भारत की सांस्कृतिक धरोहर अत्यंत समृद्ध और विविधतापूर्ण है । प्रत्येक काल में विभिन्न स्रोत इसे और मजबूती प्रदान करते रहे हैं। हिंदी सिनेमा ने केवल लेखकों, साहित्यकारों की रचनाओं को ही नहीं अपितु अनेक भक्त कवियों, संतों की वाणी व कृतियों का भी प्रचुरता से प्रयोग किया । भारत की महान भूमि पर अवतरित हुए अनेक संतों, कवियों की रचनाओं को हिंदी के सिनेमा में बहुधा प्रयोग में लाया गया। उन सभी का वर्णन तो यहां संभव नहीं, उनमें कुछ एक की चर्चा प्रस्तुत है । नरसिंह मेहता
भूमिका निभाई थी। हिंदी सिनेमा भी नरसी भगत के प्रभाव से अछूता नहीं रहा । विजय भट्ट द्वारा 1940 में बनाई गई हिंदी फिल्म ‘नरसी भगत’ को खासी प्रसिद्धि मिली थी जिसमें विष्णुपंत पगणीस और दुर्गा खोटे ने प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं। 1957 में आई देवेंद्र गोयल निर्देशित हिंदी फिल्म ‘नरसी भगत’ भी उल्लेखनीय रही।
नरसी भगत का लिखा ‘वैष्णव जन तो… ‘तो महात्मा गांधी का प्रिय भजन होने के कारण इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि उसे अनेक फिल्मों में सम्मिलित किया गया। ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड़ पराई जाने रे…’ लिखने वाले गुजरात में जन्मे महान भक्त – कवि और संत नरसिंह मेहता (जिन्हें नरसी मेहता, नरसी भगत आदि नामों से भी जाना जाता है) भक्ति – काल के प्रमुख कवियों में से थे। गुजराती भक्ति – साहित्य की श्रेष्ठतम विभूति के तौर पर ख्यात नरसी भगत ने विशेषकर कृष्ण-भक्ति से जुड़े अनेक पदों की रचना की। उन्हें गुजराती का ‘आदि कवि’ भी कहा जाता है।
भारत में 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ के बाद जब 1932 में पहली गुजराती सवाक् फिल्म बनी तो वह नरसी मेहता पर थी । नानूभाई वकील के निर्देशन में बनी इस फिल्म का नाम था ‘नरसिंह मेहता’ और इसमें मास्टर मनहर ने शीर्षक 2007 की ‘वॉटर’, 2010 की ‘रोड टू संगम’, 2011 में आई ‘गांधी टू हिटलर’, 2015 की ‘गौर हरि दास्तान’ जैसी कई फिल्मों में यह भजन शामिल किया गया ।
स्वामी विवेकानंद के जीवन और उनके दर्शन को फिल्मों, टी.वी. धारावाहिकों आदि में कई बार चित्रित किया गया । 1955 में आई निर्माता-निर्देशक अमर मल्लिक की हिंदी फिल्म ‘स्वामी विवेकानंद’ में तलत महमूद के गाए एक गीत ‘मन चलो निज निकेतन में…’ की प्रसिद्धि में स्वामी विवेकानंद का बड़ा योगदान रहा है । दरअसल जब वह पहली बार 1881 में रामकृष्ण परमहंस से मिले थे तो स्वामी जी ने अचानक ही उन्हें कोई भजन सुनाने को कहा था । तब उन्होंने ब्रह्म समाज में गाए जाने वाले अयोध्यानाथ पकराशी के लिखे इस बांग्ला
गीत ‘मन चलो निजो निकेतने… को ही रामकृष्ण को सुनाया था। रामकृष्ण को यह भजन अतिप्रिय हो गया और बाद में विवेकानंद की ख्याति बढ़ने के साथ-साथ यह गीत भी लोकप्रिय होता चला गया ।
1998 में आई जी. वी. अय्यर निर्देशित हिंदी व अंग्रेजी में बनी फिल्म ‘स्वामी विवेकानंद’ में इस गीत को हिंदी में गुलजार ने लिखा और येसुदास ने ‘चलो मन घर जाएं अपने…’ के रूप में गाया था । इसी फिल्म में स्वयं विवेकानंद का लिखा बांग्ला गीत ‘नाही सुरजो नाही ज्योति….’ भी था । 2013 में
आई उत्पल सिन्हा निर्देशित बांग्ला – हिंदी फिल्म ‘द लाइट – स्वामी विवेकानंद’ में भी ‘मन चलो निज निकेतन…’ व ‘नाही सूर्यो नाही ज्योति…’ शामिल किए गए थे।
यह असल में कवि बाल्मिकी रचित ‘रामायण’ का तमिल स्वरूप है जिसे आम भाषा में ‘कंब रामायण’ भी कहा जाता है । अन्य भक्त कवियों की ही भांति कम्बर के रचे को भी फिल्मों, टेलीविजन आदि में उपयोग में लाया गया। तमिल में तो उनके रचे को बहुत बार प्रयोग में लाया ही गया, दूरदर्शन पर जब रामानंद सागर का लोकप्रिय धारावाहिक ‘रामायण’ आया था, उसके निर्माण में भी ‘कंब रामायण’ की सहायता ली गई थी ।
कबीर ने जो पद, शब्द, दोहे, चौपाइयां आदि रचे उनमें हिंदी की लगभग सभी बोलियों – राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी, ब्रज, खड़ी बोली आदि के शब्द बहुलता से देखने को मिले।
साथ-साथ भक्ति परंपरा के प्रमुख स्तंभों में गिने जाने वाले मैथिली भाषा के सर्वोपरि कवि विद्यापति के जीवन पर 1964 में ‘विद्यापति’ नाम से प्रहलाद शर्मा के निर्देशन में एक हिंदी फिल्म आई थी जिसमें भारत भूषण, सिमी ग्रेवाल आदि थे। इस फिल्म में हालांकि विद्यापति के लिखे पदों को सीधे इस्तेमाल नहीं किया गया था लेकिन इस फिल्म के गीतों के लिए उनके पदों से प्रेरणा ली गई थी। 2014 में आई एक हिंदी फिल्म ‘हे भोलेनाथ’ में विद्यापति के लिखे पद सुनाई पड़ते हैं।
1942 में रामेश्वर शर्मा के निर्देशन में भारत भूषण, मेहताब वाली हिंदी की ‘भक्त कबीर’ आई। 1954 में आई गजानन जागीरदार के निर्देशन में बनी हिंदी फिल्म ‘महात्मा कबीर’ विशेष तौर पर याद की जाती है। इस फिल्म में कबीर के लिखे कई पदों को संगीतकार अनिल विश्वास ने धुनों में पिरोया था । 1978 में आई हीरेन नाग निर्देशित फिल्म ‘अंखियों के झरोखे से’ में कबीर के लिखे तीन दोहे गाए गए थे। 1978 में ही आई श्याम बेनेगल निर्देशित ‘जुनून’ में भी संत कबीर के लिखे पर आधारित एक गीत था । 1987 में बनी श्याम बेनेगल निर्देशित ओम पुरी वाली फिल्म ‘सुस्मन’ में कबीर की लिखी रचनाएं शामिल की गई ।
1954 में रिलीज हुई आई. एस. जौहर निर्देशित ‘नास्तिक’ की शुरूआत कबीर के लिखे ‘बन में गए हम बिरछा देखे…’ से हुई थी । 1985 में आई अमोल पालेकर निर्देशित फिल्म ‘अनकही’ में कबीर दास का लिखा ‘कौनो ठगवा नगरिया लूटल हो…’ को आशा भोंसले ने गाया था । गुलजार निर्देशित फिल्म ‘लेकिन’ (1991) में कबीर के लिखे ‘तेरा मेरा मनवा कैसे इक होई रे..’ को लता मंगेशकर ने गाया था ।
गोस्वामी तुलसीदास के रचे दोहे, पद, गीत, चौपाइयां इत्यादि सिनेमा में अनगिनत बार आए । 1934 में एन.जी. देवारे के निर्देशन में फिल्म ‘संत तुलसीदास’ आई जिसमें तुलसी के लिखे ‘सुख स्वामिनी तू आदि देवता…’ पर आधारित एक गीत था। 1934 में ही आई विठ्ठलदास पंचोटिया के लेखन – निर्देशन वाली फिल्म ‘इंसाफ की तोप’ में तुलसी के दोहे ‘नामु राम को कल्पतरु…’ को गीत की शक्ल में प्रस्तुत किया गया। तुलसीदास रचित श्रीराम की आरती ‘श्रीरामचंद्र कृपालु भजुमन…’ को तो अनगिनत बार सिनेमा में इस्तेमाल किया गया। 1934 में आई प्रफुल्ल रॉय निर्देशित ‘रामायण’ से लेकर ‘भरत मिलाप’ (1942), ‘कलयुग और रामायण’ (1987) जैसी फिल्मों के अतिरिक्त तुलसीदास के लिखे इस गीत को गीतकारों ने अपने हिसाब से बदल-बदल कर भी फिल्मों में प्रयोग किया। ‘मंगल भवन अमंगल हारी…’
भक्तिकाल के कवियों में अग्रणी रहीं मीरा बाई पर हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में फिल्में भी बनीं। 1933 में देवकी बोस के निर्देशन में पहाड़ी सान्याल, मोलिना देवी आदि वाली फिल्म ‘मीराबाई’ आई। यह एक द्विभाषी फिल्म थी जो बांग्ला के साथ-साथ हिंदी में ‘राजरानी मीरा’ के नाम से आई थी जिसमें पृथ्वीराज कपूर, दुर्गा खोटे, के. एल. सहगल आदि थे। 1945 में बनी एलिस आर. डंकेन निर्देशित तमिल फिल्म ‘मीरा’ अपने समय में इस कदर पसंद की गई कि दो बरस बाद 1947 में इसे हिंदी में डब कर के रिलीज किया गया जिसमें कुछ दृश्य अलग से भी जोड़े गए। इस फिल्म में प्रख्यात शास्त्रीय गायिका एम.एस. सुब्बालक्ष्मी ने मीरा की भूमिका निभाने के अलावा मीरा के लिखे ‘मेरे तो गिरधर गोपाल…’, ‘मैं हरि चरनन की दासी…’, ‘नंद बाला मोरा प्यारा…’, ‘चाकर राखो जी माने…’ जैसे 18 भजनों को गाया भी था। 1947 में आई डब्ल्यू. जेड. अहमद की ‘मीराबाई’ में भी मीरा के लिखे बहुत सारे भजन थे। गुलजार निर्देशित हिंदी फिल्म ‘मीरा’ (1979) में मीरा के लिखे ‘ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी…’, ‘जागो बंसी वाले ललना…’, ‘करना फकीरी फिर क्या दिलगीरी …’ जैसे गीत काफी पसंद किए गए।
हीरेन नाग निर्देशित ‘गीत गाता चल’ में जसपाल सिंह ने तुलसी कृत अनेक चौपाइयों पर आधारित गीत ‘मंगल भवन अमंगल हारी…’ को गाया । 1978 में आई हीरेन नाग निर्देशित फिल्म ‘अंखियों के झरोखे से’ के दोहा-प्रतियोगिता वाले गीत में तुलसीदास का भी एक दोहा ‘आवत ही हरषै नहीं…’ नायक सचिन द्वारा गाया गया था। 1985 में आई अमोल पालेकर निर्देशित फिल्म ‘अनकही’ में तुलसी के लिखे ‘रघुवर तुम को मेरी लाज….’ को पंडित भीमसेन जोशी ने गाया था। तुलसी रचित ‘हनुमान चालीसा’ भी बहुत सारी फिल्मों में गाई गई। उनके रचे ‘ठुमक चलत रामचंद्र….’ को भी 1962 में आई फिल्म ‘राज नंदिनी’ समेत कुछ एक फिल्मों में लिया गया ।
मीरा बाई के लिखे ‘मेरे तो गिरधर गोपाल…’, ‘म्हाने चाकर राखो जी…’, ‘जोगी मत जा मत जा…’, ‘ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी…, ‘जो तुम तोड़ो पिया मैं नाहीं तोडूं रे..’, ‘नाथ तुम जानत हो सब घट की…’, ‘दरस बिन दूखन लागे नैन…’, ‘बसो मोरे नैनन में नंदलाल…’, ‘पायो जी मैंने राम रतन धन पायो…’, ‘पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे…’, ‘मैं तो गिरधर के घर जाऊं…’, ‘श्री गिरधर आगे नाचूंगी…’, ‘मैं बिरहन बैठी जागूं…’, ‘माई मोहे लागे वृंदावन नीको…’, ‘राणा जी मैं तो गोविंद के गुण गासूं…’ जैसे बेशुमार भजन व पदों को फिल्मों में इस्तेमाल किया गया।
ब्रजभाषा के महान कवि सूरदास के रचे लोकप्रिय भजन ‘प्रभु, मेरे औगुन चित न धरौ…पर आधारित गीत अनेक बार फिल्मों में आए। सबसे पहले ‘प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो… 1934 में आई फिल्म ‘द मिल’ (मजदूर) में आया जो प्रेमचंद की लिखी कहानी पर आधारित थी । 1972 में आई के. बी. तिलक की फिल्म ‘कंगन’ में यह गीत अशोक कुमार ने गाया था। 1985 में आई के. विश्वनाथ की फिल्म ‘सुर संगम’ में यही गीत एस. जानकी ने गाया था । 1998 में आई जी. वी. अय्यर निर्देशित हिंदी व अंग्रेजी में बनी ‘स्वामी विवेकानंद’ में यह गीत कविता कृष्णमूर्ति की आवाज में था । इस फिल्म में सूरदास का लिखा एक और गीत ‘रे मन कृष्ण नाम कही लीजै….जो कृष्ण-भक्ति के सबसे लोकप्रिय गीतों में गिना जाता है
संस्कृत के महान कवि और नाटककार कालिदास के नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’ पर स्वयं भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के ने ‘मालविका मित्र’ के नाम से एक मूक फिल्म 1929 में बनाई थी। दूरदर्शन पर ‘मालविकाग्निमित्रम्’ नाम से एक धारावाहिक भी आया था । कालिदास के नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ पर सबसे पहले मूक फिल्म ‘शकुंतला’ 1920 में बनी। बाद में इस नाम से कई बार मूक फिल्में बनीं। हिंदी में विजया मेहता ने 1986 में इसी नाम से एक टेली- फिल्म का निर्माण किया ।
कालिदास के रचे खंडकाव्य ‘मेघदूतम्’ पर 1945 में आई देवकी बोस की ‘मेघदूत’ काफी चर्चित रही। मेघ को दूत बना कर अपना संदेश पहुंचाने की मिन्नत करने वाले कई गीत भी फिल्मों में मिलते हैं। कांजी भाई राठौड ने 1920 में एक मूक फिल्म ‘विक्रम उर्वशी’ बनाई थी जो कालिदास के नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम् ́ पर आधारित थी ।
। राज कपूर अभिनीत फिल्म ‘गोपीनाथ’ (1948) में नीनू मजूमदार और मीना कपूर ने सूर का लिखा ‘आई गौरी राधिका ब्रज में बल खाती…’ गाया। गीता दत्त ने फिल्म ‘पैसा’ (1957) में सूर का लिखा गीत ‘तुम मेरी राखो लाज हरि…’ गाया । सूर के लिखे पद ‘ऊधौ कर्मन की गति न्यारी…’ को आधार बना कर फिल्म ‘शहंशाह अकबर’ (1943 ) का गीत ‘करमन की रेखा न्यारी टरे न टारी..’ लिखा गया था।
1942 में चतुर्भज दोषी के निर्देशन में आई ‘भक्त सूरदास’ में सहगल की आवाज में आया ‘ निसिदिन बरसत नैन हमारे…’ सूर का लिखा हुआ था। इस फिल्म में ‘मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो…’ भी था
कालिदास के ‘मेघदूतम्’ की शुरूआती पंक्तियों से शब्द लेकर नाटककार मोहन राकेश ने 1958 में एक नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ लिखा था इस पर फिल्मकार मणि कौल ने 1971 में इसी नाम से एक फिल्म भी बनाई थी ।
महर्षि वाल्मीकि की रची रामायण और उस पर आधारित तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ पर सिनेमा में बहुत कुछ बन कर सामने आया। जी. वी. साने की बनाई मूक फिल्म ‘वाल्मीकि’ 1921 में आई थी । उसी साल सुरेंद्र नारायण रॉय की मूक फिल्म ‘रत्नाकर’ भी आई थी। 1946 में भालजी पेंढारकर ने पृथ्वीराज कपूर और शांता आप्टे को लेकर हिंदी में ‘वाल्मीकि’ बनाई थी । राम, लक्ष्मण, सीता आदि चरित्रों पर सिनेमा में जो कुछ भी बन कर आया उसका प्रथम श्रेय भी महर्षि वाल्मीकि को ही दिया जाना उचित होगा ।
‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी…’ श्लोक भी महर्षि वाल्मीकि का ही रचा हुआ है। इस श्लोक पर आधारित एक गीत उत्पल सिन्हा निर्देशित बांग्ला – हिंदी फिल्म ‘द लाइट – स्वामी विवेकानंद’ (2013) में सुनाई देता है ।
संत रविदास या रैदास के जीवन से प्रेरित होकर कई फिल्मों व धारावाहिकों का निर्माण हुआ। 1943 में केशवदास धेबर के निर्देशन में आई ‘भक्त रैदास’ इस दिशा में पहला प्रयास मानी जाती है । इस फिल्म के कई गीतों के बोल रविदास के रचे भजनों पर आधारित थे। 1983 में आई ‘संत रविदास की अमर कहानी’ के निर्देशक बाबूभाई मिस्त्री थे। इस फिल्म के अधिकांश गीतों में संत रविदास की रचनाओं को’ज्यौंहि – ज्यौंहि तुम रखत हो…’, ‘श्री वल्लभ कृपानिधान अतिउदार करुनामय…’, ‘डोल आज़ादी का झूले श्याम – श्याम सहेली …’ जैसे इन पदों से प्रेरित होकर अनेक भक्ति-गीत रचे गए जिन्हें फिल्मों में भी प्रयोग में लिया गया। एस. एन. त्रिपाठी की 1962 में आई भारत भूषण, अनीता गुहा वाली हिंदी फिल्म ‘संगीत सम्राट तानसेन’ में मन्ना डे ने स्वामी हरिदास का रचा एक पद ‘सप्त सुरन तीन ग्राम, उनचास कोटि ‘ गाया था। दिखा दे हे गंगा मैया…’, ‘ऐसी लाल तुझ बिन कौन करे…’, ‘श्याम सलोने सामने आओ…’ जैसे अनेक गीत बहुत पसंद किए गए। इनके अतिरिक्त ‘अमर कहानी रविदास जी की’ के अतिरिक्त और भी कुछ एक फिल्मों में संत रविदास के भजनों को उपयोग में लाया गया ।
चैतन्य महाप्रभु के रचे पदों से प्रेरित अनेक भजन लिखे गए जिनका प्रयोग सिनेमा में भी हुआ । महाप्रभु के दिए मंत्र ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण…’ को भी कई फिल्मों में लिया गया। देव आनंद ने तो इस मंत्र के शब्दों पर ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ नाम से 1971 में एक फिल्म ही बना दी थी जिसमें ‘हरे राम हरे कृष्णा…’ गीत कई बार आता है। चैतन्य महाप्रभु के जीवन पर बहुत सारी फिल्में बनीं। विजय भट्ट के निर्देशन में 1953 में एक हिंदी फिल्म ‘श्री चैतन्य महाप्रभु’ आई थी। इस फिल्म के लिए गीतकार भरत व्यास ने जो 15 गीत लिखे उन्हें भी काफी सराहा गया। इनमें से कई गीतों की प्रेरणा चैतन्य महाप्रभु के रचे पदों से ही ली गई थी ।
स्वामी हरिदास ने सवा सौ से अधिक पदों की रचना की थी। ‘गहौ मन सब रस को रस सार…’,बोल हरि बोल मुकुंद माधव गोविंद बोल…’ गाकर उन्हें थपकी दिया करती थीं । विजय आनंद की फिल्म ‘जॉनी मेरा नाम’ (1970) में गीतकार इंदीवर ने इसी पर एक गीत ‘गोविंद बोलो हरि गोपाल बोलो…’ रचा था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं फिल्म समीक्षक हैं)
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