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सत्तर अस्सी के दशक की गाँव-कस्बे वाली होली
कहाँ गईं वे मस्तियाँ, कहाँ गई वह मौज । वे केशर की क्यारियाँ, गोबर वाले हौज ॥ गोबर वाले हौज बीच डुबकी लगवाना । कुर्ते पर ‘पागल’ वाली तख्ती लटकाना । याद आ रहा है हम जो करते थे अक्सर । बीच सड़क पर एक रुपैया कील ठोंक कर ॥ आओ दिखलाएँ तुम्हें, सीन और […]
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जहाँ रहो हो वहाँ रौशनी लुटाओ तो …
जहाँ रहो हो वहाँ रौशनी लुटाओ तो । चिराग़ हो तो ज़रा जम के जगमगाओ तो ।।
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भाड़ में जाय ऐसा इनक़लाब
ऐसे ही किसी एक दिन वह रोज़ की तरह बे-तमीज़ी पर उतारू था। उस के पिता उसे बार-बार टोक रहे थे। वह अनसुना करता जा रहा था। तभी अचानक पड़ोस वाले डेविड साब की वाइफ उस
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एक विशुद्ध हिन्दीगजल
परावर्तन - प्रत्यावर्तन, सम्पादन करते हुए मूलस्वरूप को प्रतिष्ठापित करना शब्द-सन्धानी - लफ़्फ़ाज़, बकलोल;
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चिराग़ बन के किसी तौर जगमगाओ तो ..
तुम्हें पसंद नहीं थे जो दूसरों के रंग । उन्हीं में डूबे पड़े हो स्वयं, बताओ तो ।।
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दिया है बस पुरातन को नवीन आकार रघुनन्दन ।।
सुनो प्राणों से भी प्यारे, अरज करते हैं हम सारे । हमारी छोटी सी सेवा करो स्वीकार रघुनन्दन ।।
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एक राष्ट्र एक चुनाव – यानि राष्ट्रीय समय की बचत
वर्तमान में हम लोग तक़रीबन आधा राष्ट्रीय-समय चुनावों के हवन-कुण्ड में आहुति बना कर झोंक रहे हैं। अगर इस समय-गणना में सर्वज्ञात छुट्टियाँ एवं टाइम-पास आदि भी जोड़ लिये जायेँ तो शायद हम लोग तीन चौथाई यानि पचहत्तर फीसदी राष्ट्रीय-समय बर्बाद कर रहे हैं।