Thursday, March 28, 2024
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सोलहवीं क्रिया वैदिक अग्निहोत्रः पूर्णाहुति प्रकरण

विगत पंद्रहवीं विधि में हमने दैनिक अग्निहोत्र कि क्रियाएं कीं थीं| प्रात:काल की क्रियाएं भी कीं थी और सायंकाल की क्रियाएं भी कीं थी| जो लोग प्रात:काल अग्निहोत्र करें, वह प्रात:काल के लिए दिए गए मन्त्रों से आहुतियाँ दें तथा जो लोग सायंकाल के लिए अग्निहोत्र करें, वह सायंकाल की आहुतियों को पूर्ण करने के अनन्तर ओम सर्वं वै पूर्ण१&स्वाहा|| की आहुति दें, जिसका भाव है,परमपिता परमात्मा की कृपा से निश्चय करके मैंने यह कर्म किया है, जो पूर्ण होता है|

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भगवान् से प्रार्थना है कि वह मेरी श्रद्धा को यज्ञ के प्रति बनाए रखे| इसके पश्चात् ओम शांति: शांति: शान्ति: कहते हुए शान्ति पाठ के साथ दैनिक अग्निहोत्र को समाप्त करें| इसका भाव है कि हे प्रभु! हमें सब प्रकार से शान्ति दीजिये| प्रथम आध्यात्मिक शान्ति, अर्थात् जो दु:ख विद्या से दूर होते हैं, उन्हें दूर कर दीजिये अर्थात् हम इतनी विद्या प्राप्त करें कि कोई दु:ख हमारे पास न आ पावे| हमें आधिदैविक शान्ति भी दीजिये अर्थात् जल आदि द्वारा तथा हमारी इन्द्रियों की चंचलता से जो दु:ख हमें घेर लेते हैं, वह सब दु;ख भी हमारे से दूर करो| इसके अतिरिक्त आधिभौतिक दु:ख, जो प्राणियों से आते है, हम उन दु:खों से भी बचे रहें| इओस्क्ले साथ ही हमने दैनिक यज्ञ को पूर्ण किया था|

आघार्वाज्यभागाहुतय:
अब जो पूर्णाहुति प्रकरण आरम्भ करने जा रहे हैं, यह वृहद यज्ञ के रूप में भी जाना जाता है| यदि छोटा अग्निहोत्र करना हो तो इसे दैनिक अग्निहोत्र कहते हैं और यदि बड़ा अग्निहोत्र करना हो तो पहले दैनिक अग्निहोत्र की क्रियाओं को करके, इसके साथ ही हम पूर्णाहुति प्रकरण को आरम्भ कर देते हैं| यह वैदिक अग्निहोत्र की सोलहवीं क्रिया के अंतर्गत आता है| मुख्यत: परिवारों में यह विशेष अवसरों पर करते है, जबकि कुछ परिवार इसे भी प्रतिदिन करते हैं और आर्य समाज के सत्संगों और विशेष कार्यक्रमों में भी इसे किया जाता है|

इस पूर्णाहुति प्रकरण को हम आघार्वाज्यभागाहुतय: भी कहते हैं| जैसे विगत में बताया गया है कि आघार का भाव होता है पिघलाने को और आज्या कहते हैं घी को| अत: यहाँ इस क्रिया का आरम्भ घी पिघलाने के लिए ही किया जाता है, क्योंकि दैनिक अग्निहोत्र करते हुए सामग्री डाली गई थी, इससे समिधायें सामग्री से दब गईं थीं और धुंआ आरम्भ होने की संभावना बन गई थी| इसलिए अब अग्नि को एक बार फिर से प्रचंड करने की आवश्यकता अनुभव हो रही है| इसके साथ ही इतनी दैनिक आहुतियाँ देने से घी ठंडा हो गया है| इसलिए घी को फिर से तेज गर्म करने के लिए हम इन आहुतियों के साथ घी को फिर से गर्म करते चले जाते हैं| इस प्रकरण के अंतर्गत सामग्री की आहुतियों को रोक दिया जाता है और केवल घी की ही आहुतियाँ दी जाती हैं| देखें इस प्रकरण में कौन से मन्त्रों के साथ आहुतियाँ दिन जाती हैं|

ओम अग्नये स्वाहा||इदमग्नये इदन्न मम ||
इस मन्त्र के साथ यज्ञवेदी पर स्थित हवन कुण्ड के उत्तर भाग में प्रज्वलित अग्नि पर केवल घी की आहुति दी जावे और यह आहुति केवल मुख्य यज्ञमान ही देवे|
ओम सोमाय स्वाहा||इदं सोमाय इदन्न मम ||
इस मन्त्र से यज्ञवेदी पर सथित यज्ञकुंड के दक्षिण भाग में प्रज्वलित अग्नि पर केवल घी की आहुति देवें और यह आहुति केवल मुख्य यज्ञमान ही देवे|
ओम प्रजापतये स्वाहा||इदं प्रजापतये,इदन्न मा||
इस मन्त्र से केवल घी की आहुति यज्ञवेदी पर सथित हवनकुण्ड के मध्यभाग में प्रज्वलित अग्नि पर आहुति देवें और यह आहुति भी केवल मुख्य यज्ञमान हि देवेगा|
ओम इन्द्राय स्वाहा|| इदं इन्द्राय, इदन्न मम ||
इस मन्त्र के गायन के साथ यज्ञवेदी पर सथित हवनकुण्ड के मध्यभाग में जलती हुई अग्नि पर केवल घी की ही आहुति देवें और यह आहुति भी केवल मुख्य यज्ञमान ही देवेगा|

अब व्याहृत की आहुतियाँ आरम्भ होती हैं| इस के अंतर्गत हमने अग्नि से तपाकर जो घी पूरी प्रकार से उष्ण और शुद्ध कर लिया है| अब हजम इस घीमको स्रुवा अर्थात् जिस कड़छी अथवा चम्मच से हमारा यज्ञमान घी की आहुतियाँ दे रहा है, उसी को ही घी से भरकर प्रज्वलित समिधाओं पर व्याहृति की चार आहुतियाँ इसके नीयत किये गए मन्त्रों के साथ देते हैं| यह मन्त्र इस प्रकार हैं:-
ओम भूरग्नये स्वाहा||१|| इदमग्नये इदन्न मम ||
ओम भूवर्वायवे स्वाहा||२||इदम वायव, इदन्न मम||
ओम स्वरादित्याय स्वाहा||३|| इदामादित्याय इदन्न मम||
ओम भूर्भुव: स्वरग्निवाय्वादित्येभ्य: स्वाहा||४||
इदमग्निवाय्वादित्येभ्य: स्वाहा||
शब्दार्थ
भू: हे सर्वाधार! अग्नये अग्नि के लिए भुव: दु:खनाशक वायवे वायु के सामान व्यापक के लिए स्व: सुख स्वरूप आदित्याय प्रकाश स्वरूप के लिए अर्थात इन चार मन्त्रों में जो गुण बताये गए हैं , जिनके अर्थ शब्दार्थ के अंतर्गत हमें अभी किये हैं, इन सब गुणों के स्वामी प्रभु के लिए अथवा उस प्रभु की प्रीति का भाजन बनने के लिए स्वाहा मैं सच्चे ह्रदय से यह आहुति देता हूँ| प्रभु मेरी इस आहुति को, मेरी इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करो| यदि विस्तार से यह सब अर्थ देखने हों तो प्रथम प्रकरण अथवा प्रथम क्रिया में देखें|

भावार्थ अथवा व्याख्यान
सर्वाधार
हे सर्वाधार! यहाँ परमपिता परमात्मा को उसके एक गुण से संबोधित किया गया है, यह गुण है सर्वाधार| परमपिता परमात्मा इस पूरे ब्रह्माण्ड का आधार है, उसे संभाले हुए है| उसने इस को संभालने में इतनी उत्तम व्यवस्था की है कि इस ब्रह्माण्ड का कोई ग्रह कभी किसी दुसरे ग्रह से टकराता नहीं, कभी कोई दुर्घटना होती ही नहीं| यदि कभी कहीं कोई दुर्घटना होती भी है तो वह ईश्वर की व्यवस्था का ही एक भाग होती है और जीव के, प्राणी मात्र के हित के लिए ही होती है, जो प्रभु की व्यवस्था के अंतर्गत ही होती है| मानवीय मशीने अर्थात् कार, स्कूटर, रेल गाड़ी आदि तो दुर्घटनाग्रस्त होते रहते हैं किन्तु देखो भूमि कितनी सुन्दर व्यवस्था से सदा ही सूर्य के चारों और चक्कर लगाती रहती है और अपने चारों और भी घूमती रहती है किन्तु न तो यह कभी अकती है, न कभी थकती ही है, इसकी गति निरंतर बनी रहती है और इस सुन्दर व्यवस्था से चलती है कि मार्ग में किसी अन्य गृह से कभी टकराती भी नहीं| इस प्रकार की ही अवस्था इस सृष्टि के अन्य ग्रहों की भी होती है| इसलिए परमपिता सर्वाधार हैं|

अग्निस्वरूप
हे अग्निस्वरूप! परमपिता परमात्मा का एक अन्य गुण है अग्निस्वरूप ! वह प्रभु अग्नि के समान तेजस्वी है| अग्नि का गुण है तेज तो परमात्मा भी तेजस्वी है, अग्नि का गुण है ऊपर उठना तो परमात्मा सदा सबके ऊपर ही उठा रहता है, अग्नि का गुण है, जो उसे खाने को दिया जावे, वह अपने पास न रख कर, इसे लाख गुणा करके वायु मंडल के माध्यम से हमें लौटा देती है तो परमात्मा भी इस गुण का स्वामी है| हम उपासना, प्रार्थना के माध्यम से जो कुछ भी उस प्रभु को भेंट करते हैं, वह प्रभु उन सब वस्तुओं को लाखों करोड़ों गुणा में बढ़ाकर हमें लौटा देता है| अग्नि का कार्य है इस में डाले गए पदार्थों की दुर्गन्ध का नाश करना तो वह परमपिता भी हमारे पापों का( दंड से) नाश कर हमें पाप मुक्त करता है और हमें पाप रूपी दुर्गन्ध से मुक्त करता है| अग्नि का काम है सुगंध और पौष्टिकता को बढ़ा कर सब और फैलाना| जब हम उस प्रभु की उपासना करते हैं तो वह भी हमारी इस भक्ति रूपी सुगंध को सब और फैलाकर हमें सुवासित करता है|

दु:ख नाशक

हे सब दु:खों के नाशक प्रभु! परमपिता परमात्मा दु:खों का नाश करने वाला होने से दु:खों का नाशक भी है| वह हमारे दु:खों को दूर करने में हमारा सहयोगी होता है| वह सदा हमें उपदेश करता रहता है कि हे प्राणी! पापाचरण से अर्थात् इस प्रकार के कर्मों से, जिनके करने से किसी दूसरे की हानि हो, से बच, इनसे दूर रह, इन्हें कभी प्रयोग में मत लाना| इसके अतिरिक्त परमात्मा के पास दु:खों को दूर करने का एक अन्य उपाय भी है, उसे कहते हैं दंड| हमने बहुत से पाप के कर्म किये होते हैं और बहुत से अच्छे कर्म भी किये होते हैं| जब प्रभु बुरे कर्मों का दंड दे देता है तो शेष अच्छे कर्म रह जाते है, जिन से हमें कभी कोई कष्ट नहीं मिलता अपितु सुख ही मिलता है|

वायु के समान व्यापक
वह पिता वायु के समान सब स्थानों पर व्यापक है| जिस प्रकार वायु के बिना इस सृष्टि में कोई स्थान नहीं होता, उस प्रकार ही ईश्वर के बिना भी इस सृष्टि में कोई स्थान नहीं होता| वायु रुक जावे तो विनाश हो जाता है, इस प्रकार ही यदि प्रभु इस सृष्टि से अलग हो जावे तो सृष्टि का भी अस्तित्व नहीं रहता|

सुखदाता
परमपिता त् हमें सब प्रकार के सुखों का देने वाला है| जब हम प्रतिदिन अग्निहोत्र द्वारा उसकी बनाई हुई आत्माओं का हित करते रहते हैं तो कोई कारण नहीं कि वह हम से प्रसन्न न हो, जब वह हमसे प्रसन्न है तो वह हमें केवल सुख ही देगा और क्या देगा?

प्रकाशस्वरूप
परमपिता परमात्मा केवल प्रकाश देने वाला ही नहीं है अपितु प्रकाश स्वरूप भी है| इस जगत् में जितने प्रकाश के साधन हैं, उन सब को प्रकाश देने वाला वह परमपिता परमात्मा ही है| सूर्य, चाँद,सितारे आदि उसके दिए प्रकाश से ही प्रकाषित होते हैं| हम भी ज्ञान से जो प्रकाशित होते हैं वह ज्ञान का प्रकाश भी वेद के रूप में परमपिता ने ही हमें दिया है|

छोटे प्रभु
इस प्रकार अग्निहोत्र करते हुए हम भी छोटे से प्रभु बनने का प्रयास करते है और इस अग्निहोत्र में अपनी पवित्र आहुतियाँ, पवित्र सामग्री से देते हैं, जिस में सब प्रकार की सुगंधों को बढाने वाले सुगन्धित पदार्थ, शक्ति को बढाने वाले पौष्टिक पदार्थ तथा रोगों के कीटाणुओं का नाश करने वाले पदार्थ डाले होते हैं| जब हम आहुतियों में यह सब कुछ डालते है तो यह वायुमंडल में चारों और फ़ैल जाते हैं, जहां भी जाते है, वहां के सब प्राणियों को पुष्ट करते हैं, सुगंध से भरते है और सब को स्वस्थ बनाते है| इस प्रकार सब जीवों का कल्याण होता है| यह ही परमपिता की उत्तम भक्ति है|

डॉ. अशोक आर्य
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