Monday, December 30, 2024
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अजरबेजान में भी फली फूली है सनातन संस्कृति

हम प्राचीन और मध्य काल में भारत के विस्तार के बारे में चर्चा तो करते हैं लेकिन शायद हम उतनी गहराई से उस विस्तार के बारे में सोच नही पाते। हमारी भौगालिक सीमाएं चाहे जो भी रही हों लेकिन वाणिज्यिक और सांस्कृतिक विस्तार बहुत व्यापक था इसके प्रमाण हमें निरंतर मिलते रहते हैं। दक्षिण एशिया तथा दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में तो ऐसे अनेकों प्रमाण हमें देखने को मिलते हैं जो उन देशों में भारतीय प्रभाव को दर्शाते हैं। लेकिन पश्चिम एशिया के देश जो यूरोप के प्रभाव में ज्यादा हैं वहां ऐसा कुछ देखने को मिले तो वो विशेष कौतूहल जगाता है।
अज़रबैजान की राजधानी बाकू के निकट सुराखानी कस्बा है जहां स्थित है आतेशगाह फायर टेंपल। यहां जाने पर आपको भारतीय वाणिज्य और संस्कृति के विस्तार का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। एक बहुत सुंदर पंच कोणीय किले नुमा परिसर में प्रवेश करते ही आप एक अलग अनुभूति करते हैं। कहा जाता है कि 1745 ईस्वी में यहां भारतीय व्यापारियों द्वारा इसकी स्थापना की गई थी। यह मंदिर हमारे पारंपरिक मंदिरों जैसा नहीं है। इसके मध्य में अग्नि प्रज्वलित रहती है और उसी की उपासना यहां की जाती है।
अज़रबैजान अपने तेल के कुओं के कारण प्रसिद्ध है। कहा जाता हैं कि भूमि से निकलने वाली ज्वलनशील गैस के कारण यहां स्वतः ही अग्नि प्रज्वलित रहती है। यह पूरा परिसर सौ वर्ष पहले तक नियमित उपासना का केंद्र था । बाद में ये एक पर्यटक केंद्र के रूप में विकसित हुआ।
यहां मुख्य मंदिर के ऊपर ही आपको ” श्री गणेशाय नमः” और उसके साथ ज्वाला देवी और शंकर भगवान की स्तुति देवनागरी में उत्कीर्ण दिख जाएगी। साथ ही स्वास्तिक और त्रिशूल जैसे चिन्ह भी। माना जाता है कि सिल्क रूट के माध्यम से अपना व्यापार करने जाने वाले भारतीय व्यापारियों ने इसकी स्थापना की थी। उस काल में कहा जाता है कि एक बड़ी संख्या में भारतीय यहां रहते भी थे। आज भी अज़रबैजान में लगभग डेढ़ हजार भारतीय है। यहां इंडियन एसोसिएशन तो है ही साथ ही मलयाली एसोसिएशन भी है। इसी परिसर में अलग अलग कक्षों में आपको नटराज, गणेश की प्रतिमाएं भी दिख जाएंगी। साथ ही ध्यान और उपचार के भी कक्ष हैं। हम जानते हैं कि ऋग्वेद की पहली ऋचा अग्नि का ही स्तवन है।
लेकिन यह सिर्फ सनातन संस्कृति की ही उपासना का केंद्र नही रहा। पारसी संस्कृति के भी चिन्ह यहां प्रमुखता से हैं। ये जोरास्ट्रियन आराधना स्थल भी हैं। पारसी संस्कृति में अग्नि की ही उपासना होती है । अज़रबैजान में पारसी आबादी भी काफी रही है। आज भी दो हजार पारसी समुदाय के लोग वहां हैं। यहां देवनागरी के साथ कुछ शिलालेख पर्शियन में भी देखने को मिलते हैं। उनमें भी ईश्वर से प्रार्थना का ही भाव है। जोरास्ट्रियन आस्था का प्रमुख केंद्र होने के कारण यहां पहले पारसी लोग बड़ी संख्या में अपनी धार्मिक आस्था के कारण आते थे।
एक और रोचक बात ये है कि इसका संबंध गुरु नानक देव जी और उदासीन साधुओं से भी है। आप यहां गुरुमुखी में लिखा शिलालेख भी पढ़ सकते हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार के टी एस सराव ने दो वर्ष पहले इस पर एक पुस्तक भी लिखी है जिसमे गुरु नानक देव जी और उदासीन साधुओं के इस स्थान के साथ संबंधों का शोध परक विवरण है।
कालांतर में इसे यहां की सरकार द्वारा अधिगृहीत कर लिया गया और इसे एक ऐतिहासिक पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया गया। यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज होने के कारण यहां बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं। आज यहां प्राकृतिक रूप से अग्नि नहीं प्रज्वलित रहती। गैस के प्रवाह से अग्नि जलाए रख कर आपको उस काल का आभास दिया जाता है। साथ ही परिसर में कुछ चबूतरों पर भी आपको अग्नि प्रज्वलित दिख जाएगी जो आपको उस समय का आभास देने के लिए कृत्रिम रूप से जलाई गई है।
बाकू के चारों ओर आपको तेल के कुएं देखने को मिल जाएंगे। शहर के दूसरी ओर कुछ दूरी पर ही एक टीला है जहां भूमिगत हाइड्रो कार्बन के निरंतर रिसने के कारण अग्नि प्रज्वलित रहती है। यानार दाग नामक इस जगह पर जगह जगह से आग निकलते देखना एक अनोखा अनुभव है। वहां तेज हवा चलती है इसलिए आग की भी दिशा और जगह बदलती है। उस टीले को एक बहुत अच्छे पर्यटक स्थान के रूप में विकसित किया गया है। आपको ये टीला देखने के भी टिकट के रूप में अच्छी खासी राशि देनी पड़ती है। यहां शाम के समय कुछ मनोरंजन के कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं।
आतेशगाह का अवलोकन करते हुए हम आश्चर्य में थे कि हमारे पूर्वजों ने कहां कहां तक और कैसे कैसे अपनी संस्कृति और सभ्यता का विस्तार किया। सुबह सुबह जब हम वहां पहुंचे तो अकेले ही थे , इसलिए बहुत सुकून से एक एक चीज देख भी पा रहे थे और समझ भी पा रहे थे। मालविका जी ने तो वहां अपना ” जरा सोचिए” भी रिकॉर्ड किया। लेकिन उसके कुछ समय बाद लगा एक आंधी सी आ गई और एक के बाद एक कई सारे पर्यटक आ गए और परिसर में इधर से उधर धमा चौकड़ी मचाने लगे। कुछ तो उस स्थान पर पहुंच गए जहां मुख्य अग्नि प्रज्वलित हो रही थी और उससे छेड़ खानी करने लगे। कुछ लोगों की इच्छा उस चबूतरे के ऊपर चढ़ कर फोटो खिंचवाने की थी जहां अग्नि प्रज्वलित थी और जिस पर चढ़ना मना था। कुछ परिसर में निर्मित गुफाओं के अंदर बने पुतलों को स्पर्श कर इस बात की पड़ताल करने में लग गए कि कहीं ये सचमुच उसी काल से खड़े मनुष्य तो नही हैं। उनके उत्साह का अतिरेक उस परिसर की शांति और अनुशासन दोनो को भंग करने के लिए पर्याप्त था। परिसर के प्रबंधक बार बार सीटियां बजा कर उन अति उत्साही पर्यटकों को वहां निर्धारित अनुशासन का पालन करने के लिए कह रहे थे।
हमारा काम हो गया था इसलिए हम बाहर निकल आए। आपको शायद अलग से बताने की जरूरत नहीं है कि पर्यटकों की ये आंधी भारत से आई थी। पूर्वजों ने जैसे भी निशान छोड़े थे , आज हम कैसे निशां छोड़ रहे हैं इस पर भी हमें सोचना चाहिए।

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