जीवन एक विशाल कैनवास है, जिसमें क्षण-क्षण भावों की कूची से अनेकानेक रंग मिल-जुल कर सुख-दुख के चित्र उभारते हैं। मनुष्य सदियों से चिर आनंद की खोज में अपने पल-पल उन चित्रों की बेहतरी के लिए जुटाता है। ये चित्र हजारों वर्षों से मानव-संस्कृति के अंग बन चुके हैं। किसी एक के नाम का उच्चारण करते ही प्रतिकृति हंसती-मुस्काती उदित हो उठती है।
आदिकाल से मनुष्य किसी चित्र को अपने मन में बसाकर कभी पूजा, तो कभी आराधना, तो कभी चिंतन-मनन से गुजरता हुआ ध्यान की अवस्था तक पहुंचता रहा है। इतिहास में, पुराणों में ऐसे कई चित्र हैं, जो सदियों से मानव संस्कृति को प्रभावित करते रहे हैं। महावीर, क्राइस्ट, बुद्ध, राम ने मानव-जाति को गहरे छुआ है। इन सबकी बातें अलग-अलग हैं। कृष्ण ने इन सबके रूपों-गुणों को अपने आपमें समाहित किया है। कृष्ण एक ऐसा नाम है, जिसने जीवन को पूर्णता दी। एक ओर नाचना-गाना, रास-लीला तो दूसरी ओर युद्ध और राजनीति, सामान्यतः परस्पर विरोधी बातों को अपने में समेटकर आनंदित हो मुरली बजाने जैसी सहज क्रियाओं से जुड़े कृष्ण सचमुच चौंकानेवाले चरित्र हैं। ऐसे चरित्र को रेखांकित करना कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। व्याख्याएं कभी-कभी दिशाएं मोड़ देती हैं, कभी-कभी भटका भी देती है।
ओशो ने कृष्ण को अपनी दृष्टि से हमारे सामने रखा है, अपनी दार्शनिक और चिंतनशील पारदर्शी दृष्टि से हम तक इस पुस्तक के माध्यम से पहुंचाया है। व्यक्तित्व जब बड़ा हो, विशाल हो तब मूर्ति बनाना आसान नहीं। सिर्फ बाहरी छबि उभारना पर्याप्त नहीं होता। व्यक्तित्व के सभी पहलू भी उभरने चाहिए। श्रेष्ठ कलाकार वही है जो मूर्ति में ऐसी बातों को भी उभार सके जो सामान्य आंखें देख नहीं पातीं।
कृष्ण भारतीय जन-मानस के लिए नए नहीं हैं। कृष्ण की छबि, मुद्रा परिचित है। चाहे यह बाल्यकाल की छबि सूरदास की हो या महाभारत की विभिन्न मुद्राएं हों या विभिन्न कवियों के कृष्ण हों, लोककथाओं या आख्यायिकाओं के कृष्ण हों–चिर-परिचित हैं। कृष्ण का चित्र स्टील फोटोग्राफी की तरह हमारे मन में रच-बस गया है।
कृष्ण यथार्थवादी हैं। वे राग, प्रेम, भोग, काम, योग, ध्यान और आत्मा-परमात्मा जैसे विषयों को उनके यथार्थ रूप में ही स्वीकार करते हैं। दूसरी ओर युद्ध और राजनीति को भी उन्होंने वास्तविक अर्थों में स्वीकार किया है। ओशो कहते हैं कृष्ण युद्धवादी नहीं हैं। कृष्ण का व्यक्तित्व पूर्वाग्रही नहीं है। यदि युद्ध होना ही हो तो भागना ठीक नहीं है। यदि युद्ध होना ही है और मनुष्य के हित में अनिवार्य हो जाए तो युद्ध को आनंद से स्वीकार करना चाहिए। उसे बोझ की तरह ढोना उचित नहीं। क्योंकि बोझ समझकर लड़ने में हार निश्चित है।
ओशो युद्ध और शांति के द्वंद्व को समझाते हुए कृष्ण के व्यक्तित्व को अधिक सरलता से प्रस्तुत करते हैं। क्योंकि कृष्ण जीवन को युद्ध और शांति दोनों द्वारों से गुजरने देना चाहते हैं। शांति के लिए युद्ध की सामर्थ्य हो।
मनुष्य की युद्ध की मानसिकता को ओशो ने बड़ी सहजता से उजागर किया है। वे कहते हैं सतगुणों और दुर्गुणों से ही मनुष्य आकार लेता है। अनुपात कम-अधिक हो सकते हैं। ऐसा अच्छे से अच्छा आदमी नहीं है पृथ्वी पर, जिसमें बुरा थोड़ा-सा न हो। और ऐसा बुरा आदमी भी नहीं खोजा जा सकता, जिसमें थोड़ा-सा अच्छा न हो। इसलिए सवाल सदा अनुपात और प्रबलता का है। स्वतंत्रता, व्यक्ति, आत्मा, धर्म, ये मूल्य हैं जिनकी तरफ शुभ की चेतना साथ होगी। कृष्ण इसी चेतना के प्रतीक हैं।
ओशो ने कृष्ण पर बोलने का बड़ा सुंदर आधार दिया है–कृष्ण का महत्व अतीत के लिए कम और भविष्य के लिए ज्यादा है। सच ऐसा है कि कृष्ण अपने समय से कम पांच हजार वर्ष पहले पैदा हुए। सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय से पहले पैदा होते हैं और सभी गैर-महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बाद पैदा होते हैं। बस महत्वपूर्ण और गैर-महत्वपूर्ण व्यक्त्ति में इतना ही फर्क है। और सभी साधारण व्यक्ति अपने समय के साथ पैदा होते हैं। ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति को समझना आसान नहीं होता। उसका वर्तमान और अतीत उसे समझने में असमर्थता अनुभव करता है। ओशो ने कितना सुंदर कहा है कि जब हम समझने योग्य नहीं हो पाते, तब हम उसकी पूजा करना शुरू कर देते हैं। या तो हम उसका विरोध करते हैं। या तो हम गाली देते हैं या हम प्रशंसा करते हैं। दोनों पूजाएं हैं–एक शत्रु की है, एक मित्र की है।
ओशो की एक प्रखर आंखों ने कृष्ण को अपने वर्तमान के लिए देखा। दुख, निराशा, उदासी, वैराग्य, जैसी बातें कृष्ण ने पृथ्वी पर नहीं कीं। पृथ्वी पर जीनेवाले, उल्लास, उत्सव, आनंद, गीत, नृत्य, संगीत को कृष्ण ने विस्तार दिया। कृष्ण ने इस संसार की सारी चीजों को उनके वास्तविक अर्थों में ही स्वीकार किया।
कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व और रहस्यपूर्ण कृतित्व की व्याख्या ओशो ने सहजता और सरलता से की है। कृष्ण को देखने की उनकी दृष्टि सचमुच ऐसा विस्तार देती है, जो मात्र तुलना नहीं है। कृष्ण कुशलता से चोरी कर सकते हैं, महावीर एकदम बेकाम चोर साबित होंगे। कृष्ण कुशलता से युद्ध कर सकते हैं, बुद्ध न लड़ सकेंगे। जीसस की हम कल्पना ही नहीं कर सकते कि वे बांसुरी बजा सकते हैं, लेकिन कृष्ण सूली पर चढ़ सकते हैं। कृष्ण को क्राइस्ट के व्यक्तित्व में सोचा ही नहीं जा सकता।
यह पूरा सिलसिला लंबे प्रवचनों के माध्यम से प्रश्नों के उत्तरों के रूप में है। इसमें मानव मन से उठनेवाली तमाम जिज्ञासाओं और कुतूहलों की आतुरता शांत की गई है। प्रेम, नैतिकता, पत्नी, प्रेमिका, स्त्री-पुरुष, विवाह, आध्यात्मिक संभोग, राधा-कृष्ण संबंधों और हजार-हजार प्रश्नों के रेशों को इसमें कुशलता से सहेजा गया है, समाधान किया गया है। प्रतीकों और यथार्थ की तराजू पर तौलते हुए मानवीय संवेदनाओं और शरीर की जैविक आवश्यकताओं तथा मन, बुद्धि और शरीर की यात्राओं में स्त्री-पुरुष की पूर्णता का युक्तिसंगत ऊहापोह ठोस मनोवैज्ञानिक धरातल पर किया गया है। राधा और कृष्ण, कृष्ण और सोलह हजार गोपिकाएं, इनके बीच नैतिक-अनैतिक की परिभाषाएं उदाहरणों से इतनी पारदर्शी हो उठी हैं कि तर्कों की डोर बहुत शिथिल पड़ जाती है। कृष्ण की पृष्ठभूमि में विवाह, स्त्री-पुरुष संबंध, प्रेम और सामाजिक पृष्ठभूमि में ये विचार देशकाल की सीमाओं को तोड़कर व्यक्ति को एक नया अर्थ देते हैं। इन सारे संबंधों में निकटता, आकर्षण, ऊर्जा, बहाव, तृप्ति, हल्कापन और सृजन को बड़ी सुंदरता से प्रस्तुत किया है।
इन विस्तृत चर्चाओं में कृष्ण के इर्द-गिर्द जुड़े समस्त पात्रों के अलावा कृष्ण से फ्रॉयड तक की मनोवैज्ञानिक बातें और गांधी तक का दर्शन समाहित किया गया है।
कृष्ण को एक विस्तृत “कैनवास’ के रूप में उपयोग कर हमारे वर्तमान जीवन के रंग और भविष्य के चित्र बड़ी खूबसूरती से उभरे हैं। कोई भी बात बाहर से थोपी नहीं गई है। अपनी विशिष्ट शैली में ओशो ने मन तक पहुंचाई हैं। कृष्ण के पक्ष या विपक्ष में ले जाने का कोई आग्रह नहीं है। पर ओशो की दृष्टि में आए कृष्ण को जानने, देखने, समझने और अनुभव करने की जिज्ञासा इस पुस्तक से जहां एक ओर शांत होती है, वहीं उस अनंत व्यक्तित्व के बारे में मौलिक चिंतन की शुरुआत का एक छोर भी अनायास ही हाथ लग जाता है।
ओशो ने अपनी इस पुस्तक में कहीं भी पुजारी की भूमिका नहीं की। सिर्फ विविध छटाओं को विस्तार दिया है। जिसको जो छटा भाती है, वह उसको सोचकर आनंद को प्राप्त होता है। कृष्ण का जीवन अन्य आराध्यों-सा सपाट और आदर्श के शिखर पर विराजमान नहीं है। बल्कि अत्यंत अकल्पनीय ढंग से उतार-चढ़ाव और रहस्यों से भरपूर होते हुए भी हमारी आपकी पृथ्वी पर खड़ा है। इसकी सिर्फ पूजा नहीं इसे जीया भी जा सकता है। संसार के बंधन और मन की गांठ खुल सकती है।
यह सब बताते हुए ओशो यह भी आगाह करते हैं कि अनुकरण से सावधान रहना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक का जीवन मौलिक होता है और अनुकरण से उसका पतन हो सकता है।
कृष्ण संपूर्णता के प्रतीक हैं। मानव-समाज के आनंद के लिए सुंदर आविष्कार के रूप में उभरते हैं, जहां किसी भी बात को पूर्वाग्रह से नकारा नहीं गया है। एक सहज, सकारात्मक, रागात्मक, प्रेमपूर्ण जीवन को उत्सव की तरह संपन्न करने वाले कृष्ण इस पुस्तक में जो चित्र उभरकर निखरता है, वह सर्वथा नया और आनंददायी है।
कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है। अनूठेपन की पहली बात तो यह है कि कृष्ण हुए तो अतीत में, लेकिन हैं भविष्य के। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं हो पाया कि कृष्ण का समसामयिक बन सके। अभी भी कृष्ण मनुष्य की समझ से बाहर हैं। भविष्य में ही यह संभव हो पाएगा कि कृष्ण को हम समझ पाएं।
इसके कुछ कारण हैं।
सबसे बड़ा कारण तो यह है कि कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊंचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं। साधारणतः संत का लक्षण ही रोता हुआ होना है। जिंदगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले ही नाचते हुए वयक्ति हैं। हंसते हुए, गीत गाते हुए। अतीत का सारा धर्म दुखवादी था। कृष्ण को छोड़ दें तो अतीत का सारा धर्म उदास, आंसुओं से भरा हुआ था। हंसता हुआ धर्म मर गया है और पुराना ईश्वर, जिसे हम अब तक ईश्वर समझते थे, जो हमारी धारणा थी ईश्वर की, वह भी मर गई है।
जीसस के संबंध में कहा जाता है कि वह कभी हंसे नहीं। शायद जीसस का यह उदास व्यक्तित्व और सूली पर लटका हुआ उनका शरीर ही हम दुखी-चित्त लोगों को बहुत आकर्षण का कारण बन गया। महावीर या बुद्ध बहुत गहरे अर्थों में इस जीवन के विरोधी हैं। कोई और जीवन है परलोक में, कोई मोक्ष है, उसके पक्षपाती हैं। समस्त धर्मों ने दो हिस्से कर रखे हैं जीवन के–एक वह जो स्वीकार योग्य है और एक वह जो इनकार के योग्य है।
कृष्ण अकेले ही इस समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। जीवन की समग्रता की स्वीकृति उनके व्यक्तित्व में फलित हुई है। इसलिए, इस देश ने और सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है, कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा है। राम भी अंश ही हैं परमात्मा के, लेकिन कृष्ण पूरे ही परमात्मा हैं। और यह कहने का, यह सोचने का, ऐसा समझने का कारण है। और वह कारण यह है कि कृष्ण ने सभी कुछ आत्मसात कर लिया है।
अल्बर्ट श्वीत्ज़र ने भारतीय धर्म की आलोचना में एक बड़ी कीमत की बात कही है, और वह यह कि भारत का धर्म जीवन-निषेधक, “लाइफ निगेटिव’ है। यह बात बहुत दूर तक सच है, यदि कृष्ण को भुला दिया जाए। और यदि कृष्ण को भी विचार में लिया जाए तो यह बात एकदम ही गलत हो जाती है। और श्वीत्ज़र यदि कृष्ण को समझते तो ऐसी बात न कह पाते। लेकिन कृष्ण की कोई व्यापक छाया भी हमारे चित्त पर नहीं पड़ी है। वे अकेले दुख के एक महासागर में नाचते हुए एक छोटे-से द्वीप हैं। या ऐसा हम समझें कि उदास और निषेध और दमन और निंदा के बड़े मरुस्थल में एक बहुत छोटे-से नाचते हुए मरूद्यान हैं। वह हमारे पूरे जीवन की धारा को नहीं प्रभावित कर पाए। हम ही इस योग्य न थे, हम उन्हें आत्मसात न कर पाए।
मनुष्य ाका मन अब तक तोड़कर सोचता रहा, द्वंद्व करके सोचता रहा। शरीर को इनकार करना है, आत्मा को स्वीकार करना है। तो आत्मा और शरीर को लड़ा देना है। परलोक को स्वीकार करना है, इहलोक को इनकार करना है। तो इहलोक और परलोक को लड़ा देना है। स्वभावतः, यदि हम शरीर का इनकार करेंगे, तो जीवन उदास हो जाएगा। क्योंकि जीवन के सारे रस-स्रोत और सारा स्वास्थ्य और जीवन का सारा संगीत और सारी संवेदनाएं शरीर से आ रही हैं। शरीर को जो धर्म इनकार कर देगा, वह पीतवर्ण हो जाएगा, रक्तशून्य हो जाएगा। उस पर से लाली खो जाएगी। वह पीले पत्ते की तरह सूखा हुआ धर्म होगा। उस धर्म की मान्यता भी जिनके मन में गहरी बैठेगी, वे भी पीले पत्ते की तरह गिरने की तैयारी में संलग्न, मरने के लिए उत्सुक और तैयार हो जाएंगे।
कृष्ण अकेले हैं जो शरीर को उसकी समस्तता में स्वीकार कर लेते हैं, उसकी “टोटलिटी’ में। यह एक आयाम में नहीं, सभी आयाम में सच है। शायद कृष्ण को छोड़कर…कृष्ण को छोड़कर, और पूरे मनुष्यता के इतिहास में जरथुस्त्र एक दूसरा आदमी है, जिसके बाबत यह कहा जाता है कि वह जन्म लेते से हंसा। सभी बच्चे रोते हैं। एक बच्चा सिर्फ मनुष्य-जाति के इतिहास में जन्म लेकर हंसा। यह सूचक है। यह सूचक है इस बात का कि अभी हंसती हुई मनुष्यता पैदा नहीं हो पाई। और कृष्ण तो हंसती हुई मनुष्यता को ही स्वीकार हो सकते हैं। इसलिए कृष्ण का बहुत भविष्य है। फ्रायड-पूर्व धर्म की जो दुनिया थी, वह फ्रायड-पश्चात नहीं हो सकती है। एक बड़ी क्रांति घटित हो गई है, और एक बड़ी दरार पड़ गई है मनुष्य की चेतना में। हम जहां थे फ्रायड के पहले, अब हम वहीं कभी भी नहीं हो सकेंगे। एक नया शिखर छू लिया गया है और एक नई समझ पैदा हो गई है। वह समझ समझ लेनी चाहिए।
पुराना धर्म सिखाता था आदमी को दमन और “सप्रेशन’। काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है, सभी को दबाना है और नष्ट कर देना है। और तभी आत्मा उपलब्ध होगी और तभी परमात्मा उपलब्ध होगा। यह लड़ाई बहुत लंबी चली। इस लड़ाई के हजारों साल के इतिहास में भी मुश्किल से दस-पांच लोग हैं जिनको हम कह पाए कि उन्होंने परमात्मा को पा लिया। एक अर्थ में यह लड़ाई सफल नहीं हुई। क्योंकि अरबों-खरबों लोग बिना परमात्मा को पाए मरे हैं। जरूर कहीं कोई बुनियादी भूल थी। यह ऐसा ही है जैसे कि कोई माली करोड़ हजार पौधे लगाए और एक पौधे में फूल आ जाएं, और फिर भी हम उस माली के शास्त्र को मानते चले जाएं, और हम कहें कि देखो एक पौधे में फूल आए! और हम इस बात का खयाल ही भूल जाएं कि पचास करोड़ पौधे में अगर एक पौधे में फूल आते हैं, तो यह माली की वजह से न आए होंगे, यह माली से किसी तरह बच गया होगा पौधा, इसलिए आ गए हैं। क्योंकि माली का प्रमाण तो बाकी पचास करोड़ पौधे हैं जिनमें फूल नहीं आते, पत्ते नहीं लगते, सूखे ठूंठ रह जाते हैं।
एक बुद्ध, एक महावीर, एक क्राइस्ट अगर परमात्मा को उपलब्ध हो जाते हैं, द्वंद्वग्रस्त धर्मों के बावजूद भी, तो यह कोई धर्मों की सफलता का प्रमाण नहीं हैं। धर्मों की सफलता का प्रमाण तो तब होगा, माली तो तब सफल समझा जाएगा, जब पचास करोड़ पौधों में फूल लगें और एक में न लग पाएं, तो क्षमा योग्य है। कहा जा सकेगा कि यह पौधे की गलती हो गई। इसमें माली की गलती नहीं हो सकती। पौधा बच गया होगा माली से, इसलिए सूख गया है, इसलिए फूल नहीं आते हैं।
भविष्य के लिए कृष्ण की बड़ी सार्थकता है। और भविष्य में कृष्ण का मूल्य निरंतर बढ़ता ही जाने को है। जब कि सबके मूल्य फीके पड़ जाएंगे और द्वंद्व-भरे धर्म जब कि पीछे अंधेरे में डूब जाएंगे और इतिहास की राख उन्हें दबा देगी, तब भी कृष्ण का अंगार चमकता हुआ रहेगा। और भी निखरेगा क्योंकि पहली दफे मनुष्य इस योग्य होगा कि कृष्ण को समझ पाए। कृष्ण को समझना बड़ा कठिन है। कठिन है इस बात को समझना कि एक आदमी संसार को छोड़कर चला जाए और शांत हो जाए। कठिन है इस बात को समझना कि संसार के संघर्ष में, बीच में खड़ा होकर और शांत हो। आसान है यह बात समझनी कि एक आदमी विरक्त हो जाए, आसक्ति से संबंध तोड़कर भाग जाए और उसमें एक पवित्रता का जन्म हो। कठिन है यह बात समझनी कि जीवन के सारे उपद्रव के बीच, जीवन के सारे उपद्रव में अलिप्त, जीवन के सारे धूल-धवांस के कोहरे और आंधियों में खड़ा हुआ दिया हिलता न हो, उसकी लौ कंपती न हो–कठिन है यह समझना। इसलिए कृष्ण को समझना बहुत कठिन था। निकटतम जो कृष्ण के थे वे भी नहीं समझ सकते हैं। लेकिन पहली दफा एक महान प्रयोग हुआ है। पहली दफा आदमी ने अपनी शक्ति का पूरा परीक्षण कृष्ण में किया है। ऐसा परीक्षण कि संबंधों में रहते हुए असंग रहा जा सके, और युद्ध के क्षण पर भी करुणा न मिटे। और हिंसा की तलवार हाथ में हो, तो भी प्रेम का दिया मन से न बुझे।
इसलिए कृष्ण को जिन्होंने पूजा भी है, जिन्होंने कृष्ण की आराधना भी की है उन्होंने भी कृष्ण के टुकड़े-टुकड़े करके किया है। सूरदास के कृष्ण कभी बच्चे से बड़े नहीं हो पाते। बड़े कृष्ण के साथ खतरा है। सूरदास बर्दाश्त न कर सकेंगे। वह बाल कृष्ण को ही…। क्योंकि बाल कृष्ण अगर गांव की स्त्रियों को छेड़ देता है तो हमें बहुत कठिनाई नहीं है। लेकिन युवा-कृष्ण जब गांव की स्त्रियों को छेड़ देगा तो फिर बहुत मुश्किल हो जाएगा। फिर हमें समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि हम अपने ही तल पर तो समझ सकते हैं। हमारे अपने तल के अतिरिक्त समझने का हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है। तो कोई है जो कृष्ण के एक रूप को चुन लेगा, कोई है जो दूसरे रूप को चुन लेगा। गीता को प्रेम करने वाले गीता की चर्चा में न पड़ेंगे, क्योंकि कहां राग-रंग और कहां रास और कहां युद्ध का मैदान! उनके बीच कोई तालमेल नहीं है। शायद कृष्ण से बड़े विरोधों को एक-साथ पी लेने वाला कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। इसलिए कृष्ण की एक-एक शकल लोगों ने पकड़ लिया। है। जो जिसे प्रीतिकर लगी है, उसने छांट लिया है, बाकी शकल को उसने इनकार कर दिया है।
ओशो