Wednesday, April 24, 2024
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गांधी जी की हत्या किसने की थी?

राहुल गांधी द्वारा ‘आरएसएस के लोगों ने गांधीजी की हत्या की’ वाले भाषण पर सुप्रीम कोर्ट में मामला खिंचता लग रहा है। इस में रोचक राजनीतिक कोण भी है, जिस के अनपेक्षित परिणाम भी संभव हैं। पहली दृष्टि में कोर्ट ने राहुल को दोषी पाया, जिस पर राहुल पीछे हटते नहीं दिख रहे, इसलिए गांधीजी की हत्या पर एक बार फिर विस्तृत चर्चा अनायास शुरू हो गई है। इस में प्रमुख राजनीतिक दलों के हित-अहित जुड़े होने के कारण अनेक बुद्धिजीवी और पत्रकार भी सक्रिय हो गए हैं।

हालांकि, 19 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी या उस की छपी रिपोर्ट में एक बड़ी भूल दिखाई देती है। रिपोर्ट अनुसार, कोर्ट की टिप्पणी यह थी, ‘‘पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के फैसले में केवल यह कहा गया कि नाथूराम गोडसे आरएसएस का कार्यकर्ता था।’’ इस वाक्य से लगता है कि गांधीजी की हत्या करते समय भी गोडसे आरएसएस कार्यकर्ता था। यह गलत है, जिस से अनुचित अर्थ प्रसारित हुआ है।

गांधीजी की हत्या पर चले मुकदमे में स्वयं गोडसे द्वारा दिया गया बयान इस प्रकार है, ‘‘(पाराग्राफ 29) मैंने अनेक वर्षों तक आरएसएस के लिए काम किया और बाद में हिन्दू महासभा में चला गया और इस के अखिल-हिन्दू झंडे के अंतर्गत एक सिपाही बन गया।’’ आगे पाराग्राफ 114 में गोडसे ने फिर स्पष्ट किया कि वह हिन्दुओं के उचित अधिकारों के लिए देश की राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना चाहता था, ‘‘इसलिए मैं ने संघ का त्याग कर दिया और हिन्दू महासभा से जुड़ गया।’’

गोडसे के इस बयान को कोर्ट में किसी ने चुनौती नहीं दी थी। अर्थात उस का बयान सत्य था। वैसे भी, हत्याकांड के समय और उस से पिछले वर्षों में गोडसे का संबंध वीर सावरकर (हिन्दू महासभा के नेता) से था, जो आरएसएस के प्रति हिकारत का भाव रखते थे।

इस प्रकार, यदि कोर्ट की टिप्पणी से यह संदेश गया कि गोडसे आरएसएस कार्यकर्ता था, मगर आरएसएस को सामूहिक रूप से हत्या के लिए बदनाम करना अनुचित है, जिस के लिए राहुल गांधी को माफी मांग लेनी चाहिए थी, और चूंकि वे इस के लिए तैयार नहीं, अतः मुकदमा चलेगा – तो इस में एक बुनियादी गलती है। जिसे अवश्य सुधारा जाना चाहिए। क्योंकि अनेक हिन्दू-विरोधी प्रचारक इस के दुरुपयोग में लग चुके हैं, कि किसी संगठन सदस्य द्वारा किए गए काम की जिम्मेदारी संगठन पर सामूहिक रूप से आएगी ही!

किन्तु किसी संगठन का भूतपूर्व और वर्तमान सदस्य होने में गुणात्मक फर्क है। जिस प्रकार, आज माननीय केंद्रीय मंत्री एम. जे. अकबर या सुरेश प्रभु यदि कोई कार्य करें, तो उस का दोष या श्रेय भाजपा को जाएगा, न कि कांग्रेस या शिव सेना को, जिस में ये पहले थे। उसी प्रकार, आरएसएस के पूर्व-सदस्य द्वारा किए गए कार्य से इस संगठन को जोड़ना एक गलती है। पिछले पैंसठ साल से यह दुष्प्रचार राजनीतिक कारणों से होता रहा है। खुद राहुल गांधी का भाषण ठीक वही चीज थी। बल्कि, कोर्ट की सलाह के बावजूद उन का अड़ना भी साबित करता है कि वे इसे सामान्य नहीं, वरन राजनीतिक बयान मानते हैं, जिस से पीछे हटने में उन्हें परेशानी है। यदि सामान्य भूल रही होती, तो ‘सॉरी’ कहकर मामला खत्म करना आसान था।

इसलिए अब मामला दिलचस्प हो सकता है। गांधी-हत्या इस देश में आरएसएस-विरोधी राजनीति, जो मूलतः हिन्दू-विरोधी राजनीति की आड़ भर है, का एक बड़ा प्रचार मुद्दा रहा है। इसलिए, सभी राजनीतिक प्रचारक जानते हैं कि जब ‘भूतपूर्व’ विशेषण जोड़ कर बोला जाएगा, तो किसी संगठन का सदस्य बताने का वही अर्थ नहीं रहेगा, जो इसे छिपाने से जाता है।

कारण जो भी हो, मामले के विस्तार में जाने से ऐसे पहलू भी सामने आ सकते हैं, जिन्हें जान-बूझ कर दबाया गया है। इस में सब से बड़ी बात हैः हत्या का कारण – मोटिव – की। गांधीजी की हत्या का उल्लेख इस भोलेपन, या दुष्टता, से होता है मानो हत्या करने वाला पागल जुनूनी था। यह सच नहीं है। स्वयं हत्या के मुकदमे की सुनवाई करने वाले न्यायाधीश जी. डी. खोसला ने बिलकुल उलटा लिख छोड़ा है। वैसे भी, हत्या का कोई मुकदमा कभी भी मोटिव को दरकिनार कर नहीं तय होता। गांधीजी की हत्या की चर्चा में इस बिन्दु को जतन-पूर्वक क्यों छिपाया गया है?

इस प्रश्न की गंभीरता समझने की जरूरत है। उदाहरणार्थ, डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचार देखें। उन्होंने लिखा, ‘‘देश का विभाजन और गाँधीजी की हत्या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक पहलू की जांच किए बिना दूसरे की जांच करना समय की मूर्खतापूर्ण बर्बादी है।’’ यह कठोर कथन क्या दर्शाता है?

यही, कि वैसा न करके नाथूराम गोडसे को मात्र ‘जुनूनी हत्यारा’ या ‘हिन्दू सांप्रदायिक’ घोषित करने में मूर्खता की गई है। बल्कि राजनीतिक चतुराई! दुर्भाग्यवश, हमारे बौद्धिक परिदृश्य पर छाई रही है। जिस किसी को ‘गांधी के हत्यारे’ कहकर निंदित किया जाता है, जबकि विभाजन की विभीषिका से उस के संबंध की कभी जांच नहीं होती। क्योंकि जैसे ही यह जांच होगी, जिसे लोहिया ने जरूरी माना था, वैसे ही गोडसे का रूप भी बदल जाएगा। उस हत्या को गलत मानते हुए भी, उसे जुनूनी हत्यारा नहीं, बल्कि क्षुब्ध ‘भ्रमित देशभक्त’ कहना होगा। यानी, जो स्वयं गांधीजी चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और ऊधम सिंह जैसों को कहा करते थे।

इस समझ से गांधीवादी उसी तरह मतभेद रख सकते हैं, जैसे अंग्रेज लोग भगत सिंह और ऊधम सिंह पर रखते हैं। आखिर अंग्रेज तो भगत सिंह या ऊधम सिंह को अपना पूज्य नहीं मानते। लेकिन ये दोनों भारतवासियों के लिए गौरव हैं। उसी तरह, नाथूराम गोडसे के प्रति सहज या सम्मान भाव तक रखना स्वभाविक होगा, यदि लोहिया की बातों पर विचार किया जाए। तब गोडसे के प्रति भाव भी सही धरातल पर आएगा, आना चाहिए। गोडसे में कोई पागलपन नहीं, बल्कि देशभक्ति, राष्ट्रीय आत्मसम्मान और न्याय भावना थी, जो अदालत में दिए गए उस के शान्त, विस्तृत बयान से स्पष्ट होता है।

स्वयं लोहिया ने गांधीजी को विभाजन और उस से लाखों लोगों की मौत का सीधा जिम्मेदार माना है। ध्यान रहे, लोहिया गांधी के निकट सहयोगी थे। वे लिखते हैं कि विभाजन होने पर लाखों मरेंगे, यह गांधीजी जानते थे, फिर भी उन्होंने उसे नहीं रोका। बल्कि नेहरू की मदद में कांग्रेस कार्यसमिति को विभाजन स्वीकारने के लिए खुद तैयार किया-इसे लोहिया ने गाँधी का ‘अक्षम्य’ अपराध माना है। तब इस अपराध का क्या दंड होता? सब से अच्छा दंड उन्हें अपनी सहज मृत्यु तक जीवित रहने देना था। लेकिन यदि गोडसे ने ऐसा नहीं होने दिया, तो उस का कार्य भगत सिंह वाली श्रेणी में है, जिस में लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया गया था। किसी ने यदि लाखों हजारों निरीह भारतीयों की मौत का, उन के प्रति विश्वासघात का, बदला लिया; तो इसे सही रूप में तो रखा ही जाना चाहिए! अन्यथा, ऊपर डॉ. लोहिया और क्या कह रहे हैं?

लोहिया के इन शब्दों पर गंभीरता से विचार करें। विभाजन से ‘‘दंगे होंगे, ऐसा तो उन्होंने (गांधीजी ने) समझ लिया था, लेकिन जिस जबर्दस्त पैमाने पर दंगे वास्तव में हुए, उस का उन्हें अनुमान था, इस में मुझे शक है। अगर ऐसा था, तब तो उन का दोष अक्षम्य हो जाता है। दरअसल उन का दोष अभी भी अक्षम्य है। अगर बँटवारे के फलस्वरूप हुए हत्याकांड के विशाल पैमाने का अन्दाज उन्हें सचमुच था, तब तो उन के आचरण के लिए कुछ अन्य शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ेगा।’’

यह लोहिया ने सन्ा् 1967 में लिखा था, यानी किसी क्षणिक आवेग में नहीं। बीस वर्ष बाद, सोच-समझ कर, ठंढे दिमाग से। गांधी के प्रति सम्मान का ध्यान रखते हुए उन्होंने उन कटु शब्दों का उल्लेख नहीं किया, जो उन के मन में आए होंगे। किंतु वह शब्द छल, अज्ञान, हिन्दुओं-सिखों के प्रति विश्वासघात, बौद्धिक दिवालियापन, जैसे ही हो सकते हैं। इसलिए, जिस भावना के वशीभूत होकर गोडसे ने गांधीजी को दंडित किया, वह निस्संदेह उसी श्रेणी में है जिस में भगत सिंह और ऊधम सिंह रखे गये हैं। जिन्हें संदेह हो, वे गोडसे का वक्तव्य एक बार पढ़ लें।

गांधीजी की हत्या के लांछन से आरएसएस को तो मुक्त किया ही जाना चाहिए। किन्तु हमारे राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग ने गोडसे के साथ भी न्याय नहीं किया है। यह भी सामने आना चाहिए।

साभार- http://www.nayaindia.com/ से

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