Friday, March 29, 2024
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एक ध्येय के सूत्र से बंधे थे वीर सावरकर और भगत सिंह

आपने देखा और पढ़ा होगा कि भारत में तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक विशेष वर्ग स्वातंत्र्यवीर सावरकर और सरदार भगत सिंह को एक-दूसरे के सामने खड़ा करने का प्रयास करता है। ऐसा करते समय उसकी नीयत साफ नहीं होती। मन में बहुत मैल रहता है। दरअसल, वे स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर को कमतर दिखाने और उनका अपमान करने की चेष्टा कर रहे होते हैं। लेकिन, सूरज से भी भला कोई आँखें मिला सकता है। दो महापुरुषों/क्रांतिकारियों की तुलना करके ऐसे लोग अपने ओछेपन को ही उजागर कर रहे होते हैं। ऐसा करते समय उन्हें पता ही नहीं होता कि दोनों क्रांतिवीर एक-दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। आज हम वीर सावरकर और सरदार भगत सिंह के आपसी संबंधों को टटोलने का प्रयास करेंगे। हम जानेंगे कि कैसे भगत सिंह क्रांति की राह में सावरकर के प्रति आदर का भाव रखते थे और सावरकर के मन में भगत सिंह के प्रति कितनी आत्मीयता थी?

सरदार भगत सिंह के बचपन का एक प्रसंग आप सबने पढ़ा या सुना होगा। बचपन में खेलते समय भगत सिंह ने चाचाजी की बंदूक हाथ में उठा ली। उन्होंने चाचाजी से पूछा कि इससे क्या होता है? चाचाजी ने बताया कि “वे इससे अंग्रेजी हुकूमत को अपने देश से भगाएंगे। कुछ दिनों बाद भगत सिंह ने चाचाजी को आम का पौधा रोपते देखा, तो पूछ लिया कि यह क्या कर रहे हैं? बाल सुलभ प्रश्न है। चाचाजी ने उत्तर दिया कि मैं आम का पौधा लगा रहा हूँ, जिस पर बहुत से आम लगेंगे और हम सब खाएंगे। यह उत्तर सुनकर भगत सिंह घर से उनकी बंदूक ले आए और खेत में गड्डा खोदना शुरू कर दिया। जब वे उस गड्डे में बंदूक डाल रहे थे, तब प्रश्न करने की बारी चाचाजी की थी। चाचाजी ने पूछा कि यह क्या कर रहे हो? तब जन्मजात देशभक्त क्रांतिकारी भगत सिंह ने कहा कि मैं बंदूक की फसल उगा रहा हूँ, जिससे कई बंदूकें पैदा होंगी और हम सब मिलकर अपने देश को अंग्रेजों से आजाद करा लेंगे।

अब सावरकर के जीवन का प्रसंग देखिए। अतुल्य शौर्य और बलिदान के पर्याय चाफेकर बंधुओं को जब आतातायी ब्रिटिश सरकार ने फांसी दी, तो बालक सावरकर के मन पर इसका गहरा असर हुआ। चाफेकर बंधुओं की क्रांति को कौन बल देगा? कौन है जो स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति देने आगे आएगा? चाफेकर बंधुओं की फांसी से सावरकर के भीतर जल रही क्रांति की लौ धधक उठी। १४ वर्ष का यह वीर बालक अपनी कुलदेवी माँ अष्टभुजा के चरणों में जाकर बैठ गया। उस दिन सावरकर ने अष्टभुजा देवी को साक्षी मानकर शपथ ली कि मैं मेरे देश की स्वतंत्रता पुन: प्राप्त करने के लिए सशस्त्र क्रांति करूंगा। स्वतंत्रता के कठिन पथ पर उनका यह पहला कदम था।

स्वातंत्र्यवीर सावरकर और भगत सिंह के बचपन के यह प्रसंग देश के दो अलग-अलग हिस्सों में घट रहे थे। भाव एक था। संस्कार एक था। लक्ष्य एक था। इसलिए आगे चलकर वे एक-दूसरे की ओर खिंचे भी चले आए। दोनों ही प्रखर बौद्धिक। विश्व साहित्य का अध्ययन करने वाले। दोनों ने ऐसे साहित्य की रचना की, जो क्रांति की ओर कदम बढ़ा रहे नौजवानों का पथ प्रदर्शित करता था। हम सब जानते हैं कि ब्रिटिश सरकार ने भाड़े के इतिहासकारों को ठेका दिया था कि वे १८५७ के स्वातंत्र्य समर के प्रभाव को कम करने के लिए उसे ‘सिपाही विद्रोह’ सिद्ध कर दें। सरकार नहीं चाहती थी कि क्रांति की यह आग तेजी से भारत में फैले और उसके विरुद्ध एक बार फिर संगठित प्रयास हों। अंग्रेजों के इशारे पर जब भारत के पहले संगठित स्वतंत्रता संग्राम को ‘सिपाही विद्रोह’ बताया जा रहा था, तब प्रखर मेधा के धनी सावरकर ने तर्कों-तथ्यों के आधार पर ‘१८५७ का स्वातंत्र्य समर’ जैसा प्रेरणादायी ग्रंथ तैयार किया। यह ग्रंथ क्रांतिकारियों के लिए ‘गीता’ बन गया था। अंग्रेजों ने इस पुस्तक पर प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रतिबंध लगा दिया। यह दुनिया की एकमात्र पुस्तक है, जिस पर प्रकाशन के पूर्व ही प्रतिबंध लगा है।

आपको जानकर अच्छा लगेगा कि सरदार भगत सिंह इस पुस्तक से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने रत्नागिरी जाकर वीर सावरकर से भेंट की और पुस्तक के प्रकाशन की अनुमति माँगी। भगत सिंह ने वीर सावरकर की पुस्तक को ब्रिटिश सरकार की नजरों से बचाकर प्रकाशित कराया और उसे क्रांतिकारियों के बीच पहुँचाया। सावरकर की इस पुस्तक से भगत सिंह कितने प्रभावित थे, इसको उनके एक करीबी सहयोगी राजा राम शास्त्री ने विस्तार से ‘अमर शहीदों के संस्मरण’ में लिखा है। वे लिखते हैं- “वीर सावरकर द्वारा लिखित ‘1857 का स्वातंत्रय समर’ पुस्तक ने भगत सिंह को बहुत अधिक प्रभावित किया था। यह पुस्तक सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थी। मैंने इस पुस्तक की प्रशंसा सुनी थी और इसे पढ़ने का बहुत ही इच्छुक था। पता नहीं कहाँ से भगत सिंह को यह पुस्तक प्राप्त हो गई थी। वह एक दिन इसे मेरे पास ले आए। जिससे ली है, उसे देनी होगी, इसलिए वे मेरे बहुत कहने पर भी देने को तैयार नहीं हो रहे थे। जब मैंने जल्द-से-जल्द पढ़कर पुस्तक लौटा देने का वायदा किया तब उन्होंने वह पुस्तक मुझे बस 36 घंटे के लिए दी”। राजा राम शास्त्री ने जब पुस्तक वापस की तो भगत सिंह उनसे बोले- “यदि तुम कुछ परिश्रम करने के लिए तैयार हो जाओ और थोड़ी मदद करने के लिए तैयार हो जाओ तो इस पुस्तक को गुप्त रूप से प्रकाशित करने का उपाय सोचा जाए”।

वीर सावरकर और सरदार भगत सिंह के इस बौद्धिक एवं क्रांतिकारी रिश्ते का एक और रोचक तथ्य है, जिसे छिपाया जाता रहा है। बुद्धिजीवियों का यह खेमा बार-बार यह तो बताता है कि भगत सिंह कम्युनिस्ट लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। लेकिन यह नहीं बताते कि सरदार भगत सिंह जेल में बंद थे तब वीर सावरकर की पुस्तकें ‘१८५७ का स्वातंत्र्य समर’ और ‘हिन्दू पदपादशाही’ भी पढ़ रहे थे। लाला लाजपत राय और रविन्द्र नाथ ठाकुर सहित अन्य लेखकों की पुस्तकें भी पढ़ रहे थे। भगत सिंह, वीर सावरकर की पुस्तक को न केवल पढ़ रहे थे, बल्कि उन्होंने ‘हिन्दू पदपादशाही’ से प्रेरणादायी नोट भी लिए थे। उन्होंने वीर सावरकर की पुस्तक से क्या नोट लिए, उसे आप भगत सिंह की जेल डायरी में पढ़ सकते हैं। अब यह पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध है। ऑनलाइन खोजने पर भी आपको मिल जाएगी।

भारत के पहले संगठित स्वतंत्रता संग्राम ‘१८५७ की क्रांति’ पर लिखी गई पुस्तक को सिर्फ भगत सिंह ने ही नहीं, बल्कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस और रास बिहारी बोस ने भी आजाद हिंद फौज के सैनिकों को प्रेरित करने के लिए प्रकाशित कराया था।

बहरहाल, कई बार प्रश्न आता है कि विनायक दामोदर सावरकर को वीर की संज्ञा किसने दी? उन बुद्धिजीवियों की खोज कहती है कि सावरकर के लिए ‘वीर’ विशेषण का उपयोग किसी ने नहीं किया। तब उन्हें एक बार फिर भगत सिंह का लिखा पढ़ना चाहिए। कलकत्ता से प्रकाशित साप्ताहिक ‘मतवाला’ के १५ और २२ नवंबर १९२४ के अंकों में भगत सिंह के लेख प्रकाशित हैं।

‘विश्व प्रेम’ शीर्षक से प्रकाशित लेख में भगत सिंह कहते हैं- “विश्व प्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझते- वही वीर सावरकर। विश्व प्रेम की तरंग में आकर घास पर चलते-चलते रुक जाते कि कोमल घास पैरों तले मसली जायेगी”। बलवंत सिंह के छद्म नाम से लिखे गए इस लेख में वीर सावरकर के लिए जिस प्रकार का भाव सरदार भगत सिंह का है, उसको पढ़कर शायद ही सावरकर के अपमान के लिए आतुर बुद्धिजीवियों को शर्म आए। एक और बात स्पष्ट समझ लीजिए कि सरदार भगत सिंह, सावरकर को ‘वीर’ उस समय संबोधित कर रहे हैं, जब इन बुद्धिजीवियों के अनुसार सावरकर अंग्रेजों से ‘माफी’ माँग कर कालापानी की सजा से मुक्त होकर रत्नागिरी में अंग्रेजों का सहयोग कर रहे हैं। याद रखें, उस समय वीर सावरकर पर अंग्रेजों ने कड़ी नजरबंदी कर रखी थी। उन्हें रत्नागिरी से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी।

इतना ही नहीं, कर्जन वायली को मौत के घाट उतारने वाले क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा और स्वातंत्र्यवीर सावरकर के संबंध में भगत सिंह लिखते हैं- “स्वदेशी आंदोलन का असर इंग्लैंड तक भी पहुंचा और जाते ही श्री सावरकर ने ‘इंडिया हाउस’ नामक सभा खोल दी। मदनलाल भी उसके सदस्य बने। एक दिन रात को श्री सावरकर और मदनलाल ढींगरा बहुत देर तक मशवरा करते रहे। अपनी जान तक दे देने की हिम्मत दिखाने की परीक्षा में मदनलाल को जमीन पर हाथ रखने के लिए कहकर सावरकर ने हाथ पर सुआ गाड़ दिया, लेकिन पंजाबी वीर ने आह तक नहीं भरी। सुआ निकाल लिया गया। दोनों की आँखों में आँसू भर आए। दोनों एक-दूसरे के गले लग गए। आहा! वह समय कैसा सुंदर था। वह अश्रु कितने अमूल्य और अलभ्य थे! वह मिलाप कितना सुंदर कितना महिमामय था! हम दुनियादार क्या जानें, मौत के विचार तक से डरनेवाले हम कायर लोग क्या जानें कि देश की खातिर, कौम के लिए प्राण दे देने वाले वे लोग कितने ऊंचे, कितने पवित्र और कितने पूजनीय होते हैं”।

यह तो सरदार भगत सिंह लिख रहे थे स्वातंत्र्यवीर सावरकर के लिए। सावरकर क्या कर रहे थे? अकसर यह भी प्रोपेगंडा किया जाता है कि भगत सिंह के लिए सावरकर ने एक शब्द भी नहीं लिखा या बोला? परंतु यह सच नहीं है। पाखंडी विद्वानों की तरह ऐसा प्रश्न अंग्रेजों के मन में कतई नहीं था। अंग्रेजों को पूरा विश्वास था कि क्रांतिकारी अवश्य ही भगत सिंह की फांसी पर प्रतिक्रिया देंगे। उस समय अंग्रेजी सरकार ने पुलिस को यह जानने के लिए रत्नागिरी भेजा कि सावरकर कुछ करने का प्रयास तो नहीं कर रहे।

रत्नागिरि में वीर सावरकर के घर पर हमेशा भगवा झंडा फहराया जाता था। लेकिन भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के बलिदान के अगले दिन उनके घर पर काला झंडा लहरा रहा था। जब पुलिसवाले सावरकर के घर की तलाशी ले रहे थे तब वीर सावरकर ने वही नोटबुक/राइटिंग पैड उन्हें पकड़ा दिया, जिस पर उन्होंने भगत सिंह की फांसी के बाद एक लेख और यशस्वी क्रांतिकारी की शान में एक कविता लिख रखी थी। लेकिन पुलिसवाले यह देख नहीं पाए और खाली हाथ लौट गए।

क्रांतिवीर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी पर सावरकर को जो पीड़ा हुई, उसकी अनुभूति उनकी लिखी कविता में की जा सकती है। उस कविता को पढ़कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं-

हा, भगत सिंह, हाय हा!

चढ़ गया फांसी पर तू वीर हमारे लिये हाय हा!

राजगुरु तू, हाय हा!

वीर कुमार, राष्ट्रसमर में हुआ शहीद

हाय हा! जय जय हा!

सरदार भगत सिंह और वीर सावरकर की तुलना करते हुए यह भी कहा जाता है कि भगत सिंह फांसी से डरे नहीं जबकि सावरकर माफी माँगकर जेल से बाहर आ गए। यह इतनी अतार्किक तुलना है कि इस एक तुलना से ही उनके बौद्धिक दिवालिएपन का अंदाजा लगाया जा सकता है। पहली बात तो यह स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि सरदार भगत सिंह जब असम्बली में बम फेंकने जा रहे थे, उन्होंने तब ही अपने लिए फांसी का फंदा तय कर लिया था। वे अपनी फांसी से क्रांति की लौ भड़काना चाहते थे। इसलिए अवसर के बाद भी वे भागे नहीं, अंग्रेजों की पकड़ में जानबूझकर आए। जबकि वीर सावरकर क्रांतिकारी होने के साथ ही बैरिस्टर की शिक्षा प्राप्त व्यक्ति थे।

उन्होंने अपना समूचा जीवन आठ बाय आठ की अँधेरी कोठारी में व्यर्थ ही बिताने की जगह कालापानी से बाहर आने के लिए कानूनी विकल्प का उपयोग करना अधिक उपयोगी समझा। बाहर आने के बाद वे देशहित में कुछ कर सकते थे, उस कालकोठारी में नहीं। वीर सावरकर को यह सुझाव स्वयं महात्मा गांधी ने भी दिया था। ऐसे लोगों को कहना चाहिए कि गांधीजी के संबंध में सिर्फ बातें नहीं करनी चाहिए, थोड़ा उनका अध्ययन भी करना चाहिए। पढ़ें, सावरकर को कालापानी की सजा होने पर गाँधीजी क्या लिख रहे थे और सावरकर वहाँ से बाहर आएं इसके लिए उनके विचार क्या थे? तब उपरोक्त प्रश्न के पीछे का बुनियादी अंतर स्पष्ट हो जाएगा कि भगत सिंह ने फांसी का फंदा क्यों चुना और वीर सावरकर ने दो आजन्म कारावास की सजा कालापानी में बिताना उचित क्यों नहीं समझा।

महापुरुषों को एक-दूसरे के बरक्स खड़ा करने का प्रयास करने वाले कुटिल लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत के लोग अब पहले से अधिक जागरूक हैं। वे अपने महापुरुषों को इस तरह के संकीर्ण दृष्टिकोण से नहीं देखते हैं। उनके लिए स्वातंत्र्यवीर सावरकर और सरदार भगत सिंह, दोनों ही भारत माता के सच्चे बेटे हैं। सपूत हैं। जिन्होंने अपना जीवन भारत की स्वतंत्रता एवं उसको सामर्थ्यशाली बनाने के लिए समर्पित कर दिया था।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।)

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