Friday, March 29, 2024
spot_img
Homeआपकी बाततालिबान के साथ मॉस्को वार्ता में भागीदारी उचित

तालिबान के साथ मॉस्को वार्ता में भागीदारी उचित

रुस की राजधानी मास्को में आतंकवादी संगठन तालिबान के साथ बातचीत में शामिल होने की खबर ने देश में हलचल पैदा कर दिया। भारत का आतंकवादी संगठनों से किसी तरह की बातचीत में भागीदारी न करने का रुख रहा है। अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान के तालिबानों के साथ कतर की राजधानी दोहा में वार्ता की कोशिशों का भारत ने कभी खुलकर विरोध नहीं किया लेकिन प्रधनमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कई अवसरों पर साफ बोला है कि अच्छे और बुरे आतंकवादी नहीं होते, आतंकवादी आतंकवादी होते हैं। इसमें अचानक भारत के शामिल होने से कुछ प्रश्न पैदा होगे। इस खबर के आते ही जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने कह दिया कि जब तालिबान के साथ भारत बातचीत कर सकता है तो यहां के संगठनों के साथ क्यों नहीं करता? इस पर देश में विवाद चल रहा है और आगे भी चलेगा। यह भारत है जहां राजनीतिक दलों के नेताओं का विचार देशहित की सोच से नहीं, वोट की चिंता से निर्धारित होते हैं। दुर्भाग्य यह है कि विरोधी दल सरकार को दुश्मन मानकर स्टैंड तैयार करते और बयान देते हैं। मास्को वार्ता सम्मेलन के साथ भी यही हुआ है। कोई यह समझने के लिए तैयार नही है कि आखिर भारत का भाग लेना विदेश नीति की दृष्टि से लाभकारी है या नहीं? इसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा? सबसे बढ़कर अगर भारत उसमें शामिल नहीं होता तो क्या होता?

मास्को ढांचा बातचीत पहले भी हुई है और भारत की ओर से संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी शामिल हुए थे लेकिन उसमें तालिबान नहीं था। पहली बार दोहा स्थित तालिबान के राजनीतिक दफ्तर से एक दल भाग ले रहा है। भारत की ओर से मंत्री नहीं सेवानिवृत्त्त राजनयिक टीसीए राघवन और अमर सिन्हा भाग ले रहे हैं। अमर सिन्हा अफगानिस्तान में भारत के राजदूत और राघवन पाकिस्तान में उच्चायुक्त रहे हैं। विवाद बढ़ने पर विदेश मंत्रालय की ओर से प्रवक्ता रवीश कुमार सामने आए। उन्होंने कहा कि मॉस्को बैठक में भारत ने गैर-अधिकारिक स्तर पर भाग लेने का फैसला किया। रवीश कुमार ने दोहराया कि भारत ऐसे सभी प्रयासों का समर्थन करता है जिससे अफगानिस्तान में शांति और सुलह के साथ एकता, विविधता, सुरक्षा, स्थायित्व और खुशहाली आए। भारत की नीति रही है कि इस तरह के प्रयास अफगान-नेतृत्व, अफगान-मालिकाना हक और अफगान-नियंत्रित होनी चाहिए और इसमें अफगानिस्तान सरकार की भागीदारी होनी चाहिए। इसके बाद कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। भारत वहां तालिबान से बातचीत नहीं कर रहा है। अफगान सरकार भी इसमें सीधे तौर पर भाग नहीं ले रही है। उसके यहां से हाई पीस काउंसिल इसमें भाग ले रहा है। इसी तरह भारत की हिसेदारी गैर-अधिकारी स्तर पर होगी।

सच यह है कि भारत ने रुस के निमंत्रण को स्वीकार करने के पहले काफी विचार-विमर्श किया। अफगानिस्तान से भी बातचीत की गई। अफगानिस्तान की चाहत है कि शांति एवं पुनर्निर्माण के जो भी प्रयास हों उसमें भारत की भागीदारी रहे। वह हम पर ज्यादा भरोसा करता है। अफगानिस्तान में हमारी सक्रियता पाकिस्तान और चीन को संतुलित करता है जो हमारे राष्ट्रीय हित में है। हम वहां पुनर्निर्माण के काम में व्यापक स्तर पर लगे हैं। क्या स्थिति होती यदि अफगानिस्तान के चाहने के बावजूद भारत उससे अपने को अलग रखता? यह मूर्खता होती जिसका खामियाजा न जाने कितने वर्षों तक भारत को भुगतना पड़ता। पाकिस्तान और चीन दोनों की चाहत थी कि भारत इसमें शामिल नहीं हो। रूस ने मॉस्को ढांचा बातचीत में अफगानिस्तान, भारत, ईरान, कजाखस्तान, किर्गिस्तान, चीन, पाकिस्तान, तजाकिस्तान, तुर्कस्मेनस्तान, उज्बेकिस्तान, अमेरिका और अफगान तालिबान को न्योता दिया था। इसमें अमेरिका को छोड़कर सभी भाग ले रहे हैं। ऐसी किसी प्रक्रिया से प्रत्यक्ष तौर पर बाहर रहकर भारत क्या पा लेता?

हा, रुस के इरादे को लेकर संदेह हैं। ऐसा नहीं है कि भारत को इसका पता नहीं है या इस पर विचार विमर्श नहीं किया गया। राष्ट्रपति पुतिन के नेतृत्व में रुस अमेरिका के समानांतर महाशक्ति के रुप में स्वयं को खड़ा करने की रणनीति पर काम कर रहा है। अफगानिस्तान में उसे लेकर आशंकायें हैं और अच्छे संबंध नहीं है। सम्मेलन द्वारा रुस उस देश में अपनी प्रभावी उपस्थिति चाहता है। ध्यान रखिए जब अफगानिस्तान में मजहबी लड़ाकुओं ने संघर्ष आरंभ किया उस समय यह सोवियत संघ के समूह के कम्युनिस्ट शासन के अंतर्गत था एवं नजीबुल्ला उसके द्वारा बिठाए गए अंतिम राष्ट्रपति थे। सोवियत संघ की सेनाएं वहां से वापस गई और चरमपंथियों ने नजीबुल्ला की हत्या कर दिया। संभव है पुतिन के अंदर अपने इस पूर्व प्रभाव वाले देश में सक्रिया भूमिका निभाने की भावना प्रबल हुई हो। रूस यह भी नहीं चाहता कि अफ़ग़ानिस्तान में केवल अमेरिका की मौजूदगी रहे। कुछ लोग इसे शांति वार्ता की जगह अमेरिका के सामनांतर स्वयं को खड़ा कने का सम्मेलन भा कह रहे हैं। रुस पर तालिबानों की मदद करने का आरोप भी लगता है। ऐसा माना जाता है कि रुस अमेरिका से कुछ बातें वहां मनवाना चाहता है। रूस ने इससे इनकार किया है। लेकिन तालिबान के ठिकानों से मिले रूसी हथियार इसकी पुष्टि करते हैं। रुस की नीति यह थी कि आईएसआईएस से लड़ने के लिए तालिबानों की मदद की जाए। यह खतरनाक नीति थी पर थी। माना जाता है कि इस समय अफ़ग़ानिस्तान में दो लाख या इससे अधिक तालिबानी लड़ाके हैं। इनमें से ज़्यादातर पाकिस्तान के शरणार्थी शिविरों से आए हुए लोग हैं। इन लड़ाकों को नियमित रूप से वेतन और अन्य खर्च देना होता है। तो कहां से आता है इसके लिए धन? पाकिस्तान की इसमें भूमिका है, पर उसकी हैसियत सारा खर्च उठाने की न थी, न है। इसलिए तालिबान ने नए मददगार तलाशे। ईरान ने भी तालिबान को लंबे समय तक हर स्तर की मदद की थी। हां, आज की स्थिति में ईरान तालिबान की वित्तीय सहायता नहीं करता। साफ है कि तालिबान को कई देशों से हथियार और धन मिल रहे हैं। इसमें रुस का नाम पाकिस्तान के साथ आ रहा है। तालिबान फिर अपने-आप ताकतवार तो हुआ नहीं है।

31 जनवरी 2018 को जारी हुए बीबीसी के एक अध्ययन के अनुसार तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के 70 प्रतिशत हिस्से में खुलकर गतिविधियांे को अंजाम दे रहे हैं जिसमें से छह प्रतिशत पर उसका पूरा नियंत्रण है। अफ़ग़ान सरकार ने इस रिपोर्ट को गलत बताया। 70 प्रतिशत से कम भी हो लेकिन उनका प्रभाव क्षेत्र काफी विस्तृत है इस भयावह सच को नकारा नहीं जा सकता। अगर इसके पीछे रुस की भूमिका है तो फिर अफगानिस्तान ने इसमें अपने यहां से प्रतिनिधि भेजना क्यों स्वीकार किया? रुस लंबे समय से अफगानिस्तान सरकार को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि उसकी रुचि वहां शांति स्थापित करने तथा विकास प्रक्रिया में भागीदारी की है। शायद परिस्थितियां देखकर अफगानिस्तान सरकार ने स्वयं शामिल होने की बजाय गैर आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल भेजा। भारत की नीति स्पष्ट है, जहां अफगानिस्तान वहां भारत। यही श्रेष्ठ नीति है। वैसे भी रुस और चीन की कोशिश तालिबान को भी हर प्रक्रिया में एक कोण बना देने की लग रही है। तालिबान को मान्यता देने का भागीदार भारत नहीं बन सकता लेकिन उसकी अनुपस्थिति का लाभ लेकर ये देश ऐसा कर लें यह भी हमारे हित में नहीं है। वहां हमारे गैर आधिकारिक प्रतिनिधि इसके विरुद्ध तर्क दे सकते हैं। इस तरह मास्को वार्ता में भागीदारी हर दृष्टि से भारत के दूरगामी हित में है।

हालांकि मॉस्को सम्मेलन से अफगानिस्तान में शांति स्थापना की दिशा में कोई ठोस परिणाम निकलने की अभी संभावना नहीं है। तालिबान ने बयान जारी किया कि हमारा प्रतिनिधमंडल अमरीका की घुसपैठ पर चर्चा केंद्रित रखेगा। शांति वार्ता के पहली शर्त होती है, हिंसा का रुकना। तालिबान ने आतंकवादी हमले बंद नहीं किए हैं। अमेरिका के बिना अफगानिस्तान के लिए किसी शांति प्रयास का कोई अर्थ नहीं है। अमेरिका तालिबान से क़तर में बातचीत कर रहा है। जुलाई और अक्तूबर में दो दौर की बातचीत संपन्न हो चुकी है। तालिबान की मुख्य मांग विदेशीे सेनाओं की वापसी की है तथा वह कहता रहा है कि अमेरिका के अलावा किसी से बातचीत व्यर्थ है। तालिबान अफ़ग़ान सरकार को कठपुतली का प्रशासन कहता है और हिंसा रोकने को तैयार नहीं। ऐसी मानसिकता में शांति संभव ही नहीं है। बावजूद इसके अगर रुस वार्ता आयोजित किया है, अफगानिस्तान सहित 10 देशों तथा तालिबान को भाग लेने के लिए तैयार किया तो हमें उससे कतई दूर नहीं रखना चाहिए था। अफगानिस्तान संबंधी प्रयासों में पाकिस्तान और चीन रहे तथा हम न रहें यह तो पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान होगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार