Friday, April 19, 2024
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‘नरसीजी रो माहेरा’ और उसका साँवरा सेठ

राजस्थान-गुजरात में प्रचलित ‘नरसीजी रो माहेरो’ का साँवरा सेठ लोक द्वारा अपने सपनों कामनाओं और ज़रूरतों के अनुसार गढ़ा गया भगवान कृष्ण का लोकप्रिय मनुष्य रूप है. कृष्ण के लोक और शास्त्र में बालक, योद्धा, प्रेमी, परमेश्वर, मुक्तिदाता आदि कई रूप मिलते हैं, लेकिन उनके इस रूप से ग्रामीण जनसाधाराण का अपनापा सबसे अधिक है. यह कृष्ण का ऐसा रूप है, जो मानवीय संबंधों में इस तरह गुँथा-बँधा हुआ है कि यह लोक को अपना घर-परिवारी और कुटुम्बी लगता है.

ख़ास बात यह है कि कृष्ण के इस रूप की दुनियादारी में जड़ें इतनी गहरी और मजबूत हैं कि यह जनसाधारण को अपने संबंधों के दायरे से बाहर का नहीं लगता. यह लोक की पहुँच में है, उसके पास और उसके अपने जैसा है. यह बहन नानीबाई का दुनियादार भाई है और उसके सास-ससुर के लिए जात-बिरादरी में मान-सम्मान के उठने-बैठने वाला समधी है. यों कृष्ण के इस रूप पर फ़िल्म भी बनी, कई वीडियो-ओडियो कैसेट्स भी आए, लेकिन गंभीर विमर्श में इसकी चर्चा बहुत कम हुई.

कृष्ण का यह रूप बहुत अद्भुत है- यह लोक द्वारा अपनी इच्छा और ज़रूरत के अनुसार अपने जैसा दुनियादार मनुष्य भगवान गढ़ने और उसको बराबर माँजते-बदलते रहने का सबसे जीवंत उदाहरण है.

1.
यह रचना राजस्थान-गुजरात के लोक में भक्त नरसी मेहता (1414-1481 ई.) के संबंध में प्रचलित एक जनश्रुति का कथा विस्तार है. दरअसल नरसी मेहता उन अगुआ मध्यकालीन संत-भक्तों में से हैं, जिनके जीवन और रचनाओं से उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन की पहचान बनती है. उनके भजनों ने गुजरात-महाराष्ट्र सहित तमाम उत्तर भारत के जनसाधारण में अपार लोकप्रियता अर्जित की. महात्मा गांधी ने उनके भजन वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाणे रे को अपने विचार और विश्वास की प्रतिनिधि रचना की तरह आजीवन इस्तेमाल किया.

नरसी मेहता इतने लोकप्रिय हुए कि उनके जीवन के मोड़-पड़ावों को लेकर भक्त समाज और जनसाधारण में कई जनश्रुतियाँ चल निकलीं. ‘माहेरा’ उनके जीवन से संबंधित ऐसी ही एक जनश्रुति पर निर्भर लोक रचना है. यह रचना सही मायने में लोक रचना है. इसके रचनाकार और समय के संबंध में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है. यह ऐसी रचना है, जिस पर सैकड़ों वर्षों और कई हाथों की छाप साफ़ दिखायी पड़ती है.

ऐसा प्रसिद्ध है कि भक्त नरसी मेहता की बेटी नानीबाई (कुँवरबाई) का माहेरा भगवान कृष्ण ने भरा. कथा के विस्तार में जाने से पहले ‘माहेरा’ क्या है, यह समझना ज़रूरी है. राजस्थान-गुजरात सहित उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में माहेरा का चलन है. माहेरा विवाह के अवसर पर वधू के ननिहाल, मतलब वधू की माँ के पीहर से मामा-नाना द्वारा लाए जानेवाले वस्त्राभूषण, नकद धनराशि, मिष्ठान्न आदि को कहते हैं. माहेरा के लिए मामेरु, मोसाळ, मायरो आदि शब्द भी चलन में हैं. यह एक दायित्व है, जिसका पीहर पक्ष को अपनी सामर्थ्य के अनुसार निर्वाह करना होता है. ससुराल में बहन-बेटी का मान-सम्मान इस माहरे पर निर्भर करता है. माहेरे में आने वाले वस्त्रादि ससुराल के सभी परिजनों, उनसे संबंधित लोगों के लिए होते हैं. माहेरा लोकरीति के अनुसार नहीं करने या के कम करने पर अपयश फैलता है और बहन-बेटी का अपने ससुराल में उपहास होता है.

गुजरात के कुछ जाति-समाजों में सीमंत उत्सव, मतलब बेटी के गर्भधारण के समय भी माहेरा भरा जाता है, इसलिए इसके कुछ रूपांतरणों में नानीबाई के सीमंत उत्सव का प्रसंग भी है.

2.
कथा यह है कि जूनागढ़ गुजरात के नरसी मेहता धनी होने के साथ शिव भक्त भी थे. उनके यहाँ गाय-बैलों, हाथी-घोड़ों और रथ-पालकियों के साथ कई सेवक और दास-दासी थे. लक्ष्मी की उन पर कृपा थी- वे अरबपति थी और गहने रखकर धन उधार देते थे. उनके जहाज़ विदेशों में जाते थे. यह सब उनके परिवार में परंपरा से था और इसमें कभी कोई कमी नहीं आई. नरसी के पहले विवाह से एक पुत्र और एक पुत्री हुई और बत्तीस वर्ष को अवस्था में उसकी पत्नी का निधन हो गया. नरसी ने अपनी पुत्री का विवाह धूमधाम से अंजार में श्रीरंग के यहाँ किया. उनका भंडार भरा हुआ था. साधु-भक्तों का उनके यहाँ सत्कार होता था. एक दिन साधुओं की एक मंडली आई. भजन-कीर्तन हुआ. नरसी ने चित्त देकर सुना, तो उनको ज्ञान हो गया. वैराग्य की ऐसी लहर उठी कि उन्होंने अपनी तमाम धन-संपदा दान कर दी और भक्त का वेश धारण कर लिया.

भगवान शंकर ने एक दिन प्रसन्न होकर कहा कि तुम्हें क्या चाहिए, तो नरसी ने इच्छा व्यक्त की कि “वे राधा-कृष्ण से मिलना चाहते हैं.” भगवान ने उनकी इच्छा पूरी कर दी.

अंजार निवासी श्रीरंग की बहू और नरसी की पुत्री नानीबाई की बेटी का विवाह तय हुआ. श्रीरंग ने समस्त बिरादरी के साथ अपने समधी नरसी को भी निमंत्रित किया. नरसी साधु और निर्धन थे. वे मुंडे हुए सिर के साथ शंख बजाते हुए आएंगे और इससे परिवार की हँसी होगी, इसलिए षड्यंत्र किया गया कि वे आएँ ही नहीं. नानीबाई की सास, ननद, जेठानी आदि ने एकत्र होकर निर्धन नरसी से माहरे में अपेक्षित दुर्लभ वस्त्राभूषणों की लंबी सूची पत्र में लिखी. नानीबाई ने पत्रवाहक ब्राह्मण से कहा कि

“पिता से कहना कि मायरे के बिना मत आना और आना हो, तो ख़र्चा भरपूर लेकर आना, नहीं तो यहाँ बहुत हँसी होगी.”

ब्राह्मण पत्र लेकर रवाना हुआ और कुछ दूर चलने के बाद ही वह एक उद्यान में खूँटी तानकर सो गया. आकाश से भगवान का विमान आया और उसने उसको क्षण भर में ही जूनागढ़ पहुँचा दिया. नरसी के घर पहुँचकर ब्राह्मण ने भोजन के लिए सामग्री माँगी, लेकिन निर्धन नरसी के घर में कुछ भी नहीं था. नरसी पत्रिका लेकर पढ़ने लगे, तो उनकी दूसरी पत्नी ने उपहास किया कि “घर में कुछ नहीं है और तुम निमंत्रण स्वीकार करने के लिए तत्पर हो.” नरसी ने कृष्ण से प्रार्थना की कि “समधी के यहाँ से निमंत्रण आया है, दोहित्री का विवाह है, मुझे तो कोई नहीं जानता, लेकिन आपको सब जानते हैं, इसलिए इसकी चिंता आपको ही करनी है.” आकाशवाणी हुई कि “क्यों चिंता करते हो, भगवान सबकी सहायता करते हैं.”

नरसी ने मायरा ले जाने को तैयारी शुरू की. उसने लोगों से गाड़ी माँगी, तो उन्होंने कहा कि उसके पहिए और फाटक टूटे हुए हैं. वह बैल माँगने गया, तो उत्तर मिला कि उनकी नाथें खुली हुई हैं और वे बैठे हुए हैं. उसे बैल मिले, तो वे बहुत बूढ़े और कमज़ोर थे. उसने लोगों से साथ चलने का निवेदन किया, तो लोगों ने कहा कि उनके घर में बहुत काम है. उसने वस्त्र माँगे, तो नहीं मिले. नरसी ने लंबी चोटी और तूंबी रखने वाले अपने सिर मूंडे हुए साथी साधुओं को एकत्र किया. उसने मायरे के लिए अपने पास उपलब्ध तूंबियाँ, चंदन, टोपियाँ, मालाएँ आदि साथ लीं और सबको गाड़ी में भरकर इनके बीच मदनगोपाल भगवान श्रीकृष्ण को बिठाया. नरसी ने जब प्रस्थान किया, तो परिजन उसका उपहास करने लगे कि

“देखो, इसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है, फिर भी यह माहेरा लेकर जा रहा है.”

नरसी अपनी जर्जर गाड़ी और बूढ़े बैलो के साथ जा रहे थे कि मार्ग में हाथ में बसूला और कंधे पर करोत लेकर भगवान कृष्ण किसना सुथार के रूप में प्रकट हूए. उन्होंने गाड़ी सुधारी और उसमें सोना-चाँदी जड़कर उसके बैलों को युवा कर दिया. उन्होंने नरसी मेहता का हाली (नौकर) बनकर गाड़ी के बैलों को हाँका और सबको क्षण भर में अंजार पहुँचा दिया.

सूर्योदय के साथ ही बाज़ार खुले. ब्राह्मण दौड़कर श्रीरंग के घर गया और उसने सूचना दी कि आपके समधी आ गए हैं. श्रीरंग के यह पूछने पर कि मायरे में क्या लाए हैं और कौन साथ आया है, तो उसने बताया कि नरसी अपने साथ तूंबे और मालाएँ लाए हैं और उनके साथ सूरदास आदि साधु हैं. उन्हें यह अच्छा नहीं लगा. उन्होंने नरसी को टूटी हुई झोंपड़ी में डेरा दिया. नानीबाई ने सुना, तो वह दौड़कर आई और अपने पिता से मिली. लौटकर जब वह अपने घर गई, तो सास ने उसको पूछा कि

“नरसी कितने का मायरा भरेंगे और वस्त्राभूषण आदि कितने लाए हैं?”

सास ने नानीबाई का उपहास करते हुए अपनी छोटी बहु को बुलाया और कहा कि

“माहेरे के बक्से उतारो, तुम्हारी जेठानी बोझ से मर रही है.”

नानीबाई ने कहा कि

“मेरे पिता के पास बक्से होते, तो उनको टूटी झोंपड़ी डेरा क्यों दिया जाता.”

देवर, ननद आदि सबने नरसी के साधुवेश और निर्धनता का उपहास किया. व्यथित होकर नानीबाई अपने पिता के पास गई. उसने उनसे कहा कि

“सब मुझे मूंडे हुए सिरवाले की बेटी कहते हैं. आप मुझे लज्जित करने आए हैं. मेरी माँ होती, तो एक-दो कपड़े तो ज़रूर लाती. मेरा कोई जन्मजात भाई होता, तो मायरा भरता. जैसे काजल के बिना आँखों में तेज नहीं होता, वैसे ही माँ के बिना पिता का प्रेम नहीं होता.”

नरसी ने कहा कि

“बेटी, घर जाओ, धैर्य धारण करो और पत्रिका लिखवाओ, साँवरा सेठ मायरा ज़रूर भरेगा.”

नानीबाई दौड़कर जेठ के पास आई और उससे कहा कि “माहेरे में आपकी मेरे पिता से जो भी अपेक्षा है, उसकी पत्रिका लिख दो.” कुटुम्ब एकत्र हुआ और नानीबाई के देवर नारायण ने पत्र लिखना आरंभ किया. उसने गाँव के सभी जातियों को निमंत्रित किया और मायरे की सामग्री में नक़द रुपए, बहुमूल्य वस्त्राभूषण, मिष्ठान्न आदि की लंबी–चौड़ी सूची लिख दी. पत्रिका नरसी के पास पहुँची, तो उसने देखा कि उसमें सबसे पहले ठाकुरजी नाम है, तो उसने कहा कि माहेरा भी वही भरेंगे. नरसी ने साधु-संतों के साथ श्रीरंग के भवन की और प्रस्थान किया. द्वार पर उसकी भेंट श्रीरंग से हुई, लेकिन वह मुँह फेरकर चल दिया. वृद्ध समधिन ने स्वागत का तिलक करके नेग माँगा, तो नरसी ने कहा कि

“देने-लेने के लिए मेरे पास तुलसी माला, राम नाम और शालिग्राम ही है”,

तो वह रूठ गई. उसने लगाया हुआ तिलक पोंछ दिया.

नरसी अपने साथी साधु-संतों के साथ मृदंग, पखावज और झालर बजाते हुए बाज़ार में निकले. श्रीरंग ने मसखरी की. उन्होंने नरसी को संदेश भिजवाया कि तुम्हारा गिरधारी डेरे पर आ गया है. नरसी दौड़ते-भागते डेरे पर पहुँचे, तो वहाँ कोई नहीं था. इसी बीच श्रीरंग ने संदेश भेज दिया कि सभी निमंत्रित आ गए हैं, मायरा लेकर आओ. यह सुनकर नरसी के पाँवों के नीचे से जमीन खिसक गई. वे बहुत दुःखी हुए. उन्होंने भगवान से निवेदन किया कि

“आप पर मुझे बड़ा भरोसा है. आपने बहुत विलंब कर दी. अब आप मेरी रक्षा कीजिए.”

नरसी के करुणामय निवेदन से सोते हुए भगवान कृष्ण जग गए. भगवान की कच्ची नींद में पड़े विघ्न से रुक्मिणी चिंतित हुई, तो भगवान ने कहा कि

“मेरे भक्त पर विपत्ति पड़ी है, मुझे इसी समय माहेरा ले जाना है.”

रुक्मिणी ने कहा कि

“मुझे माहेरा का बड़ा उत्साह है, मैं भी आपके साथ चलूँगी.”

भगवान ने कहा कि

“तुम वहाँ जात-बिरादरी के सभी रिवाज़ करना. बूढ़ी समधिन के पाँव लगना, वहाँ सभी को सम्मानसूचक ‘जी’ लगाकर संबोधित करना और नानीबाई की ननद से भयभीत रहना.”

रुक्मिणी ने कहा कि

“आप मायरा ख़रीद लाओ, मैं तब तक नहा-धोकर तैयार हो जाती हूँ.”

भगवान ने बाज़ार से अपार बहुमूल्य वस्त्राभूषण, मेवे, मिष्ठान्न आदि ख़रीदे. उन्होंने साँवरा सेठ का शृंगार किया- पंचरंग पाग और केसरिया वस्त्र पहने और फिर चंदन के रथ पर सवार होकर राधा और रुक्मिणी सहित जूनागढ़ के मार्ग पर निकले. मार्ग में राधा-रुक्मिणी ने रथ धीरे हाँकने के लिए अनुरोध किया, लेकिन कृष्ण ने कहा कि

“बहुत देर हो गई है, मेरा भक्त वहाँ अकेला रह गया है.”

अंजार पहुँचकर भगवान कृष्ण ने रथ रोका और पनिहारिनों से नरसी के डेरे के संबंध में पूछा, तो उन्होंने टूटी-फूटी झोंपड़ी की और संकेत किया. इधर श्रीरंग के घर में झगड़ा हो गया. देवर नारायण ने नानीबाई को उसके साधु और निर्धन पिता के संबंध में बहुत बुरा-भला कहा. वह पानी लेने के बहाने सरोवर आई और वह वहीं डूब मरने के संबंध में सोचने लगी. वह खाली मटकी लेकर सरोवर की पाल पर भगवान कृष्ण की प्रतीक्षा करने लगी. उसने विनय की कि

“हे भाई कृष्ण, तुम अब नहीं आए, तो फिर कब आओगे?” उसने कहा कि “मेरे माता-पिता-भाई सभी आप हैं.” आम के पेड़ पर बैठे तोते से उसने पूछा कि

“देखो कि क्या कोई आता हुआ दिख रहा है.” तोते ने बताया कि “पश्चिम दिशा में गुलाल उड़ रही है, रथ का कलश दिख रहा है और उस पर भगवान कृष्ण आरूढ़ हैं.”

नानीबाई पाल से नीचे उतरकर सामने गई. कृष्ण ने अपना और रुक्मिणी का परिचय दिया. नानीबाई ने कहा कि “मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रही थी. आप भले आए.” रुक्मिणी ने रथ से उतरकर नानीबाई को गले से लगाया और उससे नरसी की कुशलक्षेम पूछी.

नानीबाई पानी भरकर घर गई और उसने अपनी सास से कहा कि

“माहेरे का स्वागत करो, मेरा भाई गिरधारी आ गया है.”

किसी को विश्वास नहीं हुआ- कुटुम्ब को स्त्रियाँ और नगर जन हँसने लगे. नानीबाई ने तीन मंजिल चढ़कर अपनी सास को अपना परिवार- भाई भगवान कृष्ण और उसके साथ आई भाभियों- राधा और रुक्मिणी को दिखाया. सभी ने नानीबाई के उत्साह का उपहास किया. कृष्ण नरसी के पास उसके डेरे पर गए. नरसी नाराज थे. कृष्ण नरसी को हँस-बोलकर मनाने लगे. नरसी नहीं माने, तो कृष्ण चलने लगे. नरसी ने दौड़कर कृष्ण को रोक लिया. नरसी ने कहा कि

“आप बहुत विलंब से आए हैं.“

कृष्ण ने कहा कि

“चलो, अब माहेरा भरते हैं.”

कृष्ण ने भारवाहक की तरह माहेरे की गठरी उठाई और श्रीरंग के भवन में आए. वहाँ बहुत भीड़ थी. कृष्ण ने पगड़ी बाँध रखी थी और आंगी पहन रखी थी. उनके कान में क़लम लगी हुई थी और उनके साथ कुबेर ख़ुद शाह की तरह बटुवा लिए हुए था. सब ठगे से रह गए. कृष्ण ने नानीबाई को बुलाकर पूछा कि

“अपने मन की बात कहो और बताओ कि कैसे भात भरना है.”

नानीबाई ने सास-ससुर, जेठ-देवर, दामाद आदि सभी को बहुमूल्य वस्त्र दिलवाए. कृष्ण ने पत्र में अपेक्षित सभी सामग्री बहुमूल्य वस्त्राभूषण, मेवे, मिष्ठान्न आदि सब मायरे में दिए. कृष्ण सबको दे रहे थे और नरसी करताल और मृदंग बजा रहे थे. सभी प्रसन्न थे- उत्सव हो रहा था. केसर-कुंकुम के छापे लगाए जा रहे थे. अबीर और गुलाल उड़ रहा था. श्रीरंग की पत्नी ने सभी सखियों को एकत्र कर प्रथा के अनुसार समधी कृष्ण के लिए गालियाँ गाईं. पूरे अंजार नगर को नरसी की ओर से भोजन के लिए निमंत्रित किया गया. कोई नहीं बचा, सभी जाति-समाज के लोग आए. कृष्ण ने सभी को ख़ुद पत्तलों पर भोजन परोसा. भोजन के बाद विदा होने की तैयारी हुई. समधिन राधा-रुक्मिणी के गले लगी. कृष्ण ने रथ पर आरूढ़ होकर अपना रूमाल झिड़का, जिसके कोने में बँधी हुई मोहरें उछलकर चारों तरफ़ फैल गईं. उन्होंने हाथ जोड़कर श्रीरंग से विनती की कि

“हम आपके सेवक हैं.”

श्रीरंग ने कहा कि आप अशरण के शरण और भक्तों के रक्षक हैं. कृष्ण ने कहा, आप द्वारिका पधारें, वहाँ भी आपका घर है.

साभार – https://samalochan.blogspot.com/ से

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