Friday, March 29, 2024
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हम काले अंग्रेज हो गए, मगर दक्षिण कोरिया में जीवित है भारतीय संस्कृति

रामजन्मभूमि अयोध्या- जिसका नाम लेने भर से भारत के करोड़ों लोग आस्था के सागर में प्रवाहित हो जाते है। श्रद्धालुओं के मन के भीतर शौर्य, मर्यादा, शालीनता और आत्मसम्मान रूपी तरंगों का संचार होने लगता है। वह नगर- जिसका युगों-युगों से इस भूखंड पर महत्वपूर्ण स्थान रहा है, उसकी सांस्कृतिक जड़े सैकड़ों वर्ष पहले तक, विश्व में कहां तक फैली थी, उसका खुलासा भारत-दक्षिण कोरिया के बीच हुए एक हालिया समझौते से हो जाता है।

गत दिनों भारत-दक्षिण कोरिया ने मिलकर कोरियाई रानी हु ह्वांग ओक का भव्य स्मारक अयोध्या के सरयू तट पर बनाने को लेकर एमओयू पर हस्ताक्षर किया है। इस संधि की जड़े दो हजार वर्ष पुराने उस ऐतिहासिक घटनाक्रम में मिलती है, जिसने भारत के सांस्कृतिक विरासत को अब नए सिरे से परिभाषित करने पर बल दिया है।

दक्षिण कोरिया की कुल जनसंख्या पांच करोड़ से अधिक है, जिसमें 60 लाख लोग स्वयं को उस कारक गोत्र का वंशज मानते है, जिसकी महान रानी हु ह्वांग ओक अयुता (अयोध्या) की राजकुमारी थी। कारक वंश के राजकुमार किम सुरो से विवाह करने से पूर्व उनका नाम सुरीरत्ना था। तेरहवीं सदी में मंडारिन चीनी भाषा लिखे गए कोरियाई ग्रंथ “सम्यूकयूसा” में कहा गया है कि ईश्वर ने अयोध्या की राजकुमारी के पिता को स्वप्न में आकर निर्देश दिया था कि वह अपनी बेटी को सुरो के राजकुमार से विवाह करने के लिए किमहये शहर भेजें, जिसके बाद वह 48 ईस्वी में अयोध्या से कोरिया पानी के रास्ते गई थीं और उन्हे दो माह का समय लगा।

यूं तो कोरियाई इतिहास में अनेकों महारानियां का उल्लेख है, किंतु उनमें सुरीरत्ना को सर्वाधिक आदरणीय, शुभ और पवित्र माना गया है। इस वंश के लोगों ने उन पत्थरों को भी संभाल कर रखा है, जिनके बारे में मान्यता है कि सुरीरत्ना अपनी समुद्र यात्रा के दौरान नाव को संतुलित रखने हेतु साथ लाई थीं। दावे के अनुसार, किमहये शहर में उनकी कब्र पर लगा पत्थर भी अयोध्या का है।

दो हजार वर्ष पहले राजकुमारी सुरीरत्ना अपने साथ अयोध्या की जिस सांस्कृतिक डोर को अपने साथ कोरिया ले गई थी, उसी से बंधे बड़ी संख्या में लोग अपनी जड़ों को तलाशने प्रतिवर्ष अयोध्या आते हैं। द.कोरिया के पूर्व राष्ट्रपति ली माइंग बक, किम डे जुंग, किम यंग सैम और पूर्व प्रधानमंत्री किम जोंग पिल ने भी अपना वंशज इसी शाही जोड़े को माना है। अयोध्या के पूर्व राजपरिवार के सदस्य बिमलेंद्र मोहनप्रताप मिश्र भी 1997 से किमहये शहर की यात्रा कर रहे हैं। प्रारंभ में उन्हे रानी सुरीरत्ना के अयोध्या से संबंध होने पर संदेह हुआ- क्योंकि थाईलैंड में भी अयोध्या नामक एक प्रांत है, जिसे “अयुत्थया” नाम से जाना जाता है। किंतु कोरियाई विद्वान-इतिहासकार अंत तक अपने अध्ययनों के बल पर आश्वस्त दिखे कि कोरिया की महान रानी दो हजार वर्ष पूर्व श्रीराम की नगरी अयोध्या की ही राजकुमारी थी।

भारत की सांस्कृतिक विरासत कितनी कड़ियों में बिखरी है, जिससे हम अनभिज्ञ भी है- कोरियाई रानी सुरीरत्ना संबंधी हालिया घटनाक्रम उसका जीवंत उदाहरण है। समय आ गया है कि उन कड़ियों को एकसूत्र में पिरोया जाए। आज विश्व की कुल आबादी 7.6 अरब है, जिसमें बौद्ध अनुयायियों की संख्या 7 प्रतिशत अर्थात् 52 करोड़ है, जिसमें से आधे बौद्ध चीन में बसते है। क्या यह सत्य नहीं बौद्ध मत का उद्गम स्थान प्राचीन भारत था और इसी धरती से भगवान गौतमबुद्ध ने विश्व को संदेश दिया? भगवान बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी (नेपाल) है और चार प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल- बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर व दीक्षाभूमि भारत में स्थित है। बौद्ध अनुयायियों की संख्या देश में चाहे एक करोड़ के लगभग हो, किंतु करोड़ों हिंदू उन्हे भगवान विष्णु का अवतार मानते है और उनके प्रति श्रद्धा का भाव रखते है।

आज हम भारत के जिस मानचित्र को देख रहे है, सैकड़ों वर्ष पहले उसका सांस्कृतिक विस्तार संपूर्ण दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया तक था, जिनपर आज भी रामायण और हिंदू संस्कृति का गहरा प्रभाव है। कुछ वर्ष पहले मैं कंबोडिया की यात्रा पर था, जहां मुझे भगवान विष्णु का 162 एकड़ में फैला विशाल अंकोरवाट मंदिर में जाने सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यहां के अधिकतर निवासी बौद्ध है, फिर भी इस मंदिर के विभिन्न स्थानों पर पूजा करते देखे जा सकते है। वही जावा स्थित प्रमबनन मंदिर- शिव, विष्णु और ब्रह्माजी को समर्पित है। प्राचीनकाल में यहां के अधिकतर क्षेत्रों पर हिंदू राजाओं का शासन था।

थाईलैंड में वैदिक संस्कृति का मूर्त रूप उसकी राजधानी बैंकॉक के हवाइअड्डे पर दृष्चिगोचर होता है। इस एयरपोर्ट का आधिकारिक नाम सुवर्णभूमि अंतरराष्ट्रीय विमानपत्तन है, जहां हिंदू ग्रंथों में उल्लेखित “सागर मंथन” की विशालकाय मूर्ति स्थापित है, जिसमें मंदार पर्वत को मथनी बनाकर वासुकी-नागराज के माध्यम से देवों और असुरों द्वारा मथते हुए दिखाया जा रहा है। सदियों से थाईलैंड के राजपरिवार पर हिंदुत्व का प्रभाव रहा है। वहां का राष्ट्रीय ग्रंथ रामायण है, जिसे थाई भाषा में “रामकियेन” कहते हैं। इसी पर आधारित नृत्य-नाटक का प्रदर्शन प्रतिदिन होता है, जो भारत में होने वाली वार्षिक रामलीला का स्मरण कराता है।

मलेशिया की कुल आबादी में 60 प्रतिशत से अधिक मुसलमान है और यहां के मूल जातीय समूह, जिनकी संख्या 70 प्रतिशत है- उन्हे भूमिपुत्र कहा जाता है, जोकि संस्कृत भाषा से लिया गया है। सात प्रतिशत हिंदू आबादी होने के बाद भी यहां मंत्री पद की गोपनीयता की शपथ लेते समय सर्वप्रथम “उरुसान सेरी पादुका बेगिंदा”- अर्थात् “श्रीराम के पादुका की आज्ञा से” कहा जाता है। रामायण आधारित नृत्य-नाटिका का मंचन मलेशिया के उत्तर-पूर्वी प्रांतों में लोकप्रिय है। क्वालालम्पुर से 13 किलोमीटर दूर बटु की गुफा में भगवान कार्तिकेय की मूर्ति स्थापित है। रामली इब्राहिम और चंद्रभानु- दोनों ही भरतनाट्यम के ख्याति प्राप्त मलेशियाई कलाकार है, जो अपने प्रत्येक सार्वजनिक कार्यक्रम से पहले हिंदू परंपराओं के अनुरूप, नटराज शिव की पूजा और उनके समक्ष साष्टांग प्रणाम करते है, जिसका कई कट्टर इस्लामी संगठन विरोध भी कर चुके है। इस देश की नई राजधानी का नाम पुत्रजया है, वह भी संस्कृत भाषा में है।

संख्याबल में इंडोनेशिया आज विश्व का सबसे बड़ा इस्लामी बहुल राष्ट्र है, किंतु उसे अपनी प्राचीन हिंदू पहचान पर गर्व है। वर्तमान समय में दो प्रतिशत हिंदू आबादी होने के बाद भी यहां हजारों छोटे-बड़े मंदिर है। भारत की भांति यहां भी राम, कृष्ण, सीता, विष्णु, लक्ष्मी, वीणा, सावित्री, पार्वती आदि नाम प्रचलित है। विभिन्न स्थानों के नाम संस्कृत भाषा में रखे गए है। अधिकतर विश्वविद्यालयों में गणेश और मां सरस्वती की मूर्तियां स्थापित की गई है। संसद भवन के ठीक सामने गीता-उपदेश देते और आठ घोड़ों के रथ पर सवार श्रीकृष्ण की अत्यंत विहंगम मूर्ति लगाई गई है। जकार्ता में अर्जुन विवाह के नाम की विशाल प्रतिमा है। इस देश की कुछ करेंसी पर भगवान गणेश के चित्र बने है। भगवान विष्णु के वाहन कहे जाने वाले गरुड़ के नाम पर ही राष्ट्रीय एयरलाइंस का नाम- गरुड़ एयरलाइंस है। गणेशजी, कृष्णजी और हनुमानजी के साथ-साथ पांडवों के नाम पर डाक टिकट भी जारी हो चुके हैं। बाली द्वीप में प्राचीन हिंदू संस्कृति आज भी जीवित अवस्था में है। इस द्वीप का नाम वैदिककाल में राजा बाली के नाम पर रखा गया है।

वियतनाम पर भी भारतीय संस्कृति का गहरा प्रभाव है, यहां दानंग के चाम संग्रहालय में भगवान गणेश की मूर्ति स्थापित है और देश में कई प्राचीन हिंदू-बौद्ध मंदिर है। भारतीय प्रभाव वियतनामी लोकगीत, कला और दर्शन में आज भी मौजूद हैं। इसके अतरिक्त- नेपाल, तिब्बत, भूटान, म्यांमार और श्रीलंका में स्पष्ट रूप से भारतीय संस्कृति की छाप स्पष्ट रूप से दिखती है।

विडंबना है कि भारत का एक बड़ा भाग अपनी इन्हीं सांस्कृतिक और प्राचीन जड़ों से अनभिज्ञ है और कुछ में तो इनके प्रति घृणा का भाव भी घर कर चुका है। यह सब एकाएक नहीं हुआ। जब 712 में मुस्लिम आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम ने मजहबी अभियान की शुरूआत की, तब उनके बाद भारत आए अनेकों इस्लामी हमलावरों ने लूटपाट के बाद सैकड़ों मंदिरों को तोड़ा, मान-बिंदुओं को जमींदोज कर तलवार के बल पर स्थानीय लोगों का बलात् मतांतरण किया, जिससे भारत का सांस्कृतिक मानचित्र सिकुड़ने लगा- जिसमें कालांतर में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश का मानचित्र सामने आया।

वास्तव में, इस घाव को कैंसर रूपी फोड़ा सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगालियों के साथ आए रोमन कैथोलिक चर्च और ब्रितानियों ने बनाया। अंग्रेजों ने अपनी औपनिवेशिक मानसिकता और प्रपंचों (साहित्य सहित) द्वारा भारतीय संस्कृति, परंपराओं और उसकी कड़ियों को विकृत कर सामाजिक समरसता का ह्रास कर दिया। दुख इस बात का है कि स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी उस चिंतन का दोहन किया जा रहा है।

(बलवीर पुंज भारतीय संस्कृित और मूल्यों से जुड़े विषयों के अध्येता हैं और वरिष्ठ लेखक व पत्रकार हैं)

साभार- https://www.nayaindia.com से

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