Sunday, November 24, 2024
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Homeकविताकैसे कैसे बिखर गये हम, जाने दो।

कैसे कैसे बिखर गये हम, जाने दो।

मित्रों की सेवा में एक गीत समर्पित-
आँखें बरबस हो आयीं नम,
जाने दो
कैसे कैसे बिखर गये हम ,
जाने दो
घर की हर दीवार और  छत, कोना – कोना
चित्र-कथा क्रम, भाव-भंगिमा,
रंग सलोना
रँगा हुआ सब ऊपर शान्त
औ भीतर हलचल
तारतम्य है उचट- उचट  जाता है पल- पल
मलय-गन्ध जग,नभ, दिगन्त तक डूब गये थे
यह  प्रकाश औ’ अन्धकार  क्रम ,  जाने दो।
बदले  अर्थ  शब्द के, घर के,
तेरे  मेरे
बदल चुके हैं अर्थ रात- दिन
 साँझ सवेरे
विस्तृत जीवन जीकर सिमटी आस अकेली
रही नित्य उलझन जीवन बन
एक पहेली
बदले अर्थ समय, यात्रा के
चलना ही है
रस्ता  लम्बा समय बहुत कम, जाने   दो।
संचित ऋण का बोझ बहुत
भारी है मन पर
है उतारना घर, परिजन,समाज जीवन भर
धुँधली  हुईं  दिशाएँ   पथ संकेत  खो  रहे
पेड़, शाख  औ  पंछी चुप हैं
स्यार  रो रहे
यात्रा के सुविचारित शुभकर सुखकर प्रियकर
मोहक  सपनों का   टूटा भ्रम,   जाने   दो।
यमुना, गोकुल,मधुवन मथुरा,
कहाँ  द्वारका
गोपी राधा  पंथ  जोहना  जीवन भर   का
सूने पथ  पानी भर खोयीं
 प्यासी  आँखें
समय-चक्र ने कुचलीं कलियाँ,
कुसुमित शाखें
है स्मृति में  नन्दन वन  रस राग गन्ध मय
था लौकिक पर दिव्य औ’अनुपम,
जाने दो
आँखें  बरबस  हो आयीं नम ,  जाने दो
कैसे  कैसे  बिखर गये    हम,  जाने दो।
  मंगला प्रसाद सिंह
 ( निवर्तमान रीडर, उदित नारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय पडरौना, कुशीनगर)

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