Wednesday, November 13, 2024
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वैदिक वाङ्मय में नारी का स्थान

हर साल 26 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय महिला समानता दिवस मनाया जाता है। स्वघोषित लिबरल, नारीवादी और अंबेडकरवादी हमेशा चिल्लाते रहते हैं कि सनातन धर्म मे नारी का सम्मान नहीं है। जबकि सत्य तथ्य इसके बिलकुल विपरीत है। सनातन धर्म का मूल वेद है। वेद मे कन्या, महिला, पत्नी, माँ, बेटी, बहन व गृहणी के विषय मे अनेक मंत्र हैं। उनमे से कुछ देखिए —
वेद में पत्नी के अधिकार
यथा सिन्धुर्नदीनां साम्राज्यं सुषुदे वृषा।
एथा त्वं सम्राज्ञ्‌येधि पत्युरस्तं परेत्य।। (अथर्ववेद 14.1.43)
(यथा) जैसे (वृषा) वर्षा करने मे सामर्थ्यवान /बलवान्‌ (सिन्धुः) बादलों और सागरों के जल समूह (नदीनाम्‌) जल धाराओं का (साम्राज्यं) साम्राज्य- चक्रवर्ती राज्य उत्पन्न / प्रेरित किया है। हे वधू! (एव) वैसे (त्वम्‌) तू (पत्युः) पति के (अस्तम्‌) घर (परेत्य) पहुँचकर (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो।
सम्राज्ञ्येधि श्वशुरेषु सम्राज्ञ्‌‌युत देवृषु।
ननान्दुः सम्राज्ञ्‌येधि सम्राज्ञ्युत श्वश्रवाः।। (अथर्ववेद 14.1.44)
हे वधू ! तू (श्वशुरेषु) अपने ससुर आदि गुरुजनों के बीच (साम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (उत) और (देवृषु) अपने देवरों आदि कनिष्ठ जनों के बीच (साम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो। (ननान्दुः) अपनी ननद की (साम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो (उत) और (श्वश्रवाः) अपनी सास की (साम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो।
यहाँ साम्राज्ञी शब्द बताता है कि घर मे नव विवाहिता का सम्मान हो और कोई उसे कम ना समझे।
एक गृहणी कह रही है –
अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचनी |
ममेदनुक्रतुं पतिः सेहानाया उपाचरेत || (ऋग्वेद 10/159/ 2 )
मैं घर की ध्वजा हूँ, मैं घर का मस्तक/सिर हूँ। मैं तेजस्विनी वाणी वाली हूँ । उत्साह और सहनशीलता के साथ मैं पति का प्रेम पाने की अधिकारिणी हूँ।
मम पुत्राः शत्रुहणो, अथो मे दुहिता विराट्।
उताहमस्मि संजया, पत्यौ मे श्लोक उत्तमः। -(ऋग्वेद 10/159/ 3 )
मेरे पुत्र शत्रुहन्ता हैं, मेरी पुत्री विशेष तेजस्विनी है और मैं भी विजयी मनोबल वाली हूँ। मेरे बारे मे पति के मन में उत्तम कीर्ति का वास है।
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वैदिक विवाह संस्कार मे विवाह में सप्तपदी मे वधू के आगे एक पत्थर रखा जाता है और वधू को कहा जाता है कि इस पत्थर को लांघ जा।
एक वेद मन्त्र यह भाव है –
‘स्योनं ध्रुवं प्रजायै धारयामि तेऽश्मानं देव्याः पृथिव्या उपस्थे
तमा तिष्ठानुमाद्या सुवर्चा दीर्घ त आयुः सविता कृणोतु ॥ -अथर्व० १४।१।४७
हे नारी! तू राष्ट्रभूमि की प्रजा है। तेरी लिए इस दिव्य भूमि के पृष्ठ पर मैं सुखदायक अचल शिलाखण्ड को रखता हूँ। इस शिलाखण्ड के ऊपर तू खड़ी हो, यह तुझे दृढ़ता का पाठ पढ़ाएगा। इस शिलाखण्ड के अनुरूप तू भी वर्चस्विनी बन, जिससे संसार में आनन्दपूर्वक रह सके। सविता परमेश्वर और सूर्य तेरे अन्दर तेज का आधान करके तेरी आयु को सुदीर्घ करें।
आजकल यह वेदमन्त्र तो नहीं बोला जाता परंतु इसके स्थान पर सप्तपदी मे यह वाक्य बोलने की परम्परा है –
अश्म भव, परशु भव, हिरण्यस्त्रात भव –
अर्थात पत्थर की तरह दृढ़ बन, कुल्हाड़े की तरह बाधाओं को काट दे और सोने की तरह चमकती रह ।
कोई कोई पुरोहित पारस्कार गृह्यसूत्र का यह श्लोक बोलते हैं।
आरोहेममश्मानम् अश्मेव त्वं स्थिरा भव
अभितिष्ठ पृतन्यतोऽवबाधस्व पृतनायतः॥ – पारस्कर गृ० सू० १।७।१
तू इस शिला पर आरोहण कर। जैसे यह शिला स्थिर और सुदृढ़ है, ऐसे तू भी स्थिर और सुदृढ़गात्री बन । बाधाओं को परास्त कर।
मंहीमू षु मातरं सुव्रतानामृतस्य पत्नीमवसे हुवेम।
तुविक्षत्रामजरन्तीमुरूची सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्॥ -यजु० २१।५
हे नारी! तू महाशक्तिमती है। तू सुव्रती पुत्रों की माता है। तू सत्यशील पति की पत्नी है। तू भरपूर क्षात्रबल से युक्त है। तू मुसीबतों के आक्रमण से जीर्ण न होनेवाली अतिशय कर्मशील है। तू शुभ कल्याण करनेवाली है। तू शुभ-प्रकृष्ट नीति का अनुसरण करनेवाली है।

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