Friday, March 29, 2024
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पागल मन फिर बुन रहा सपनों का संसार

सामान्य से सामान्य लोग चाहे वो अमीर हो या गरीब, शहरी हो या देहाती, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, सभी को कुछ याद हो या न हो कबीर के दोहे जरूर याद होंगे. ये दोहे आज भी समाज में बड़े पैमाने पर बोले और गाए जाते हैं और भविष्य में भी गाए जाते रहेंगे.
पिछले कुछ दशकों से हिंदी साहित्य में विभिन्न विधाओं में दोहे पर बहुत कम कार्य हुआ है. लेकिन गोविन्द सेन ने अपनी नवीन पुस्तक ‘खोलो मन के द्वार’ के माध्यम से नए विचार, बोध, शिल्प, भाषा, बिम्ब, प्रतिबिम्ब, नई शैली और नए सौन्दर्यबोध का विकास किया है.
भारत में अधिकांश बच्चे पढ़ने, खेलने की उम्र में मेहनत मजदूरी करने को मजबूर हैं या उनका बचपन किसी न किसी बोझ से दबा हुआ है. भारत का भविष्य रोता, बिलखता बचपन न जाने कितनी ही विसंगतियों, विकृतियों सीमाओं के कारण अपनी प्राकृतिक मुस्कान खो बैठा है. लेखक इस चुप्पी, बेचैनी, उदासियों को दूर करने का आवाहन करता है-
बौने हैं सभी बौने हैं भगवान
दुनिया में सबसे बड़ी बचपन की मुस्कान
झरने, नदिया, घाटियाँ, हरियाली के धान
मुक्त हस्त से बाटिये फूल, हंसी और मुस्कान
गोविन्द सेन ने आधुनिक सरकार की नब्ज को बहुत ही गहराई से पकड़ कर उसको तार-तार किया है. सत्ता चाहे किसी की भी हो, जनता हमेशा पिसती है और उसके नेता सत्ता की मद में चूर होते हैं-
सत्ता सुन्दर है बड़ी सत्ता है मगरूर
सत्ता पा होते सभी इसकी मद में चूर
सत्ता अब करने लगी, हत्यारों से प्रीत, आजकल भय भी है भयभीत
दूसरी तरफ सत्ताधारियों को भी ललकारा है-
रे मूरख! भूल मत सत्ता के दिन चार
सच है अपना झोपड़ा भ्रम राजदरबार
भारतीय नेताओं ने रंग-ढंग, चाल-चलन सब नये जमाने के अनुसार हो गए हैं. राजनीति अब सेवा नहीं मेवा है जिसे लूटने के लिए शरीफ लोगों की नहीं, दुर्जन व्यक्तियों की आवश्यकता होती है-
भीतर बाहर हर तरफ मची हुए है लूट
लोकतंत्र देने लगा दुर्जन को हर छूट
पैसा उनका ज्ञान है पैसा उनका धर्म
लज्ज्ति होते नहीं करके काले कर्म
लेखक ने पाठकों को उन लोगों की पहचान कराने की कोशिश की है जो थोड़ा सा कार्य करके देशहित में न्योछावर बताकर अमर हो जाने की कोशिश में लगे रहते हैं.
छोटी सी ऊँगली कटा बनते हैं शहीद
ऐसे लोगों से हमे नहीं उम्मीद
इसीलिए लेखक पाठकों को आलोचनात्मक दृष्टिकोण भी प्रदान करने की कोशिश करता है-
दृष्टिहीन करने लगे दृष्टियों का उल्लेख
आँखे अपनी खोल कर देख सके तो देख
सत्ताधारी, नेता लोभी व मुनाफा खोर मनुष्य को चारो तरफ से लूटने के लिए हर समय अपना नया पैंतरा और नया तरीका इजाद कर रहा है. लेखक गोविन्द सेन ने अपनी संवेदना और लोक दृष्टि से पाठक की चेतना को विकसित करने में सफल कोशिश की है-
अच्छा मौका देख कर देगी आघात…
नये दौर की मकड़िया ऐसी चलती चाल
नित्य नई तकनीक से बुनती हैं वे जाल
लेखक सिर्फ उदासियों की वाहवाही बयानगी मात्र नहीं करता बल्कि उत्पीडन और बेदिली अदब के दौर में भी लेखक ने हार नहीं मानी-
पत्थर दिल इंसान ने तोड़े स्वप्न हजार
पागल मन फिर बुन सपनों का संसार
चाहे कितना काटिये बढ़ जाते हर बार
नाखूनों ने आज तक कब मानी है हार
सत्ता का रंग बदलते ही सबसे पहले सत्ता सुख वाली मीडिया का रुख बदल जाता है. मीडिया सत्ता के रंग में पागल हाथी की तरह मदमस्त होकर जनता की भावनाओं को रौंदता हुआ आगे बढ़ता है. लेखक उनके मुनाफे की हवस को नंगा करता है-
बेच रहे हैं सनसनी सारे चैनल आज
तेज मसाला डालते भूरे धोखेबाज …
रफू किया है इस तरह गायब हैं अब छेद
पकड़ न पायेगी आँख कभी छेद का भेद
वादे हैं वादों का क्या. सत्ता वादा करती है और मुकर जाती है. मनुष्य फिर वही भगवान के दर पर चला जाता है जहाँ वह पहले भी लुटता आया है. लेखक बड़े ही साहस के साथ अपने समय और भगवान को चुनौती देता है-
कठिन दिनों से नित्य ही जूझ रहा इंसान
अच्छे दिन आखिर कहाँ भटके हैं भगवान
मंदिर-मस्जिद से जरा बाहर आ भगवान
गाजर मूली की तरह कटे यहाँ इंसान
लेखक को अपना पक्ष चुनना पड़ता है इसीलिए अन्य लेखकों को भी गोविन्द सेन कुछ आग्रह करते दिखाई देते हैं-
धनपतियों की शान में लिखे आपने लेख
धनहीनों की जिन्दगी अँधियारा भी देख
गोविन्द सेन हमारे दौर के ऐसे लेखक हैं जिन्होंने रहीम, बिहारी, रसखान, कबीर इत्यादि की परम्परा को आगे बढ़ाने का सतत एवं सजग प्रयास किया है. उनके दोहे भाव, भाषा, बिम्ब एवं शैली नवीनता का अहसास कराती है. नव सृजन को एक नई पहचान दिलाने की अपनी यात्रा को जारी रखती है.

खोलो मन के द्वार : गोविन्द सेन | प्रकाशक : बोधि प्रकाशन | कीमत 60 रुपये

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