देश की विभिन्न अदालतें महिला सुरक्षा के लिए बने कानूनों के दुरुपयोग पर निरंतर चिंता जाहिर कर रही है परंतु इसके बावजूद ऐसे कानूनों के गलत इस्तेमाल का सिलसिला कायम है। अदालतों की चेतावनी के बाद भी कुछ महिलाओं के द्वारा कानून का दुरुपयोग उस मानसिकता की परिणति है जिसे ‘छद्म नारीवाद’ कहते हैं ।
झारखंड उच्च न्यायालय ने धारा 498 ए के दुरुपयोग पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि-” असंतुष्ट पत्नियां आईपीसी की इस धारा का उपयोग ढाल के रूप में नहीं बल्कि एक हथियार के रूप में कर रही हैं। इस घातक प्रवृत्ति का बढ़ना कई प्रश्नों को खड़ा करता है। नारीवाद का यह स्वरूप ‘साम- दाम- दंड -भेद ‘की नीति में विश्वास रखता है और जिसका उद्देश्य अंततोगत्वा प्रभुत्व की प्राप्ति करना है।
नारीवाद का आरंभ महिला सशक्तिकरण के प्रथम अध्याय के रूप में हुआ था ,जो सामाजिक व्यवस्था के सुचारू विकास और संतुलन के लिए बेहद जरूरी भी था क्योंकि तत्कालीन समय में महिलाएं हासिये पर धकेल दी गई थीं और वह अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की खामियों से लड़ रही थीं। इस कालावधि में भारत में दहेज -प्रथा एक बड़ी चुनौती बन चुकी थी, जिससे निपटने के लिए ‘दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961’ पारित हुआ। फिर समय परिवर्तित हुआ और लड़कियां पहले की तुलना में ज्यादा सजग ,शिक्षित, मुखर और अपने अधिकारों के प्रति जागृत हुईं। इसी बीच ‘छद्म नारीवाद’ ने भारत में घुसपैठ की । इस विचारधारा ने प्रभुत्व पर जोर दिया। नतीजतन विवाह प्रभुत्व प्राप्ति का पर्याय बन गया और उसमें शस्त्र बने महिला सुरक्षा संबंधी कानून। कुछ समय पहले मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा था कि-‘ आजकल आई पी सी हिंदू विवाह अधिनियम और घरेलू हिंसा ने महिलाओं की सुरक्षा संबंधी अधिनियम 2005 के तहत परिवार न्यायालय एवं अदालत में पति एवं परिवार के सदस्यों के खिलाफ पांच मामलों का एक पैकेज दायर किया जा रहा है।’
दर असल यह कटु सत्य है कि , कुछ महिलाएं अपने अधिकारों के नाम पर निर्दोषों को जेल पहुंचा रही हैं। उनके हौसले इसलिए बुलंद है क्योंकि वह भली-भांति जानती है कि उनके कहने भर से पुलिस और मीडिया तथा अन्य लोग, पुरुष को ही अपराधी घोषित कर देंगे । वह यह भी जानती है कि जब तक न्यायालय से पुरुष को न्याय मिलेगा तब तक उस का आत्मबल पूरी तरह टूट चुका होगा जो अपने आप में ही उस महिला की जीत होगी। पुलिस, मीडिया तथा आम जनता के एक तरफ़ा सोच ने पुरुषों के छवि को खलनायक के रूप में इस तरहगढ़ रखा है कि उनकी आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं है। जबकि सत्य सिद्ध होने से पहले ही केवल पुरुष को पुरुष होने के नाम पर अपराधी मान लेना उन्हें आतंकित और भयभीत किए हुए हैं।
विचारणीय है कि कोई भी कानून, सुरक्षा और विकास के लिए होती है न कि शक्ति का दुरुपयोग करने के लिए। समाज में किसी को भयभीत करने,प्रतिशोध लेने अथवा निरर्थक ही प्रताड़ित करने के लिए तो विल्कुल भी नहीं।
यदि कोई प्रतिशोध लेने के नीयत से हथियार बना कर कानूनों का इस्तेमाल करता है तो उन पुरुषों और परिवार के सदस्यों को सामाजिक तिरस्कार, बदनामी तथा असहनीय पीड़ा को सहन करनी पड़ती है। बरसों पहले नोएडा की एक युवती ने कथित तौर पर, दहेज मांगे जाने पर भरे मंडप से शादी से इनकार करके मीडिया में छा गई थी। उनकी बात को बिना किसी विचार के संपूर्ण सत्य मान लिया गया था। उसके द्वारा लिखी गई झूठी पटकथा ने रातों- रात फेमस बना दिया औरउ उस व्यक्ति का जीवन तहस-नहस कर दिया जिससे उसकी शादी होने वाली थी । जब कोर्ट का फैसला आया तो तस्वीर बिल्कुल उल्टी थी। नायिका बन चुकी युवती के संबंध में कोर्ट ने दहेज के आरोपों को बनावटी कहानी ठहराया। जो कानून को हथियार बनाकर उस लड़के से बदला ले रही थी थी।
यह कोई एकलौती घटना नहीं है बल्कि आए दिन ऐसी घटनाएं घटित हो रही हैं और कानून का दुरूपयोग लोमड़ी महिलाएं तथा उनके पीछे खड़े बहुरुपिये पुरुष अपने प्रतिशोध का हथियार बना कर कर रहे हैं। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि प्रायः परिवार टूट रहे हैं। परिवारों का विखंडन होने से बच्चे मानसिक रूप से और आत्मिक रूप से कमजोर हो रहे हैं। इतना ही नहीं वल्कि वास्तविक रूप से प्रताड़ित महिलाएं जिन्हें इस कानून और अधिनियम की सख्त आवश्यकता होती है वह वंचित रह जाती हैं। कैसे विश्वास किया जाए कि कौन ढोंगी है और कौन सच्चा? परखना बड़ा मुश्किल है। अतः कानून का इस्तेमाल सुरक्षा के लिए ढाल के रूप में किया जाए प्रतिशोध के लिए हथियार न बनाया जाए।
-डॉ सुनीता त्रिपाठी ‘जागृति’ स्वतंत्र लेखिका
अखिल भारतीय राष्ट्रवादी लेखक संघ (नई दिल्ली)