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पुरुष सूक्त का सत्य

अंबेडकरवादी पुरुष सूक्त को लेकर यह आरोप लगाते हैं कि “वेद में पुरुष के पांव से शूद्र पैदा हुये इत्यादि” । इस लेख में हम उनके दावे की पुष्टि करेंगे। दरअसल ऋग्वेद के मंडल १० के ९०वें सूक्त को पुरुष सूक्त कहते हैं।इसके मंत्र १२ पर यह विवाद है।उसके पहले हम इसी सूक्त के मंत्र ११ का अवलोकन करते हैं:-
“यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्य कौ बाहू का उरू पादा उच्यते।।”
( ऋग्वेद १०/९०/११)
सृष्टि के आदि में जब देवजनों ने पुरुष परमेश्वर को धारण किया तब उन्होंने कितने रूपों में उसकी कल्पना की? इसका मुख क्या था,भुजायें कौन कौन सी थी,उरू तथा पैर कौन थे?”

यहां सिद्ध है कि परमेश्वर निराकार निरवयव होता है।उसके चिंतन के लिये उसके उपासक कल्पना कर लेते हैं । अतः निरारार के अंग होना संभव नहीं परंतु यहां आलंकारिक वर्णन है।दूसरी बात,यहां पूछा है कि उसका मुख,बाहु,उरू तथा पैर “कौन हैं”? उत्तर अगले मंत्र में है:-
ब्राह्मणोs स्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः।
उरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यांशूद्रो अजायत।।”
यानी” ब्राह्मण उसका मुख था,क्षत्रिस भुजायें थीं,वैश्य उरू थे और शूद्र उसके पैर थे।

यहां कहीं नहीं लिखा कि “ब्राह्मण आदि उसके अंगों से पैदा हुये” बल्कि यहां पर निराकार परमेश्वर के शरीर की कल्पना करके चार वर्णों को उपमा दी है। अजीब बात है कि पिछला मंत्र कहता है कि “उसका मुख क्या था?” जवाब आता है कि “ब्राह्मण उसके मुख से पैदा हुआ” । भला! ये भी कोई उत्तर हुआ? तो यहां पर “ब्राह्मण उस पुरुष का मुख है इत्यादि” अर्थ ही संभव है।

यहां पर ब्राह्मण को परमात्मा के मुख से उपमा दी है। यानी ब्राह्मण वही है जो मुख के समान पांच गुना ज्ञान रखकर जनता को ज्ञानी बनाये तथा मुख के समान अपरिग्रही रहे। क्षत्रियों को उसकी भुजाओं की शक्ति से कल्पित किया अर्थात् जिस तरह भुजायें शरीर की रक्षा करती हैं, क्षत्रिय भी समाज की रक्षा करता है। वैश्य को उसके उरू यानी मध्यांगों से कल्पना की है। अर्थात् व्यापार के लिये यातायात करके देश की आर्थिक व्यवस्था बनाने वाला वैश्य है। शूद्र उसके चरणों के समान हैं क्योंकि चरण पूरे शरीर का भार ढोते हैं तथा कीचड़ में खुद फंसकर शरीर को बचाते हैं।परमेश्वर की सेवा शक्ति ही इस तरह की है।

कुल मिलाकर यहां पर दो भाव हैं।पहला यह कि, परमात्मा में ज्ञान,रक्षा,अर्थ तथा सेवा शक्ति चार वर्णों के समान है।
दूसरा, गुण कर्म स्वभाव से वर्णव्यवस्था होती है। यहां पर कहीं पर न तो ब्राह्मण को ऊंचा कहा है न शूद्र को नीचा।
इस तरह से सिद्ध हुआ कि पुरुष सूक्त में शूद्रों को नीचा नहीं कहा गया,वरन् इसमें गौण रूप से चारों वर्णों की व्यवस्था गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार कही गई है।
अंबेडकरवादियों का दावा खोखला है।

संदर्भित ग्रंथ एवं पुस्तक
वेदों की वर्णन शैलियां- डॉ रामनाथ वेदालंकार

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