अमृतलाल नागर हिंदी के अतिविशिष्ट लेखकों में से एक हैं। उनके उपन्यास हों, उनकी कहानियाँ हों या कि ‘गदर के फूल’, ‘ये कोठेवालियाँ’ जैसी विशिष्ट कृतियाँ हों जिनकी परंपरा तब तक के हिंदी संसार में नहीं ही थी, उनकी यह सभी कृतियाँ उन्हें एक ऐसा महानतम रचनाकार सिद्ध करती हैं जिसकी जड़ें अपनी जमीन, अपनी परंपरा में गहराई तक धँसी थीं। इसीलिए उन्होंने अपने समय का मुकम्मल यथार्थ रचने के साथ साथ ऐसी भी बहुत सारी कृतियाँ हमें दीं जिनमें भविष्य के ठेठ भारतीय स्वप्न विन्यस्त मिलते हैं। 17 अगस्त 1916 में आगरा में जन्मे नागर जी का यह जन्म-शताब्दी वर्ष है। इस अवसर पर http://www.hindisamay.com/ ने नागरजी के विशाल रचना-संसार की एक प्रतिनिधि झलक रखने की कोशिश की है। हालाँकि नागर जी का रचना संसार इतना विशाल और बहुमुखी है कि ऐसे किसी भी चयन की सीमा स्वतः ही उजागर होती रहेगी।
हमारे घर में सरस्वती और गृहलक्ष्मी नामक दो मासिक पत्रिकाएँ नियमित रूप से आती थीं। बाद में कलकत्ते से प्रकाशित होनेवाला पाक्षिक या साप्ताहिक हिंदू-पंच भी आने लगा था। उत्तर भारतेंदु काल के सुप्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य लेखक तथा आनंद संपादक पं. शिवनाथजी शर्मा मेरे घर के पास ही रहते थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र से मेरे पिता की घनिष्ठ मैत्री थी। उनके यहाँ से भी मेरे पिता जी पढ़ने के लिए अनेक पत्र-पत्रिकाएँ लाया करते थे। वे भी मैं पढ़ा करता था। हिंदी रंगमंच के उन्नायक राष्ट्रीय कवि पं. माधव शुक्ल लखनऊ आने पर मेरे ही घर पर ठहरते थे। मुझे उनका बड़ा स्नेह प्राप्त हुआ। आचार्य श्यामसुंदरदास उन दिनों स्थानीय कालीचरण हाई स्कूल के हेडमास्टर थे। उनका एक चित्र मेरे मन में आज तक स्पष्ट है – सुबह-सुबह नीम की दातुन चबाते हुए मेरे घर पर आना। इलाहाबाद बैंक की कोठी (जिसमें हम रहते थे) के सामने ही कंपनी बाग था। उसमें टहलकर दातून करते हुए वे हमारे यहाँ आते, वहीं हाथ-मुँह धोते फिर चाँदी के वर्क में लिपटे हुए आँवले आते, दुग्धपान होता, तब तक आचार्य प्रवर का चपरासी ‘अधीन’ उनकी कोठी से हुक्का, लेकर हमारे यहाँ आ पहुँचता। आध-पौन घंटे तक हुक्का, गुड़गुड़ाकर वे चले जाते थे। उर्दू के सुप्रसिद्ध कवि पं. बृजनारायण चकबस्त के दर्शन भी मैंने अपने यहाँ ही तीन-चार बार पाए। पं. माधव शुक्ल की दबंग आवाज और उनका हाथ बढ़ा-बढ़ाकर कविता सुनाने का ढंग आज भी मेरे मन में उनकी एक दिव्य झाँकी प्रस्तुत कर देता है। जलियाँवाला बाग कांड के बाद शुक्लजी वहाँ की खून से रँगी हुई मिट्टी एक पुड़िया में ले आए थे। उसे दिखाकर उन्होंने जाने क्या-क्या बातें मुझसे कही थीं। वे बातें तो अब तनिक भी याद नहीं पर उनका प्रभाव अब तक मेरे मन में स्पष्ट रूप से अंकित है। उन्होंने जलियाँवाला बाग कांड की एक तिरंगी तस्वीर भी मुझे दी थी। बहुत दिनों तक वो चित्र मेरे पास रहा। एक बार कुछ अंग्रेज अफसर हमारे यहाँ दावत में आनेवाले थे, तभी मेरे बाबा ने वह चित्र घर से हटवा दिया। मुझे बड़ा दुख हुआ था। मेरे पिता जी आदि पूज्य माधव जी के निर्देशन में अभिनय कला सीखते थे, वह चित्र भी मेरे मन में स्पष्ट है। हो सकता है कि बचपन में इन महापुरुषों के दर्शनों के पुण्य प्रताप से ही आगे चलकर मैं लेखक बन गया होऊँ। वैसे कलम के क्षेत्र में आने का एक स्पष्ट कारण भी दे सकता हूँ।
सन 28 में इतिहास प्रसिद्ध साइमन कमीशन दौरा करता हुआ लखनऊ नगर में भी आया था। उसके विरोध में यहाँ एक बहुत बड़ा जुलूस निकला था। पं. जवाहर लाल नेहरू और पं. गोविंद बल्लभ पंत आदि उस जुलूस के अगुवा थे। लड़काई उमर के जोश में मैं भी उस जुलूस में शामिल हुआ था। जुलूस मील डेढ़ मील लंबा था। उसकी अगली पंक्ति पर जब पुलिस की लाठियाँ बरसीं तो भीड़ का रेला पीछे की ओर सरकने लगा। उधर पीछे से भीड़ का रेला आगे की ओर बढ़ रहा था। मुझे अच्छी तरह से याद है कि दो चक्की के पाटों में पिसकर मेरा दम घुटने लगा था। मेरे पैर जमीन से उखड़ गए थे। दाएँ-बाएँ, आगे पीछे, चारों ओर की उन्मत्त भीड़ टक्करों पर टक्करें देती थी। उस दिन घर लौटने पर मानसिक उत्तेजनावश पहली तुकबंदी फूटी। अब उसकी एक ही पंक्ति याद है : “कब लौं कहो लाठी खाया करें, कब लौं कहौं जेल सहा करिये।”
वह कविता तीसरे दिन दैनिक आनंद में छप भी गई। छापे के अक्षरों में अपना नाम देखा तो नशा आ गया। बस मैं लेखक बन गया। मेरा खयाल है दो-तीन प्रारंभिक तुकबंदियों के बाद ही मेरा रुझान गद्य की ओर हो गया। कहानियाँ लिखने लगा। पं. रूपनारायण जी पांडेय ‘कविरत्न’ मेरे घर से थोड़ी दूर पर ही रहते थे। उनके यहाँ अपनी कहानियाँ लेकर पहुँचने लगा। वे मेरी कहानियों पर कलम चलाने के बजाय सुझाव दिया करते थे। उनके प्रारंभिक उपदेशों की एक बात अब तक गाँठ में बँधी है। छोटी कहानियों के संबंध में उन्होंने बतलाया था कि कहानी में एक ही भाव का समावेश करना चाहिए। उसमें अधिक रंग भरने की गुंजाइश नहीं होती।
सन 1929 में निराला जी से परिचय हुआ और तब से लेकर 1939 तक वह परिचय दिनोंदिन घनिष्ठतम होता ही चला गया। निराला जी के व्यक्तित्व ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया। आरंभ में यदा-कदा दुलारेलालजी भार्गव के सुधा कार्यालय में भी जाया-आया करता था। मिश्र बंधु बड़े आदमी थे। तीनों भाई एक साथ लखनऊ में रहते थे। तीन-चार बार उनकी कोठी पर भी दर्शनार्थ गया था। अंदरवाले बैठक में एक तखत पर तीन मसनदें और लकड़ी के तीन कैशबाक्स रक्खे थे। मसनदों के सहारे बैठे उन तीन साहित्यिक महापुरुषों की छवि आज तक मेरे मानस पटल पर ज्यों की त्यों अंकित है। रावराजा पंडित श्यामबिहारी मिश्र का एक उपदेश भी उन दिनों मेरे मन में घर कर गया था। उन्होंने कहा था, साहित्य को टके कमाने का साधन कभी नहीं बनाना चाहिए। चूँकि मैं खाते-पीते खुशहाल घर का लड़का था, इसलिए इस सिद्धांत ने मेरे मन पर बड़ी छाप छोड़ी। इस तरह सन 29-30 तक मेरे मन में यह बात एकदम स्पष्ट हो चुकी थी कि मैं लेखक ही बनूँगा।
सन 30 से लेकर 33 तक का काल लेखक के रूप में मेरे लिए बड़े ही संघर्ष का था। कहानियाँ लिखता, गुरुजनों से पास भी करा लेता परंतु जहाँ कहीं उन्हें छपने भेजता, वे गुम हो जाती थीं। रचना भेजने के बाद मैं दौड़-दौड़कर पत्र-पत्रिकाओं के स्टाल पर बड़ी आतुरता के साथ यह देखने को जाता था कि मेरी रचना छपी है या नहीं। हर बार निराशा ही हाथ लगती। मुझे बड़ा दुख होता था, उसकी प्रतिक्रिया में कुछ महीनों तक मेरे जी में ऐसी सनक समाई कि लिखता, सुधारता, सुनाता और फिर फाड़ डालता था। सन 1933 में पहली कहानी छपी। सन 1934 में माधुरी पत्रिका ने मुझे प्रोत्साहन दिया। फिर तो बराबर चीजें छपने लगीं। मैंने यह अनुभव किया है कि किसी नए लेखक की रचना का प्रकाशित न हो पाना बहुधा लेखक के ही दोष के कारण न होकर संपादकों की गैर-जिम्मेदारी के कारण भी होता है, इसलिए लेखक को हताश नहीं होना चाहिए।
सन 1935 से 37 तक मैंने अंग्रेजी के माध्यम से अनेक विदेशी कहानियों तथा गुस्ताव फ्लाबेर के एक उपन्यास मादाम बोवेरी का हिंदी में अनुवाद भी किया। यह अनुवाद कार्य मैं छपाने की नियत से उतना नहीं करता था, जितना कि अपना हाथ साधने की नीयत से। अनुवाद करते हुए मुझे उपयुक्त हिंदी शब्दों की खोज करनी पड़ती थी। इससे मेरा शब्द भंडार बढ़ा। वाक्यों की गठन भी पहले से अधिक निखरी।
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साभार- http://www.hindisamay. com/ से