Saturday, April 20, 2024
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पूरा मोहल्ला शामिल होता था धर्मवीर भारती जी की होली में

प्रेम की बात हो तो कैसे एक और प्रेमी युगल की बात याद न आए, जो काल और समय की सीमाएं तोड़ चुका है। 83 वर्षीय पुष्पा भारती जी आज भी साहित्य सहवास में शाकुंतलम के अपने घर में उसी तरह रहती हैं जैसे 68-69 से रहती आई हैं धर्मवीर भारती जी के साथ। भारती जी ने देह भले ही त्याग दी, पर उन्होंने ना पुष्पा जी को छोड़ा है ना पुष्पा जी ने उन्हें। इसलिए आज भी भरपूर सुहाग का मान उनके सौम्य, गौर, सुंदर मुख पर झलकता है। उनकी हर बात में, हर सांस में परिलक्षित होता है। चाहे दरवाजे के बाहर लगी धर्मवीर भारती, पुष्पा भारती की नेम प्लेट्स हों, चाहे पूरे घर में खासकर अध्ययन कक्ष में जगह-जगह लगी उनकी तस्वीरों, फाइलों और यादों का अहसास- उस घर में भारती जी आपको घूमते, ठहाके लगाते, त्रिभंगी छवि में खड़े मुस्कुराते, किस्से-कहानियां सुनाते नजर आयेंगे। ‘प्रेम गली अति सांकरी, या में दुइ न समाएं’ को चरितार्थ करते हुए वे पुष्पा जी में समा गये हैं। उन्हीं की सांसों में स्पंदित होते हैं, उन्हीं के होठों से बोलते हैं।

होली के बारे में पुष्पा जी ने बहुत मजेदार बातें बताईं। वे पांच भाई और तीन बहन हैं, जिनमें पुष्पा जी और उनसे छोटा भाई सबसे शैतान और सक्रिय थे। होली से पहले दोनों भाई-बहन लखनऊ के घर की गली में बाल्टी ले कर निकल पड़ते थे गाय का गोबर बटोरने। बाल्टी भर जाती तो उसे अपने बहुत ऊंचे मकान की छत पर पलट देते। फिर उसे खूब चिकना करके बनती पांच भाइयों के नाम की पांच ढाल और पांच तलवारें और बीच में छेद वाले बड़े जैसी गोलाकार आकृतियां। इन्हें तेज धूप में सूखने दिया जाता। फिर सुतली में पिरो कर क्रम से छोटी होती हुई बहुत सी मालाएं बनतीं और होली की रात मुहल्ले की उस सबसे ऊंची छत पर उनका होलिका दहन होता।

पांचों भाई उस आग में गन्ने भूनते और तीनों बहनें हरे चने के गुच्छे। आस-पड़ोस के लोग भी उस होलिका का मजा लेने आ जुटते। फिर खानपान, पकवान की बहार तो लाजिमी थी ही।

इतनी मजेदार होलियां बनाने के बाद जब उनका भारती जी से विवाह हुआ तो होली का स्वरूप बहुत भिन्न हो गया। भारती जी की मां खांटी आर्य समाजी थीं। वे बेहद सादगी से त्योहार मनाने में विश्वास करती थीं। वैसे भी पश्चिमी और पूर्वी उत्तर प्रदेश के रीति-रिवाजों में काफी अंतर है। यही चलता रहता शायद, पर जब भारती जी पुष्पा जी को ले कर मुंबई के साहित्य सहवास के अपने घर में रहने आये तो उन्हें लगा कि पुष्पा जी को शौक है तो हम खुल कर होली मनायेंगे और उन्होंने घर में ही होली नहीं मनायी, आस-पास रहने वाले साहित्यकार-पत्रकार मित्रों को भी रंग में भिगोना शुरू कर दिया। पुष्पा जी बताती हैं कि भारती जी ने कहा चलो बाजार चल कर बड़ा सा हंडा ले आते हैं। अभी उसमें रंग घोलना,बाद में पानी भर कर रखने के काम आयेगा। साहित्य सहवास पर शशि भूषण बाजपेयी, उनकी बच्चियां रेखा, सुलेखा और उनकी मम्मी और अन्य मित्र भी आ जाते थे। श्रीमती बाजपेयी गाती भी बहुत अच्छा थीं, लोकनृत्य भी बढि़या करती थीं।

साहित्य सहवास में रंग जमा कर सब पत्रकार नगर होते हुए आगे बढ़ते थे। भारती जी की जेबों में रंग-गुलाल तो रहता ही था। एक खास रंग वह भी होता था, जिसे सिर में डाल दो तो वह धोने पर छूटने के बजाय रंग देने लगता है। इसके अलावा उनकी जेब में रहती थी सिल्वर कलर की वह पुड़िया जिसे वह अपनी खास भाभियों के अलावा चित्रा मुद्गल को लगाया करते थे। सिल्वर कलर की विशेषता यह है कि उसे छुड़ाना बेहद मुश्किल होता है। जो जानकार चेहरे पर नारियल तेल लगाये रहते हैं, वही छुड़ा पाते हैं। वरना तो निकालते-निकालते दम निकलने लगता है। यह मंडली जिसमें लगातार लोग जुड़ते जाते थे, अंत में ठहरती थी जा कर फिल्म लेखन से जुड़े शब्द कुमार के घर पर। यहां खान के अलावा पान की व्यवस्था भी होती थी। जिन्हें उसमें रुचि नहीं थी उनके लिए श्रीमती शब्द कुमार के बनाये कांजी वड़े होते थे, जो लगभग सभी सराह कर खाते थे।

इतना सब होने पर भी भारती जी को संतोष नहीं हुआ। वे चाहते थे कि इस आनंद में साहित्य सहवास का हर व्यक्ति भरपूर भाग ले। इसलिए उन्होंने पुष्पा जी से कहा अगले साल से लान में एक मेज लगवाओ। उस पर थाल भर कर गुलाल हो। एक थाल गुझिया और एक थाल बेसन के सेव। इस तरह खुले में आयोजन होने से जो चाहे शामिल होने को स्वतंत्र होगा। अगले साल से यह व्यवस्था हुई भी, पर फिर भी यह उत्सव बना रहा मुख्यत: उत्तर भारतीयों का ही। बाकी लोग देखते, खुश होते, मगर शामिल नहीं होते। पर भारती जी तो सबको शामिल करना चाहते थे।

उन्होंने कुछ और सोचा और निरुपमा सेवती से कहा कि मेरा मन है कि आप इस बार गोपीकृष्ण को आमंत्रित करें। निरुपमा जी ने कहा, ‘डॉक्टर साहब आप बुलाएं, तब भी वह अवश्य आएंगे।’ भारती जी ने कहा, ‘मैं उन्हें व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता। मेरा बुलाना ठीक नहीं होगा। आप ही बुलाइए।’ खैर, निरुपमा जी ने गोपीकृष्ण को बुलाया और वे आए। पुष्पा जी बताती हैं, ‘मैदान में एक ओर होली चल रही थी और एक ओर गोपीकृष्ण और निरुपमा का नृत्य। ऐसा विलक्षण दृश्य था कि सारा साहित्य सहवास मंत्रमुग्ध होकर उसका आनंद ले रहा था। रस में भीगता, डूबता उतराता क्षण। ऐसा अद्भुत आनंद, रसरंग भाग्यशालियों को ही मिल पाता है, यूं कहने को तो होली लोग खेल ही लेते हैं।

पुष्पा जी के चेहरे पर भारती जी के होली प्रेम को याद करते हुए वही गुलाबी आभा है, जो शायद कभी उनके गुलाल लगाने से आती होगी। इस रंग स्मरण के अंतरंग क्षण में उन्हें आनंदमग्न छोड़ विदा लेती हूं। आश्वस्त कि होली कहीं गई नहीं है। इन यादों में, स्मृतियों में अभी भी रस फुहार छोड़ रही है। हम सबको भिगो रही है।

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