Wednesday, March 26, 2025
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अंग्रेजों के जहाज डाँवाडोल हो जाते थे कोणार्क के सूर्य मंदिर से

कोणार्क सूर्य मंदिर की चुंबकीय शक्ति इतनी ताकतवर थी कि जब इस मंदिर के निकट से अंग्रेजों के समुद्री जहाज गुजरते हुए मंदिर के चुंबकीय परिधि में आ जाते थे, तो उनके ‘दिशा निरूपण यंत्र’ काम करना बंद कर देते थे। परिणामस्वरूप जहाज दिशा बदलकर मंदिर की ओर खिंचे चले आते थे। इस कारण इन सागरपोतों को भारी नुकसान होता था। अतएव अंग्रेज शासकों ने जब इस रहस्य को जान लिया तब उन्होंने मंदिर के शिखर को हटा दिया। चूंकि यह शिखर केंद्रीय चुंबकत्व का केंद्र था, इसलिए इसके हटते ही मंदिर की दीवारों से जो चुबंक-पट्टिकाएं आबद्ध थीं, उनका संतुलन बिगड़ गया और मंदिर के पत्थर खिसकने लगे। गोया, मंदिर का मूलस्वरूप तितर-बितर हो गया।

भारत ही नहीं वर्तमान दुनिया में केवल पांडुलिपियों और पुस्तकों को ज्ञानार्जन का आधार माना जाता है। इसीलिए भारत में जब आक्रांता आए तो उन्होंने मंदिर और पुस्तकालयों का एक साथ विनाश किया। नालंदा विश्वविद्यालय इसका प्रमुख उदाहरण है। यहां के पुस्तकालय में करीब दो लाख पांडुलिपियां सुरक्षित थीं। इनमें खगोल विज्ञान, गणित, ज्योतिष, वास्तुशास्त्र, आयुर्वेद, युद्धकला, पशु चिकित्सा और धर्म संबंधी पांडुलिपियां थीं, जिनमें ज्ञान का अकूत भंडार था।

इसी तरह जो भी भारत के प्राचीन मंदिर हैं, वे खगोल विज्ञान, भौतिकी, प्रकृति और ब्रह्मांड के रहस्यों की खुली किताब को मूर्तियों के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं। मूर्ति और स्थापत्य कला के भी ये मंदिर अद्भुत नमूने हैं। भारत ज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी न रहने पाए, इसलिए आक्रांता जो भी रहे हों, उन्होंने इन दोनों ही प्राचीन धरोहरों को नष्ट करने का काम निर्ममतापूर्वक किया।

तुर्की शासक बख्तियार खिलजी ने 1199 में नालंदा पुस्तकालय में आग लगाई थी। ये दो लाख पुस्तकें और पांडुलिपियां करीब तीन माह तक सुलगती रही थीं। आग लगाने के जिस कारण को लेकर खिलजी को भारतीय वैद्याचार्य के प्रति कृतज्ञता जताने की जरूरत थी, उसके बदले में उसने पुस्तकालय को तो अग्नि को होम किया ही, अनेक वैद्यों और हिंदू व बौद्ध धर्म के लोगों की भी हत्या कर दी थी। इसी समय खिलजी ने बौद्धों द्वारा शासित राज्यों को अपने आधिपत्य में ले लिया था।

इतिहासकार बताते हैं कि खिलजी एक समय बहुत अधिक बीमार पड़ गया था। उसके साथ आए हकीम उसका उपचार करने में असफल रहे। तब उसने नालंदा विवि के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख राहुल श्रीभद्रजी से इलाज कराया। खिलजी ठीक भी हो गया। लेकिन जब उसे यह ज्ञात हुआ कि उपचार की ये पद्धतियां विवि के पुस्तकालय की पांडुलिपियों में सुरक्षित हैं, तब उसने इसे आग के हवाले कर दिया।

इन मुगल शासकों ने कलिंग राज्य को आधिपत्य में लेकर यहां के सूर्यमंदिर को भी नष्ट करने की कोशिश की थी। लेकिन इस कालखंड में यहां गंगवंश के सूर्यवंशी शासक थे। पूरी राज्य की मंदल-पंजी के अनुसार 1278 ईंसवीं के ताम्रपत्रों से पता चला कि यहां 1238 से लेकर 1282 तक यही लोग शासक रहे थे। ये शक्तिशाली सम्राट होने के साथ कुशल योद्धा भी थे।

भारत में नरसिंह देव के पिता अनंगदेवभीम ऐसे बिरले शासकों में से एक हुए हैं, जिन्होंने तुर्क-अफगानी हमलावरों को कलिंग (प्राचीन ओडीशा) में न केवल घुसने से रोका, बल्कि इस्लामी शासन के विस्तार पर भी अंकुश लगा दिया था। अनंगभीम देव ने तुर्क और अफगानों को कलिंग की धरती से खदेड़ने के लिए वही तरीके अपनाए, जो मुस्लिम हमलावर अपनाते थे। अर्थात उन्होंने छापामार युद्ध प्रणाली और चालाकी बरतते हुए भी इन आक्रांताओं पर हमले किए। इस परंपरा को नरसिंह देव ने भी अक्षुण बनाए रखा।

अनंगभीम देव ने मुस्लिमों को पराजित करने की प्रसन्नता में कोणार्क मंदिर की नींव रखी, जिसे उनके पुत्र नरसिंह देव ने आगे बढ़ाया और फिर अनंगभीम के पोते नरसिंह देव द्वितीय ने इस मंदिर को चुंबकीय तत्व मिश्रित पत्थरों और इस्पात की पटटियों से कुछ इस विलक्षण ढंग से निर्मित कराया कि भगवान सूर्यदेव की प्रतिमा अधर में स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। यह प्रतिमा भौतिकी के सिद्धांत पर वायु में प्रतिष्ठित की गई थी। इस मंदिर का निर्माण 1250 में शुरू होकर 1262 में समाप्त हुआ।

कोणार्क का संधि-विच्क्षेद करने पर ‘अर्क‘ का अर्थ ‘सूर्य‘ और ‘कोण‘ के मायने ‘कोना‘ निकलता है। यह मंदिर पूरी के पश्चिमी भाग में चंद्रभागा नदी के तट पर बना है। यह नदी नीले पानी से लबालब रहती है। इस मंदिर की विशेषता मंदिर के गुंबद पर 52 टन का रखा चुंबकीय तत्वों से मिश्रित पत्थर का शिखर था। साथ ही मंदिर की चैड़ी दीवारों में लोहे की ऐसी पट्टिकाएं लगाई गईं थीं, जिनमें प्रभावशाली चुंबक था।

इन पट्टियों और शिखर को स्थापित करने में कुछ ऐसी अनूठी तकनीक अपनाई गई थी, जिस कारण भगवान सूर्यदेव की मुख्य प्रतिमा बिना किसी सहारे के हवा में तैरती रहती थी। उस कालखंड में सूर्यमंदिर इसलिए बनाए जाते थे, क्योंकि हिंदू मान्यता के अनुसार सूर्य एकमात्र ऐसे देवता हैं, जो प्रत्यक्ष रूप में आंखों से दिखाई देते हैं। सूर्य की अराधना से श्रृद्धालुओं को साकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है।

इस मंदिर की कल्पना सूर्यरथ से की गई है। रथ में 12 जोड़े विशाल पहिये लगे हुए हैं, इनमें आठ तीलियां हैं। इस रथ को सात शक्तिशाली घोड़े तीव्र गति से खींच रहे हैं। इस रथ के प्रतीकों को समझने से पता चलता है कि 12 जोड़ी पहिये दिन और रात के 24 घंटे दर्शाते हैं। ये पहिये वर्ष मे 12 माह होने के भी द्योतक हैं। पहियों में लगी आठ तीलियां दिन और रात के आठों प्रहर की प्रतीक हैं। मंदिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं। उदित सूर्य, यह मूर्ति सूर्य की बाल्यावस्था की प्रतीक है, जिसकी ऊंचाई आठ फीट है। युवावस्था के रूप में मध्यान्ह सूर्य की प्रतिमा है, जिसकी ऊंचाई 9.5 फीट है। तीसरी प्रतिमा प्रौढ़ावस्था यानी अस्त होते सूर्य की है, जिसकी ऊंचाई तीन फीट है। साफ है, यह मंदिर प्रकृति की दिनचर्या को मूर्त रूप में अभिव्यक्त करता है।

इस मंदिर की चुंबकीय शक्ति इतनी ताकतवर थी कि जब इस मंदिर के निकट से अंग्रेजों के समुद्री जहाज गुजरते हुए मंदिर के चुंबकीय परिधि में आ जाते थे, तो उनके ‘दिशा निरूपण यंत्र‘ काम करना बंद कर देते थे। परिणामस्वरूप जहाज दिशा बदलकर मंदिर की ओर खिंचे चले आते थे। इस कारण इन सागरपोतों को भारी नुकसान होता था। अतएव अंग्रेज शासकों ने जब इस रहस्य को जान लिया तब उन्होंने मंदिर के शिखर को हटा दिया। चूंकि यह शिखर केंद्रीय चुंबकत्व का केंद्र था, इसलिए इसके हटते ही मंदिर की दीवारों से जो चुबंक-पट्टिकाएं आबद्ध थीं, उनका संतुलन बिगड़ गया और मंदिर के पत्थर खिसकने लगे। गोया, मंदिर का मूलस्वरूप तितर-बितर हो गया।

कोणार्क सूर्य मंदिर का इतिहास इसकी वास्तुकला की तरह ही आकर्षक है। पूर्वी गंगा राजवंश के राजा नरसिंहदेव ने इसे बनवाया था। ऐसा माना जाता है कि इस जटिल नक्काशीदार मंदिर को जीवंत बनाने के लिए लगभग 1200 कारीगरों ने लगभग 12 वर्षों तक काम किया। माना जाता है कि कोणार्क सूर्य मंदिर के अंदर स्थित मंदिर 16वीं शताब्दी के मध्य तक पूजा का एक लोकप्रिय स्थान था।

महान पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने कोणार्क सूर्य मंदिर को एक ऐसी जगह के रूप में वर्णित किया है जहाँ पत्थरों की भाषा इंसानों की भाषा से बढ़कर है। कलिंग शैली की वास्तुकला के बेहतरीन उदाहरणों में से एक, ओडिशा में कोणार्क सूर्य मंदिर, बारह जोड़ी पहियों वाले सूर्य देव के रथ के रूप में बनाया गया है। इस रथ को सात विशाल पत्थर के घोड़े खींचते हैं। कोणार्क सूर्य मंदिर की भव्यता और जिस पैमाने पर इसे बनाया गया है, वह किसी को भी मंत्रमुग्ध कर देने के लिए पर्याप्त है।

आमतौर से सूर्य को प्रकाश और गर्मी का अक्षुण्ण स्रोत माना जाता है। परंतु जब सूर्य दक्षिणायन रहते हैं, तब मौसम ठंडा रहता है और जब मकर संक्रांति के दिन से सूर्य उत्तरायण होने लगते हैं, यानी उत्तर की ओर गमन करने लगते हैं, तो ठंड कम होने लगती है और दिन बड़े होने लगते हैं। इस स्थिति के निर्माण का कारक पुराणों में सूर्य के रथ का एक पहिए का होने का मिथक जुड़ा है। सूर्य की गतिशीलता से जुड़ा यह मिथक नितांत सार्थक और निरंतर प्रासंगिक बना रहने वाला है। यदि सूर्य रथ में दो पहिए होते तो उसमें ठहराव आ सकता था। सूर्य की गति में स्थिरता का अर्थ था, सृष्टि का सर्वनाश !

अब वैज्ञानिक भी मान रहे हैं कि यदि सूर्य की गति में ठहराव आ जाए तो पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी जीव-जंतु तीन दिन के भीतर मर जाएंगे। सूर्य के स्थिर होने के साथ ही वायुमंडल में उपलब्ध समूची जलवाष्प ठंडी होकर बर्फ में बदल जाएगी और समूचे ब्रह्मांड में शीतलता छा जाएगी। फलतः कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह पाएगा।

करीब पचास करोड़ वर्ष पहले अस्तित्व में आए इस प्रकाशित सूर्य की प्राणदायिनी ऊर्जा की रहस्मयी शक्ति को भरतीय ऋषियों ने छह हजार साल पहले ही समझ लिया था। अतएव वे ऋग्वेद में लिख गए थे, ‘आप्रा द्यावा पृथिवी अंतरिक्षः सूर्य आत्मा जगतस्थश्च।‘ अर्थात विश्व की चर तथा अचर वस्तुओं की आत्मा सूर्य ही है। इसीलिए वैदिक काल के पूर्व से ही सूर्योपासना ज्ञान और प्रकाश को अंतर में एकत्रीकरण के लिए मनुष्य करता आ रहा है। चंद्रमा की चमक भी सूर्य के आलोक में अंतर्निहित है।

एक चक्रीय सूर्य की कल्पना काल (संक्रांति) की गति के रूप में भी की गई है। अतएव सूर्य का महत्व खगोल और ज्योतिष के साथ अध्यात्म में भी है। खगोल विज्ञानियों का मानना है कि उत्तरी व दक्षिणी छोर के अंतिम बिंदु अर्थात कर्क व मकर रेखा तक सूर्य की रोशनी एकदम सीधी (लंबवत्) पड़ती है। पृथ्वी के उत्तरी गोलाद्र्ध में कर्क रेखा से सूर्य जब दक्षिण की ओर बढ़ता है तो दक्षिणायन और जब मकर रेखा से उत्तर हो जाता है तो उत्तरायण कहलाता है।

इन दोनों स्थितियों के निर्माण में छह मास का समय लगता है। महाभारत के योद्धा पितामाह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही प्राण छोड़े थे। वैदिक मान्यता है कि देवताओं का निवास उत्तरी ध्रुव और दैत्यों का आवास दक्षिणी ध्रुव है। इसलिए भी उत्तरायण सूर्य को जीव-जगत के लिए शुभ माना जाता है।

सूर्य के एक चक्रीय रथ में सात घोड़ों के जुते होने की कल्पना ऋषियों ने की हैं। इन अश्वों को नियंत्रित करने में जो वल्गाएं सौर-रश्मियां परिलक्षित होती हैं, वही सात प्रकार की किरणें हैं। अब विज्ञान ने इन सात किरणों के अस्तित्व को मान लिया है और इनके पृथक-पृथक महत्व को समझने में लगा है। अब तक के शोधों से ज्ञात हुआ है कि सूर्य किरणों के अदृश्य हिस्से में अवरक्त और पराबैंगनी किरणें होती हैं। भूमंडल को गर्म रखने और जैव-रासायनिक क्रियाओं को तेज बनाए रखने का काम अवरक्त किरणें और जीवधारियों के शरीर में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने का काम पैराबैंगनी किरणें करती हैं। हालांकि इनमें पैराबैंगनी-सी किरणें अत्यंत घातक होती हैं।

इस घातक विकिरण से बचने के लिए ही उगते सूर्य की ओर मुख करके तांबे के पात्र में भरे जल से मकर संक्रांति के दिन सूर्य को अघ्र्य देने का विशेष विधान है। ओजोन परत भी इन किरणों को अवरुद्ध करती हैं। सब-कुल मिलाकर सूर्य रथ का एक चक्रीय होना गतिशील बने रहने का द्योतक है। गतिशीलता ही मनुष्य की मूल प्रकृति है। ठहराव का अर्थ जीवन का शुष्क व निष्क्रिय हो जाना है। स्थिरता एक तरह का विकार है, जो जीवन और प्रकृति को जड़ता में बदल सकता है। जड़ता, ऐसी सडांध है, जो मृत्यु का पर्याय बन जाती है। अतएव गतिशीलता जीवन का अनिवार्य हिस्सा  बनी रहनी चाहिए।

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