्रणलियों को उसकी ऐन्द्रिक और भाषिक पहचानों को एक ही वर्ग में नहीं रखा जा सकता। यदि माध्यम यथार्थ की नयी रचना करता है तो मानना होगा कि यथार्थ के उतने ही प्रकार संभव हैं, जितने प्रकार के माध्यमों से हम उसे पहचानने का उपक्रम करते हैं। इसलिए विभिन्न प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों की तरह साहित्य के विविध रूप भी यथार्थ की पहचान और पहचान की इस प्रक्रिया में उसकी रचना के विविध स्वायत्त माध्यम है। स्वायत्त इसलिए कि यथार्थ की जो रचना वे करते हैं, वह अन्य माध्यमों के अनुशासन से नियंत्रित नहीं है। उसकी सर्जनात्मकता उनके माध्यम की अपनी प्रकृति में ही अन्तर्मुक्त है। साहित्य के प्रत्येक रूप की इसलिए प्रत्येक कथा रूप का औचित्य इस बोध में निहित है कि वह यथार्थ की ऐसी रचना करता है और पहचान भी करवाता है, जो अन्य किसी भी प्रकार से संभव नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता तो साहित्य, प्राकृतिक या सामाजिक विज्ञान एक रूप होते।

अतः संशय नहीं कि जो माध्यम हम अपनाते हैं, यथार्थ की हमारी पहचान उसी से अनिवार्यतः प्रभावित होती है। यदि इस तर्क को हम स्वीकार करें तो मानना पड़ेगा कि भाषा, जो केवल अभिधात्मक या सूचनात्मक नहीं, जिसके अनेक रूप और बोलियाँ हैं, जो जानकारी का ही नहीं विचार अनुभव और चेतना के विकास का भी माध्यम हो सकती है, जिसकी सर्जनात्मक संभावनाएँ असीम है तो अनिवार्यतः हमें यह मानना होगा कि साहित्य के विविध रूप भाषा की बहुआयामी अर्थ रूपगर्भिता के आधार पर विकसित होते हैं और इन विधाओं का हर नया रूप यथार्थ की नयी रचना करता है।

कथा, भाषा का ही एक विशिष्ट रूपाकार है ओर इसलिए यथार्थ की रचना और उसकी पहचान का एक विशिष्ट माध्यम भी जिसका पहला एवं अन्तिम आधार भाषा का स्वभाव है। कथाकार किसी पूर्व निर्धारित अर्थ को भाषा नहीं देता बल्कि भाषा के जरिए भाषा की अपनी प्रकृति के निर्देशानुसार उसी में अर्थ की तलाश करता है। इसलिए उपन्यास भी यथार्थ तक पहुँचने की एक विशिष्ट प्रणाली है जो अपने तरीके से यथार्थ की अलग रचना करता है – इस विशिष्ट प्रणाली का अनुभव या बोध पाठक तक संप्रेषित करना ही कथाकार के लिए अपेक्षित है क्योंकि उसके और पाठक के लिए वह प्रणाली ही अधिक महत्वपूर्ण है, वही यथार्थ का स्वरूप निर्धारित करती है। इसलिए कथा में स्थूल घटनाओं या ब्यौरों की विश्वसनीयता साहित्यगत यथार्थ की विश्वसनीयता की कसौटी नहीं है क्योंकि कथा साहित्येत्तर घटनाओं का बोध नहीं बल्कि भाषा के एक विशिष्ट सर्जनात्मक प्रकार के माध्यम से कथात्मक यथार्थ का बोध है। अतः बाह्य यथार्थ की तब तक कथा में कोई जगह नहीं है जब तक वह उसके किसी आन्तरिक प्रयोजन को पूरा नहीं करता है। फैंटेसी जैसी विधियाँ इस बात का प्रमाण हैं, जिसमें स्थूल घटनाओं की विश्वसनीयता का तो अतिक्रमण किया जा सकता है पर भाषिक विश्वसनीयता का नहीं। पश्चिमी उपन्यास चिन्तक डेविड लाज ने साहित्त्य की समस्याओं पर विचार करते हुए यही निष्कर्ष निकाला कि-

” केन्द्रीय समस्या यह है कि कोई भी यथार्थ अब इकहरा नहीं है।“

यथार्थ के इस रूप को ही अज्ञेय ने ‘क्रमहीन सहवर्तिता’ कहा है।

आज भूमंडलीकरण के युग में यथार्थ और भी गहराया हैI विचारधाराओं और विमर्शों की सीमितता इसने और भी सिद्ध कर दी हैI शायद इसीलिए अपनी पुस्तक ‘साहित्त्य का आत्म सत्य’ में निर्मल वर्मा ने साहित्त्य के सम्भावित सुन्दर भविष्य हेतु लिखा कि साहित्त्य जितना अधिक तथाकथित ‘फैसनेबुल और विचारधारात्मक’ प्रयोजनों से रिक्त होता जायेगा उतना ही मनुष्य को अपने अर्थों से संपन्न और समृद्ध करता चलेगा I प्रयोजन-मुक्त कविताओं में ही अर्थ-युक्त मनुष्य की छवि देखी जा सकेगी I

इंदिरा दांगी का यह उपन्यास यथार्थ की इसी वृहत्तर समझ में/से अपना आकार लेता हैं I इसीलिए स्त्री उनके यहाँ विचारधाराओं और विमर्शों की काली कमली ओढ़कर नहीं आती, बल्कि जीवन और प्रकृति के विविध वर्णी भेष-भूषा में मौजूद हैI

इस सर्जनात्मक नवता का ही प्रमाण विपश्यना की नायिका रिया है, जो वाक्य-विन्यासों में निम्नवत है-

‘लेकिन अपनी ही कस्तूरी की तलाश में भटकते हिरन की तरह I जो भटक रहा है उसे अंत में पहुंचना अपने आप तक ही है I’

‘दोनों को देखो I आखिर में एक पर नजर जमेगी I’

‘कार्य परिश्रम से ही पूर्ण होते हैं, मन में सोचने से नहीं I जैसे सोते हुए सिंह के मुख में हिरण नहीं आते हैं I’

विराटता, एकांगी होने से बचाती है तो विनम्रता अहंकार से I मैं पूछता हूँ कि आखिर किसी भी विमर्श के घोड़े पर बैठ, इससे बेहतर स्त्री-केन्द्रित वाक्य, हमारे समय की हिंदी में कैसे लिखे जा सकेगें जैसा इंदिरा ने विपश्यना में लिख दिया है I जाहिर है, उपन्यास में रिया एक मिथकीय चरित्र में बदल जाती है जो एक कथाकार की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण है I कभी निर्मल वर्मा ने ही कहा था-

“यह कहना गलत न होगा कि आधुनिक उपन्यासों में जो लेखक अपनी कलात्मक उपलब्धियों के लिए याद किये जाते हैं वे ठीक वही हैं जिन्होंने मनुष्य के भीतर अन्तर्निहित मिथकीय क्षमताओं को सबसे अधिक गहराई और सूक्ष्मता से आत्मसात किया है I”

और अंततः, उपन्यास, उसके चरित्र, प्रार्थना एवं अंतर्दृष्टि बन जाय- इससे बड़ी कोई सफलता और सार्थकता, कथाकार और उपन्यास दोनों के लिए, भला और क्या होगी ! जाहिर है, रिया की चारित्रिक मिथकियता पर हिंदी आलोचना में एक बहस चलनी चाहिए |

विपश्यना जीवन को उसकी मूल लय में उकेरता है लेकिन उसका मतलब यह नहीं है कि यह सपाट ढंग से समग्र हो उठता हैI विचारधाराओं,विमर्शों से परहेज इसे जरूर है, कारण, राजनीति बन चुके शब्दों से खेलना इंदिरा को नहीं आता अथवा वे खेलना ही नहीं चाहतींI इसके विपरीत वे, जीवन के विचार बन रहे शब्दों की वह जगह जा कर खुद तलाशना चाहती हैं जहाँ लोकतंत्र बोल रहा होI कस्बों, शहरों में इंदिरा ऐसी ही जगहें खोजती हैं I भोपाल भरपूर है विपश्यना में-

“अब तो शायद मैं भी भोपाल वाली ही हूँ” I

भोपाल इस उपन्यास में विमर्शों,विचारधाराओं,प्रतिक्रियाओं का एक जीवंत और प्रामाणिक रूपक है I यह कहीं प्रतिपक्ष है तो कहीं तटस्थ I ध्यान इस पर भी दें की उपन्यास में यह अज्ञेय जैसी निर्वैयक्तिकता भी नहीं है I यह रोला बार्थ का ‘एन्ड आफ़ राइटर’ जैसा मामला भी नहीं है I यह कथाकार का समाज हो जाना है, लोक हो जाना है, अपने अस्तित्त्व में लीन नहीं बल्कि सामूहिक चेतना में लय हो जाना है I कथाकार मरता नहीं बल्कि सब में थोड़ा-थोड़ा जी लेता है I कभी तुलसी ने ऐसा ही कर रामकथा कहने की कोशिश की I यह कथा की भाषा और शिल्प में आया सच्चा लोकतंत्र हैI

कहना न होगा की इस उपन्यास को पढ़कर, इस समय की कथा के मिज़ाज और विकास को पुनः समझने और परिवर्तनों को रेखांकित करने की जरूरत मह्शूश होती है I बीती सदी के आखिरी दशक में, आर्थिक उदारीकरण,भूमंडलीकरण के आने के बाद जीवन,जगत वैसा ही नहीं रह गया जैसा की पहले से चलता चला आया था I नए कथाकार बीत चुके थे और आने वाले पुरानों को ही दुहरा रहे थे I उधर, इस नए समय के दबाव में एक पूरी युवा पीढ़ी उठ खड़ी हुई I कथा की भाषा उसने पूर्वजों से ही उठाई पर अनुभव उसके नए और चंचल थे I यह एक छटपटाती पीढ़ी थी जो अपने समय को पहचानना और रचना चाहती थी I यही समय नए, चमचमाते विमर्शों के भी एकाएक उठ खड़े होने का था I हासिये का विमर्श, दलित विमर्श,स्त्री विमर्श,आदिवासी विमर्श, समलैंगिक विमर्श,उत्तर-आधुनिक विमर्श आदि-इत्यादि इस दौर में बेहद प्रभावकारी रहे I इनका दबाव कथा में आने वाली इस नयी पीढ़ी पर था I पर अधिकांश लोग इस बाहरी दबाव को सह नहीं पाए I गद्य तो खूब रचा गया पर कथा नहीं बन पाई I कथाकार लोग घुटने भर पानी में ही बह गए I पहले से बहते आ रहे स्वच्छ जल को भी गंदला, धुंधला करते गए I इस या उस विमर्श की खेमेबाजी में लोग फंस कर रह गए I लगभग एक दशक का यह पूरा दौर दरअसल हिंदी कथा के महासंक्रांति-काल के रूप में कहा जाना चाहिए I जिसमें विनोद कुमार शुक्ल जैसे एकाध अपवाद जरूर हैं |

किन्तु जैसे कि राजनीति संयमित एवं सनातनी हुई है वैसे ही साहित्य भी होता गया है | इसी पृष्ठभूमि में, इंदिरा का लेखन सबसे अधिक उम्मीद जगाता है I इंदिरा में दरअसल कथा की सनातनी कल्पना का विवेक है | अपने फॉर्म को पाने की जिद है | कभी निर्मल वर्मा ने ही संशयग्रस्त यह वाक्य लिखा था-

“ उपन्यास की अर्थवत्ता यथार्थ में नहीं, उसे समेटने की प्रक्रिया, उसके संघटन की अंदरूनी चालक शक्ति में निहित है I तभी किसी विधा के भीतर एक विशिष्ट फार्म का आविर्भाव होता है, जो समेटने की हर लय,स्तर और स्पंदन को अनुशासित करती है;ऐसे स्पेस का उद्घाटन करती है जहाँ अनुभव का औपन्यासिक जीवन शुरु।


प्रो. सर्वेश सिंह
डीन, भाषा एवं साहित्य विद्यापीठ
अध्यक्ष- हिंदी विभाग
उप-निदेशक, RCA
बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय
(केंद्रीय विश्वविद्यालय)
विद्या विहार,रायबरेली रोड,लखनऊ-226025
Mob-9415435154

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