Friday, March 29, 2024
spot_img
Homeभारत गौरवराष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस का सराहनीय निर्णय

राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस का सराहनीय निर्णय

हमें स्वाधीनता जरूर 15 अगस्त, 1947 को मिल गई थी, लेकिन हम औपनिवेशिक गुलामी की बेडिय़ाँ नहीं तोड़ पाए थे। अब तक हमें औपनिवेशिकता जकड़े हुए थी। पहली बार हम औपनिवेशिकता से मुक्ति की ओर बढ़ते दिखाई दे रहे हैं। हम कह सकते हैं कि भारत नये सिरे से अपनी ‘डेस्टिनी’ (नियति) लिख रहा है। यह बात ब्रिटेन के ही सबसे प्रभावशाली समाचार पत्र ‘द गार्जियन’ ने 18 मई, 2014 को अपनी संपादकीय में तब लिखा था, जब राष्ट्रीय विचार को भारत की जनता ने प्रचंड बहुमत के साथ विजयश्री सौंपी थी। गार्जियन ने लिखा था कि अब सही मायने में अंग्रेजों ने भारत छोड़ा है (ब्रिटेन फाइनली लेफ्ट इंडिया)। आम चुनाव के नतीजे आने से पूर्व नरेन्द्र मोदी का विरोध करने वाला ब्रिटिश समाचार पत्र चुनाव परिणाम के बाद लिखता है कि भारत अंग्रेजियत से मुक्त हो गया है। अर्थात् एक युग के बाद भारत में सुराज आया है। भारत अब भारतीय विचार से शासित होगा।

गार्जियन का यह आकलन सच साबित हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ढाई साल के कार्यकाल में हम देखते हैं कि भारतीय ज्ञान परंपरा को स्थापित किया जा रहा है। जिस ज्ञान के बल पर कभी भारत का डंका दुनिया में बजता था, उस ज्ञान को फिर से दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करने की तैयारी हो रही है। जबकि भारतीय ज्ञान-विज्ञान परंपरा को स्थापित करने के प्रयास स्वाधीनता मिलने के साथ ही किये जाने चाहिए थे, लेकिन औपनिवेशक मानसिकता के कारण हमने अपने गौरवशाली इतिहास के पन्ने कभी पलटकर देखने की कोशिश ही नहीं की। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि किसी सुनियोजित षड्यंत्र के तहत भारत के प्राचीन विज्ञान को नजरअंदाज किया गया, उसे इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दफन करने का प्रयास किया गया। बहरहाल, आजादी के 68 साल बाद आई राष्ट्रीय विचार की सरकार ने एक बार पुन: भारतीय ज्ञान के प्रति दुनिया में आकर्षण पैदा कर दिया है। केन्द्र सरकार ने सबसे पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग की उपयोगिता को स्थापित किया। यह सिद्ध किया कि योग दुनिया के लिए भारत का उपहार है। इसी क्रम में केन्द्र सरकार भारत की चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद को स्थापित करने का प्रयास कर रही है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के बाद मोदी सरकार ने राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस मनाने का निर्णय लिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार के इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए।

देश में पहली बार धनतेरस के दिन वास्तविक धन (भारत की समृद्ध ज्ञान परंपरा) की स्तुति की जाएगी। भगवान धन्वन्तरि चिकित्सा विज्ञान के अधिष्ठा हैं। इसलिए सरकार ने भगवान धन्वन्तरि के जयंती प्रसंग पर राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस मनाने की घोषणा की है। चिकित्सा क्षेत्र खासकर आयुर्वेद से जुड़े विद्वानों ने सरकार के इस निर्णय को आयुर्वेद विज्ञान के हित में माना है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आयुर्वेद विज्ञान के महत्त्व को समझते हैं। इसी वर्ष फरवरी में केरल के कोझिकोड में आयोजित वैश्विक आयुर्वेद सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि आयुर्वेद की संभावनाओं का पूरा उपयोग अब तक नहीं हो सका है। जबकि इस भारतीय चिकित्सा पद्धति में अनेक स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान की क्षमता है। उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार आयुर्वेद जैसी पारंपरिक चिकित्सा पद्धति को प्रोत्साहित करने के लिए प्रतिबद्ध है। राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस मनाने की घोषणा करके आयुर्वेद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को मोदी निभा रहे हैं। हमें यह नहीं समझना चाहिए कि राष्ट्रीय दिवस घोषित कर, उसे जोर-शोर से आयोजित कर, नरेन्द्र मोदी आयुर्वेद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से इतिश्री कर लेंगे। निश्चित ही उनके नेतृत्व में केंद्र सरकार आयुर्वेद को विश्व में भारतीय चिकित्सा पद्धति के रूप में स्थापित करने के प्रयास करेगी। आयुर्वेद के विकास और विस्तार के लिए केंद्र सरकार की सजगता इस बात से भी जाहिर होती है कि आयुष मंत्रालय को स्वास्थ्य मंत्रालय से स्वतंत्र कर दिया गया है, ताकि आयुर्वेद सहित भारतीय चिकित्सा पद्धतियों को पाश्चात्य चिकित्सा पद्धतियों के मुकाबले दमदारी से खड़ा किया जा सके। हम उम्मीद करते हैं कि सरकार के प्रयास रंग लाएंगे।

unnamed

भोपाल में 12, 13 और 14 नवंबर को ‘लोकमंथन’ का आयोजन हो रहा है। लोकमंथन-2016 में भी ‘औपनिवेशिकता’ पर गंभीरता से विमर्श किया जाना है। ‘औपनिवेशिकता से भारतीय मानस की मुक्ति’ इस अनूठे आयोजन का एक प्रमुख विषय है, जिसके तहत विभिन्न प्रकार की औपनिवेशिकता पर न केवल चर्चा होगी, बल्कि उनसे मुक्ति पाने के रास्ते भी तलाश किए जाएंगे। मानसिक गुलामी नहीं छोड़ पाने के कारण सब क्षेत्रों में उसका प्रभाव दिखाई देता है। हम अपने प्राचीन ज्ञान-परंपरा से न केवल अनजान हैं, बल्कि उसे हीन भी समझते हैं। समाज में एक लोकोक्ति प्रचलित है – ‘अपनी माँ को कोई भट्टी नहीं कहता।’ लेकिन, हम इतनी नाकारा संतान हैं कि अपनी माँ (भारतीय ज्ञान परंपरा) को हेय और संदेह की दृष्टि से देखते हैं। भारतीय ज्ञान-विज्ञान को गल्प मानकर उस पर बात ही नहीं करना चाहते। दरअसल, औपनिवेशिक मानसिकता ने हमें एक भ्रम में बाँधकर रखा है कि भारत सपेरों और गड़रियों का देश है, जबकि ज्ञान-विज्ञान का प्रकाश पश्चिम से दुनिया में फैला है। यह औपनिवेशिक मानसिकता विषबेल की तरह हमारे साहित्य, शिक्षा, राजनैतिक विमर्श, समाज जीवन, कला और संस्कृति में पसर गई है, जिसने किसी भी क्षेत्र में भारतीय ज्ञान परंपरा को आगे नहीं आने दिया। इन सब क्षेत्रों से औपनिवेशिक मानसिकता को खुरचकर निकाल फेंकने का अभ्यास लोकमंथन है। खैर, आज देश में जिस प्रकार का सकारात्मक वातावरण बना है, उसका सदुपयोग होना ही चाहिए। यकीनन अब समय आ गया है कि हम औपनिवेशक गुलामी की जंजीरें तोड़कर फेंक दें।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)
भवदीय
लोकेन्द्र सिंह
Contact :
Makhanlal Chaturvedi National University Of
Journalism And Communication
B-38, Press Complex, Zone-1, M.P. Nagar,
Bhopal-462011 (M.P.)
Mobile : 09893072930
www.apnapanchoo.blogspot.in

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार