Thursday, April 18, 2024
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प्रधानमंत्री बोलेंगे हिंदी में, पत्र लिखेंगे अंग्रेजी में

हिंदी से जुड़े कई मंचों पर एक चर्चा हो रही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महेंद्र सिंह धोनी को जो पत्र लिखा है वह अंग्रेजी में क्यों लिखा गया है, हिंदी में क्यों नही? यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि प्रधानमंत्री सामान्य वार्तालाप हिंदी में करते हैं, उनकी हिंदी भी अच्छी है, जबकि उनकी अंग्रेजी सामान्य है । सबसे बड़ी बात यह है कि धोनी हिंदी भाषी हैं,अच्छी हिंदी बोल और समझ लेते हैं ,तो पत्र अंग्रेजी में क्यों? जो पत्र सामाजिक माध्यमों में घूम रहा है वह अंग्रेजी में है और प्रथमदृष्टया यह किसी भी लिहाज़ से प्रधानमंत्री जी की वाक शैली जैसा नहीं है बल्कि किसी अधिकारी द्वारा तैयार किया हुआ है।

उधर कन्नीमोई ने हंगामा किया हुआ है कि अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी थोपी जा रही है और हमेशा की तरह पी चिदंबरम और शशि थरूर भी इस भभक में अपने हाथ सेंक रहे हैं।हालांकि मसला इतना बड़ा नहीं था पर उनके द्वारा सी.आई.एस.एफ. के बाद आयुष मंत्रालय को भी चपेट में ले लिया गया है।

राजनैतिक विवशताएं क्या क्या नहीं करवाती। प्रधानमंत्री और उनके सलाहकार जानते हैं कि धोनी एक अंतर्राष्ट्रीय हस्ती हैं और विशेषकर चेन्नई सुपरकिंग्स के कप्तान भी। अपने पत्र का प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए उन्होंने अंग्रेजी चुनी। कुछ लोगों का मानना है कि चूंकि तमिलनाडु में 2021 में विधानसभा चुनाव हैं और धोनी वहां की क्रिकेट टीम के कप्तान, अतः तमिलनाडु चुनावों को ध्यान में रखकर हिंदी में पत्र लिखकर वे वहां दूर से भी कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते थे। जो भी हो, दुर्भाग्यवश उनके हिंदी प्रशंसकों को इससे निराशा ही मिली।

वही हाल कन्नीमोई, चिदंबरम और शशि थरूर का है। 2021 के चुनाव के मद्देनजर वहां ” तमिल विरुद्ध हिंदी भाषा ” को एक महत्त्वपूर्ण चुनावी मुद्दा बनाकर, भाजपा और उनके सहयोगी दल ए,आई,डी,एम,के. को जनता की नज़रों में स्थानीय लोगों का दुश्मन बताया जा सकता है।जनता के हितों से किसी का कोई लेना देना नहीं है।मैं कई तमिल मित्रों को जानता हूं, जो कहते हैं कि तमिलनाडु में हिंदी के पक्ष में अनेक लोग और संस्थायें हैं ,लेकिन राजनेताओं ने भाषा के प्रश्न को स्थानीय लोगों की अस्मिता से जोड़कर, ऐसे लोगों की आवाज़ को दबाया हुआ है।

हिंदी के पक्षधर राजनेता पूर्णतः सापेक्षता में विश्वास रखते हैं। यदि हिंदीभाषियों से समर्थन चाहिए तो वे हिंदी के कसीदे पढ़ने लगते हैं। जब दूसरे भाषा भाषियों से समर्थन चाहिए, उनका हिंदी के प्रति समर्पण न जाने कहां गायब हो जाता है। वहीं दूसरी ओर हिंदी विरोधी राजनीति का दायरा जिन क्षेत्रों में है, वहां स्थानीय दलों ने जनता को भरमाया हुआ है। चूंकि उनके सरोकारों को हिंदी बहुल क्षेत्रों के समर्थन से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, अतः वे हिंदी के विरुद्ध बोलने से चूकते नहीं हैं।

कष्ट तब होता है जब वे अंग्रेजी को हिंदी के विरुद्ध खड़ा करते हैं। यह हथियार क्यों कारगर साबित होता है, इसके मनोविज्ञान में जाना होगा। सोचने की बात यह है कि अगर स्थानीय भाषा को हिंदी के विरुद्ध खड़ा करेंगे तो चूंकि वह स्थानीय भाषा आमजन की भाषा है, अतः उन्हें इकट्ठा करके विरोध करने में मेहनत करनी पड़ेगी, आंदोलन करना पड़ेगा। उससे अराजकता का माहौल पैदा हो सकता है, जिससे आम व्यक्ति जो रोज कमाने जाता है और रोज खाता है, वह इस सबसे परेशान होकर स्वयं को इससे अलग कर लेगा। लेकिन अंग्रेजी को विकल्प कहते हुए, संचार माध्यमों में विरोध करेंगे तो बहुत से तथाकथित विशेषज्ञ मैदान में आ जायेंगे। ये लोग हिंदी का डर स्थानीय भाषाओं को दिखायेंगे और पैरवी अंग्रेजी की करेंगे। क्या वाहियात आकलन है?

अगर सही माने में वे लोग अपनी भाषाओं के हितचिंतक हैं तो क्यों नहीं वे उनके व्यापक प्रचार प्रसार की प्रक्रिया और नीति केंद्र सरकार के साथ बैठकर बनाते? कारण स्पष्ट है कि वे अभी तक जनतंत्र की व्यवस्था में राजतंत्र को भोगते रहे हैं। हमारे देश में अंग्रेजी “आभिजात्य” वर्ग की पहचान बन गई है और ऐसा वर्ग अपनी इस पहचान को अनंत काल तक कायम रखना चाहता है। वे नहीं चाहते कि सामान्य वर्ग आगे बढ़े। यही कारण है कि हमने जब भी स्थानीय स्तर पर कोई आंदोलन देखा है, वह मूलतः हिंदी विरोधी होता है, न कि स्थानीय भाषा के पक्ष में। वे यह भी जानते हैं कि उनके दुराग्रह से स्थानीय भाषा पीछे जा रही है और अंग्रेजी दिन ब दिन परिपुष्ट हो रही है, लेकिन निजी-स्वार्थवश वे इस तरह के नाटक करते रहते हैं।

कई विचारक मानते हैं कि एक सशक्त केंद्र सरकार हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरव प्रदान कर सकती है। मैं इस तरह के विचारों का स्वागत करता हूं,पर मेरी विचारधारा में सबसे पहले देश की सभी मान्य भाषाओं को उनका समुचित सम्मान तो मिले। सामान्यतः भाषा संबंधित विमर्श दो ध्रुवों पर अटका रहता है “हिंदी या अंग्रेजी”, भले ही विषय “”भारतीय भाषाएं “”हो।स्थानीय भाषाओं के पक्षधर जब तक यह नहीं समझेंगे कि उनकी भाषा को अंग्रेजी से खतरा है, हिंदी से नहीं ,तब तक कन्नीमोई, चिदंबरम, या शशि थरूर जैसे नेता जनतंत्र के नाम पर जनता को भाषाई भ्रम में डालते रहेंगे।

केंद्र में सरकार किसी की भी हो, वे भी मूकदर्शक रहकर , राजनीतिक विवशतावश उनके विचारों के विरुद्ध कोई पहल नहीं करेंगे। जन-भावनाओं को प्रभावित करनेवाले भारतीय भाषाओं के प्रेमी समूह एक साथ आगे आयें, यह समय की आवश्यकता है,जो शनैः शनैः अब हर क्षेत्र में सक्रिय होने लगे हैं। समय लगेगा… पर परिणाम सकारात्मक होंगे…ध्यान रहे हमें किसी भाषा का विरोध नहीं करना है….बल्कि अपनी स्थानीय भाषाओं को उनका योग्य सम्मान दिलाना है…।

रविदत्त गौड़
Email.. [email protected]
मो. 9820994672

वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
[email protected]

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