Saturday, April 20, 2024
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अटकन-बटकन दही चटाका

हमारी लोक सँस्कृति, लोग गीतों, कहावतों, मुहावरों, आख्यानों, लोक साहित्य में पूरे जगत का सार समाया हुआ है। यदि हम केवल इसे समझ भर लें तो अलग से किसी शास्त्र को पढ़ने की आवश्यकता नहीं रह जाए, क्योंकि लोक संस्कृति उसी का सार है। देखिये इसकी एक बानगी-

अब अटकन-भटकन दही चटाका… ये हम सब बचपन से गाते या यूं कहें खेलते आये हैं। लेकिन न तो कभी हमने इसे पूरा गया, और जब गाया ही नहीं तो इसका अर्थ क्या समझते। तो आइए इसे समझते हैं-

पहले पूरा गीत, फिर इसका आध्यात्मिक और दार्शनिक भावार्थ-

अटकन भटकन दही चटाका..

लउहा लाता बन में कांटा..

तुहुर-तुहुर पानी गिरय..

सावन में करेला फूटय..

चल-चल बिटवा गंगा जाबो..

गंगा ले गोदावरी, पाका-पाका बेल खाबो..

बेल के डारा टूटगे..

भरा कटोरा फुटगे..

टूरा-टूरी जुझगे..

इस गीत का आध्यात्मिक और दार्शनिक भाव कुछ इस प्रकार बताया गया है कि-

अटकन यानी जीर्ण-शीर्ण शरीर को जब उचित मात्रा में भोजन नहीं मिल आयात तब जीव अटकने लगता है।

बटकन यानी मृत्यु काल निकट आते ही आंख की पुतलियां उलटने लगती हैं।

दही चटाका यानी जीव जब शरीर को छोड़कर जाने लगता है तब लोग कहते हैं कि उसे गंगाजल पिलाओ।

लहुआ लाता बन में कांटा का अर्थ है कि जीव के मरने पर उसे शीघ्र श्मशान में जाकर लकड़ियों पर जलाते हैं।

तुहुर-तुहुर पानी गिरय का अर्थ है कि चिता के पास खड़े हर व्यक्ति की आंखों से आसूं झरने लगते हैं।

सावन में करेला फूटय यानी अश्रुपूरित होकर कपालक्रिया की जाती है।

चल-चल बिटवा गंगा जाबो अर्थात अस्थि संचय के बाद उसे गंगा ले जाते हैं।

गंगा ले गोदावरी मतलब अस्थि विसर्जित कर घर लौटेते हैं।

पाका पाका बेल खाबो मतलब मृतक के दशगात्र अथवा तेरहवीं में लोगों को पकवान खिलाते हैं।

बेल के डारा टूटगे यानी सब लोग खा पीकर अपने घर लौटते हैं।

भरे कटोरा फूटगे यानी उस जीव का इस संसार से नाता टूट जाता है

टूरा-टूरी जुझगे अर्थात दसकर्म के बाद लोग सबकुछ भूलकर अपने काम-धंधे में लग जाते हैं।।

अटकन_बटकन का भावार्थ मुझे मिला छत्तीसगढ़ जनसंपर्क द्वारा प्रकाशित विचारमाला ‘हमारे’ राम में। मुझे लगा इसे आप लोगो के साथ साझा किया जाए। इसलिए यहां प्रस्तुत किया।

अटकन-बटकन का एक बिगड़ा हुआ गीत भी गया जाता है। लेकिन इस मूल गीत और उसके भावार्थ में जीवन से मृत्यु तक का सार समाया हुआ है।

(यह मैंने एक वर्ष पहले लिखा था।)

(प्रियंका कौशल वरिष्ठ पत्रकार हैं व लोकजीवन से लेकर राजनीतिक विषयों पर लेखन करती हैं)

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