Wednesday, January 15, 2025
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बांग्लादेश की सियासी उथल-पुथल से भारतीय उपमहाद्वीप पर मंडरा रहा है खतरा

अवामी लीग और बांग्ला मतदाताओं के बीच एक अनकहा समझौता यह था कि सरकार दमनकारी होगी लेकिन वह समृद्धि लाएगी। बहुत कम सरकारें ऐसा समझौता निभा सकी हैं।

बांग्लादेश के हालिया घटनाक्रम का असर भारतीय उपमहाद्वीप के बाकी हिस्सों पर पड़ना लाजिमी है। दुनिया में आठवीं सर्वाधिक आबादी वाले देश में आने वाले दिनों में क्या कुछ घटित होगा, यह कई टीकाकारों की रुचि का विषय रहने वाला है। बांग्लादेश की पिछली सरकार अधिनायकवादी थी। इस अपदस्थ सरकार ने विपक्ष के नेताओं को जेल में डालने के बाद बेहद खामियों से भरा चुनाव जीता। उसने विपक्ष के देश के संविधान को भी ताक पर रख दिया, जिसमें निष्पक्ष अंतरिम सरकार द्वारा राष्ट्रीय चुनाव कराने की बात कही गई है। बीते कुछ सप्ताह में बहुत अधिक खूनखराबा हुआ जब सरकार ने सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों का दमन करने का प्रयास किया।

परंतु यह दावा भी गलत होगा कि सरकार पूरी तरह नाकाम रही। उसने एक वृहद और स्थिर माहौल मुहैया कराया तथा कई वर्षों तक देश को मजबूत वृद्धि प्रदान की। निश्चित तौर पर उसने इतनी मजबूत वृद्धि प्रदान की कि इस गरीब मुल्क में आर्थिक चमत्कार ही हो गया। यह सरकार पूरी तरह अलोकतांत्रिक भी नहीं थी क्योंकि उसने अल्पसंख्यकों के बचाव के उपाय भी किए।

अवामी लीग और बांग्ला मतदाताओं के बीच एक अनकहा समझौता यह था कि सरकार दमनकारी होगी लेकिन वह समृद्धि लाएगी। बहुत कम सरकारें ऐसा समझौता निभा सकी हैं। पूर्वी यूरोप, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के मानचित्रों को गौर से देखिए, जहां अधिनायकवादी शासन रहे हैं। उनमें से कई देश संसाधनों से भरे हैं मगर वहां वृद्धि नहीं हुई, केवल दमन हुआ।

बीते 80 साल में पूर्वी एशिया की चुनिंदा अलोकतांत्रिक अर्थव्यवस्थाएं ही वृद्धि दे पाने में सफल रही हैं। भारत के उत्तरी पड़ोसी और वियतनाम के अलावा अधिकतर देश आगे चलकर पूरी तरह लोकतांत्रिक देश बन गए। पश्चिम एशिया के संसाधन समृद्ध देशों में भी संपन्नता आई, लेकिन वहां वृद्धि असमान बनी रही।

यह बात हमें राजनीति विज्ञान की सबसे आम भ्रांतियों में से एक की ओर ले आती है जो कहती है: लोकतंत्र अक्सर विकास के विरुद्ध होता है। परंतु यह सही नहीं है। अधिनायकवादी शासन उस स्थिति में वृद्धि प्रदान कर सकता है जब शासक समझदार हो। परंतु वास्तव में बहुत कम अधिनायकवादी शासन ही समृद्धि प्रदान कर पाते हैं। लोकतांत्रिक देशों का प्रदर्शन कहीं बेहतर है। दुनिया के सबसे अमीर देश लोकतांत्रिक हैं।

यह भ्रांति ऊपर दिए गए चुनिंदा उदाहरणों से उत्पन्न होती है लेकिन दमनकारी शासन के वृद्धि विरोधी होने के कई उदाहरणों की उपेक्षा कर दी जाती है। इस भ्रम की एक और वजह यह है कि दमनकारी शासनों के साथ सौदेबाजी आसान होती है। खास तौर पर कंपनियों और सरकारों के लिए भी। वहां किसी एक मजबूत शख्सियत को रिश्वत देकर काम कराना आसान होता है और ढेर सारे राजनेताओं को मनाने से बेहतर होता है एक व्यक्ति को मनाकर उससे अपने अनुकूल काम कराना। ऐसे में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास अधिनायकवादी शासन का समर्थन करने और ऐसी भ्रांति को बढ़ावा देने की वजह होती है।

अगर हम इतिहास को खंगालें तो यही कहानी नजर आती है। पहले के दौर के राजशाही वाले देशों की तुलना वर्तमान अधिनायकवादी शासन से की जा सकती है। राजशाही के दौर में टिकाऊ वृद्धि वाले राज्य गिने-चुने ही थे। अगर किसी राजवंश का एक सदस्य प्रजा की स्थिति बेहतर करता था तो आगे आने वाले शासक सब कुछ बिगाड़ दिया करते थे।

जागरण और औद्योगिक क्रांति उन स्थानों पर घटित हुए जो अपेक्षाकृत लोकतांत्रिक थे। उत्पादकता और समृद्धि में अधिकतर वृद्धि उन्हीं देशों में देखने को मिली। सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण जापान है। जापान के सम्राट 1868 में देश के संवैधानिक प्रमुख बने और जापान के औद्योगीकरण ने गति पकड़ ली। यूरोप में भी ऐसा ही हुआ। पश्चिम और उत्तरी यूरोप के कई देश राजशाही वाले बने रहे किंतु अन्य देशों ने जल्द ही लोकतांत्रिक मॉडल अपना लिया। अमेरिका में अभूतपूर्व स्तर पर नवाचार और औद्योगीकरण देखने को मिला।

बांग्लादेश पर नजर रखने वाले देशों के लिए एक चिंता यह भी है कि अलोकतांत्रिक सरकारों का स्थान अक्सर ऐसी सरकारें ले लेती हैं जो उनसे भी बुरी होती हैं या फिर गृह युद्ध जैसे हालात बन जाते हैं। भूतपूर्व सोवियत गणराज्य के अलावा हम ईरान, लीबिया, मिस्र और अन्य देशों के उदाहरण देख सकते हैं।

बांग्लादेश से एक सीख यह भी मिलती है कि अक्सर केवल समृद्धि से दमित आबादी को खुश नहीं रखा जा सकता है। अगर वृद्धि में मामूली गिरावट भी आती है तो असंतुष्ट जनता सड़कों पर उतर आती है क्योंकि मतदान का विकल्प उपलब्ध नहीं होता। चीन तक में विरोध प्रदर्शन देखने को मिले। इनमें सबसे बड़ा प्रदर्शन 1989 में हुआ था।

दक्षिण कोरिया और ताइवान में लोकतांत्रिक बदलाव बिना किन्हीं खास झटकों के आया। अन्य देशों मसलन इंडोनेशिया, फिलिपींस तथा थाईलैंड में लोकतंत्र की ओर बदलाव की प्रक्रिया उतनी सहज नहीं रही।

यहां भारत के लिए भी सबक हैं क्योंकि हमारे देश में कुछ संकेतकों के मुताबिक वृद्धि तो हो रही है किंतु यह कुछ क्षेत्रों में ही हो रही है और बाकी क्षेत्र गिरावट के शिकार हो रहे हैं। इससे आर्थिक असमानता भी बढ़ रही है।

साभार- https://hindi.business-standard.com/ से

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