राजनीति में वैसे तो चर्चाओं का कोई खास मोल नहीं होता। क्योंकि चालाक लोगों द्वारा चर्चाएं चलाई ही इसलिए जाती हैं कि चर्चित व्यक्ति को चकित करने के चौबारे तलाशे जा सकें। उसकी राह में कांटे बिछाए जा सके और फिर तकदीर के तिराहे से सीधे सियासत की संकरी अंधेरी गलियों में आसानी से धकेल दिया जाए। लेकिन व्यक्तित्व अगर विराट हो, कद औरों के मुकाबले कई गुना ज्यादा ऊंचा हो और सियासत के सभी पहलुओं में प्रतिभा अगर प्रामाणिक हो, तो उसके बारे में सुनी सुनाई पर भी लोग भरोसा करने लग जाते हैं। अशोक गहलोत इसीलिए इन दिनों कुछ ज्यादा ही चर्चा में हैं।
राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री गहलोत के बारे में कहा जाता है कि वे जब कुछ नहीं कर रहे होते हैं, असल में तभी वे बहुत कुछ कर रहे होते हैं। क्योंकि गहलोत जानते हैं कि शांतिकाल ही क्रांतिकाल से निपटने की तैयारियों का असली वक्त होता है। इन दिनों भी वे सियासत के समंदर में भविष्य उठने वाली लहरों की लपलपाहट को नाप रहे हैं, और जान रहे हैं कि लहरें कितनी भी लपलपाती रहे, उनकी नियति तो आखिर समंदर में समाना ही है।
राजनीति के गलियारों में सवाल हैं कि राजस्थान में बीजेपी और कांग्रेस दोनों की राजनीति में सचिन पायलट की सियासी सक्रियता के कम होने के मायने क्या है? और पायलट समर्थक बहुत छोटे से नेता अभिमन्यू पूनिया और गहलोत की राजनीतिक पौधशाला में पुष्पित पल्लवित हरीश चौधरी आखिर बेनामी हमले किस की शह पर कर रहे हैं। खिलाड़ीलाल बैरवा जैसे जनाधार विहीन लोगों की बकवास को किसकी शह है, यह भी जानना जरूरी है।
वह भी ऐसे वक्त में, जब पूर्व मुख्यमंत्री गहलोत को विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ का अध्यक्ष बनाए जा सकने की चर्चाएं है। क्योंकि, मल्लिकार्जुन खड़गे तो खैर बहुत बाद में, राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद पिक्चर में आए, लेकिन कांग्रेस में गांधी परिवार के बाद निर्विवाद रूप से गहलोत ही सबसे अनुभवी और विपक्षियों में सबके साथ संबंध निभाने वाले विश्वसनीय नेता माने जाते हैं। राजनीतिक विश्लेषक अरविंद चोटिया कहते हैं कि राजस्थान में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद डोटासरा, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली, और हाल ही में नियुक्त उप नेता रामकेश मीणा व मुख्य सचेतक रफीक खान सभी तो गहलोत समर्थक ही हैं। मतलब, गहलोत राजनीतिक रूप से आलाकमान के सबसे करीब हैं।
गहलोत ‘आखरी सांस तक राजस्थान की सेवा’ करने की बात कहते रहे हैं। मगर, उनकी टक्कर में आने के लिए यही बात सचिन पायलट भी तो कह चुके हैं कि वे किसी पद पर रहें या न रहें, अंतिम सांस तक राजस्थान की जनता की सेवा करते रहेंगे। राजस्थान में इन दो ताकतवर नेताओं के अलावा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा भी अपनी ताकत के तेवर दिखाते रहे हैं।
उनके कार्यकाल में लोकसभा चुनाव में राजस्थान में कांग्रेस की ताकत जबरदस्त बढ़ी है और उस दौर में गहलोत पूरे चुनाव राजस्थान में ही जमे रहे। डोटासरा और गहलोत पार्टी जीत सकने वालों को हर हाल में जिताने की जुगत में जुटे रहे। मगर पायलट भले ही राजस्थान की सेवा का वादा करें, लेकिन मजबूरी है कि वे छत्तीसगढ़ कांग्रेस के प्रभारी हैं, पार्टी के अखिल भारतीय महासचिव भी हैं और सात प्रदेशों में हुए उप चुनावों में कांग्रेस की जीत पर बयान देने के साथ ही, कश्मीर में आतंकी हमलों जैसे राष्ट्रीय मुद्दों पर भी अपने विचार रखकर राजनीति के राष्ट्रीय फलक पर अपनी छवि निखारते दिखते हैं।
वैसे, असल में लोकसभा चुनाव के बाद से, राजस्थान में गहलोत और पायलट दोनों अपेक्षाकृत शांत शांत से हैं। जनता में यह आम धारणा है कि अशोक गहलोत जब सक्रिय होते हैं तो प्रदेश में कांग्रेस और देश में राजस्थान दोनों को चर्चा में रखे रहते हैं। गहलोत के पास मुद्दे हैं, आधार है, विचार हैं, विश्वास हैं और इससे भी इतर, बहुत बड़ा उनका राजनीतिक कद है। फिर भी गहलोत इन दिनों शांत हैं। इसीलिए, कांग्रेस भी किसी लपलपाती लहरों वाले महासागर सी होने के बावजूद एकदम शांत – प्रशांत। वरिष्ठ पत्रकार अवधेश पारीक कहते हैं कि गहलोत की सक्रियता न होने से राजस्थान में कांग्रेस लगभग दिशाहीन सी लग रही है। गहलोत के स्वास्थ्य लाभ के इस दौर में इन दिनों एक पॉलिटिकल वैक्यूम बना है, मगर उनके फिर से सीन में आते ही वे राजनीतिक विश्लेषकों को कुछ खास मसाला देंगे। पारीक कहते हैं कि गहलोत की सक्रियता पूरी कांग्रेस को एक तरह से सक्रिय कर देती है।
राजस्थान में बीजेपी लगातार दो आम चुनाव से सभी 25 सीटें जीत रही थी, मगर कांग्रेस ने अशोक गहलोत और प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के नेतृत्व में इस बार के आम चुनाव में अपनी जबरदस्त ताकत दिखाई। गहलोत की अपनी कसी हुई चुनावी रणनीति को कार्यान्वित करने की पहल, उम्मीदवारों की अदलाबदली सहित गठबंधन की कूटनीति, और अपनी सरकार के वक्त की योजनाओं के माहौल के जरिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा को साथ लेकर दिखाए गए गहलोत के राजनीतिक कमाल ने बीजेपी को पस्त कर दिया। हालांकि, गहलोत के बेटे वैभव गहलोत जालोर से चुनाव हार गए, लेकिन कांग्रेस ने लोकसभा की 11 सीटें बीजेपी से झटक लीं। गहलोत और टडोटासरा का य़ह वो कतमाल था, जो सचिन पायलट दो आम चुनाव में भी नहीं दिखा सके। पायलट के 7 साल लंबे प्रदेश कांग्रेस अक्ष्यक्ष के कार्यकाल में दोनों बार आम चुनाव में कांग्रेस को सभी 25 लोकसभा सीटों पर बहुत बुरी हार का मुंह देखना पड़ा। यहां तक कि पायलट खुद भी अजमेर से चुनाव हार गए थे।
राजस्थान में कांग्रेस और कांग्रेसियों में कोई बहुत हलचल नहीं है, अकेले डोटासरा ही बीजेपी पर जुबानी हमले कर रहे हैं और गहलोत इन दिनों स्लिप डिस्क की वजह से पूरी तरह से बेड रेस्ट पर हैं। दरअसल, स्लिप डिस्क कमर की वह तकलीफ है, जो किसी को जब जकड़ती है, तो व्यक्ति को उस हद तक परेशान कर देती है कि उसका चलना, फिरना उठना और बैठना तो दूर की बात, करवट बदलना भी बहुत मुश्किल हो जाता है। और लंबे समय तक आराम ही उससे निजात दिला सकता है। गहलोत उसी तकलीफ से निकलने की राह में बेड रेस्ट पर हैं। कुछ बड़े नेता और निजी लोग भले ही जरूरी काम से उनसे मिल लें, मगर आमजन में गहलोत का मूवमेंट और मिलना – जुलना लगभग बंद सा है। इसी वजह से राजस्थान में कांग्रेस कुछ ठहरी ठहरी सी है। 29 अप्रैल को गहलोत चुनाव प्रचार के लिए चंडीगढ़ पहुंचे थे और वहीं से स्लिप डिस्क का यह जो मामला चला, तो अब तक चल ही रहा है।
उधर, मरते दम तक राजस्थान की सेवा के प्रण का पराक्रम दिखाने वाले सचिन पायलट राजस्थान के अलावा सभी मुद्दों पर बोल रहे है और राष्ट्रीय मुद्दों पर अपने बयानों के जरिए देश का नेता बनने की जुगत में जुटे लग रहे हैं। मूर्ति के अनावरण और एकाध प्रेस कॉन्फ्रेंस व किसी के शपथ ग्रहण समारोह को छोड़ दें, तो राजस्थान के कांग्रेसी राजनीतिक परिदृश्य से पायलट लगभग गायब ही हैं। विधायक के तौर पर प्रदेश में बीजेपी की सरकार के बजट की आलोचना भले ही की हो, मगर उनकी राजनीतिक गतिविधियां लगभग ठप है। उधर, छत्तीसगढ़ में भी कुल 11 लोकसभा सीटों में से 10 पर कांग्रेस की करारी हार के बाद उनके प्रभारी होने के राजनीतिक कौशल पर भी सवाल उठ रहे हैं।
इससे पहले, जब वे राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष थे, तभी 2019 और 2024 के दोनों आम चुनावों में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को सभी 25 सीटों पर करारी हार का मुंह देखना पड़ा था। जबकि इस बार गहलोत और डोटासरा की जोड़ी ने बीजेपी से 11 सीटें झटक ली। पायलट शायद इसीलिए सन्न हैं और फिर से सक्रियता दिखाने के मौके की तलाश में हैं।
राजनीति के जानकार कहते हैं कि बहुत संभव है कि पायलट अपने जन्मदिन 7 सितंबर का इंतजार कर रहे हैं, जब रक्तदान या वृक्षारोपण जैसे चर्चित कार्यक्रमों के जरिए एक बार फिर अपनी सक्रियता दिखा सकें। वैसे, जो हालात दिख रहे हैं, उनमें तो यही कहा जा सकता है कि गहलोत की पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त। इसलिए उनके बेड रेस्ट से आजाद होने की प्रतीक्षा जरूरी है। लेकिन राजनीति में प्रतीक्षा के मायाजाल का भी अपना अलग ब्रह्म सत्य है। कुछ लोग जीवन भर किसी पद की प्रतीक्षा करते रहते हैं, और कुछ लोग आसानी से उस पद को जी कर आगे भी बढ़ जाते हैं। पायलट फिलहाल तो अपना वक्त आने की प्रतीक्षा ही कर रहे हैं। मगर, देखते हैं, पायलट की प्रतीक्षा का प्रतिफल कब सामने आता है, या फिर आता भी है कि नहीं!
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)