Tuesday, December 3, 2024
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आपातकाल के पहले का घटनाक्रम

ज्ञान प्रकाश की किताब ‘आपातकाल आख्यान : इन्दिरा गांधी और लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा’ का एक अंश जिसमें आपातकाल लगने से ठीक पहले देश में घट रही अनेक घटनाओं का वर्णन है।

सन् 1973 की शुरुआत तक पहुँचते-पहुँचते चुनावों में अभूतपूर्व बहुमत हासिल कर, 1971 के युद्ध में चिरशत्रु पाकिस्तान को नाकों चने चबवाकर, कांग्रेस पार्टी को अपनी मुट्ठी में दबा और न्यायपालिका को अपने वश में कर श्रीमती गांधी ने जैसे हर मोर्चा फ़तेह कर लिया था। लेकिन यह विजयी भाव अल्पकालिक रहा। लगातार दो मानसून पर्याप्त बारिश नहीं हुई, जिसने कृषि उपज को सीधे प्रभावित किया और वैश्विक स्तर पर उभरे तेल संकट ने क़ीमतों में आग लगा दी। एकदम से ‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा एक भद्दा मज़ाक़ लगने लगा। ग्रामीण और शहरी क्षेत्र की ग़रीबी कम होने का नाम नहीं ले रही थी। सारे आर्थिक सूचकांक डूब की दिशा में थे।

 शहरी बेरोज़गारी की दर ऊँचाई पर थी, औद्योगिक उत्पादन ठहरा हुआ था, योजनाबद्ध विकास कार्य रुके पड़े थे और भूमि सुधार अपने लक्ष्य से पिछड़ रहा था। पर असल दुष्परिणाम तो खाद्यान्न व्यापार में राज्य की घोर नाकामयाबी से निकला। सरकार ने गेहूँ और चावल की थोक सरकारी ख़रीद का फ़ैसला किया। ऐसे में उत्पादकों के लिए सरकार के तय किये दामों पर उत्पाद बेचना एकमात्र विकल्प रह गया। निजी व्यापारी और आढ़तिये थोक बिक्री से बाहर कर दिये गए। इसका जैसा नतीजा निकलना था, वही निकला। योजना को भारी विरोध का सामना करना पड़ा। समृद्ध खेतिहरों और निजी व्यापारियों ने इसकी राह में ख़ूब फंदे डाले। एक नाकाम मानसून के बाद उत्पादन वैसे ही मन्दा था, ऐसे में क़ीमतें ख़ूब ऊपर चढ़ीं और उनके मुक़ाबले सरकार द्वारा तय मूल्य बहुत पीछे छूट गया।

उत्पादकों और व्यापारियों ने अपने गोदाम भर लिये। कालाबाज़ारियों की चाँदी हो गई। इधर व्यापारी समुदाय जनसंघ के पीछे हो लिया, जिसके वे पहले से ही पारम्परिक समर्थक रहे थे। उधर बड़े किसान विपक्ष की अन्य किसान समर्थक पार्टियों के पीछे खड़े हो गए। कांग्रेस में तो ग़ैर-ज़मीनी नेताओं की भरमार थी जो निरन्तर गुटबाज़ी में उलझे रहते थे। उनके पास ऐसा कोई साधन ही नहीं था कि वे गाँवों के स्तर पर हस्तक्षेप कर इस सरकारी ख़रीद की परियोजना को पटरी पर ला पाते। सरकार खाद्यान्न ख़रीदने में ही नाकामयाब नहीं हो रही थी, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा रही थी।

भारत के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सुधारों को गति देना अब इन्दिरा के एजेंडा में कहीं पीछे छूट गया था। वाम क्रान्तिकारी छवि तभी तक अच्छी थी जब तक वो राजनीतिक विरोधियों को उखाड़ फेंकने में मदद दे रही थी। एक बार वो मिशन पूरा होने के बाद इन्दिरा ने अपने ‘युवा तुर्कों’ के पर कतरते देर नहीं लगाई। उन्होंने पार्टी के भीतर समाजवादी धड़े द्वारा बनाए ‘कांग्रेस फोरम’ के प्रत्युत्तर में ‘नेहरू फोरम’ के गठन को प्रोत्साहन दिया। जब इन दोनों गुटों के बीच आपसी तूतू-मैंमैं ने विवाद का रूप लिया तो इसे ही बहाने के बतौर इस्तेमाल करते हुए इन्दिरा ने दोनों फोरम को भंग कर दिया।

मई, 1973 में इंडियन एयरलाइन्स की विमान दुर्घटना में कुमारमंगलम की असमय मृत्यु ने वाम धड़े को और कमज़ोर बना दिया। इन्दिरा अब पार्टी पर एकछत्र शासन करने को तैयार थीं। उस दौर के ब्योरे बताते हैं कि उनके समाजवादी लक्ष्य अब पार्टी और प्रशासन पर सम्पूर्ण नियंत्रण के लक्ष्य में बदल चुके थे। लेकिन ऊपर से सम्पूर्ण दिखनेवाली यह सर्वशक्तिशाली सत्ता भीतर से खोखली होती जा रही थी। एक अभूतपूर्व ‘शासकीय संकट’ मुँह बाये सामने खड़ा था।

इन्दिरा के दौर में पार्टी और लोकतांत्रिक संस्थाओं का जिस तरह ‘संस्थागत ह्रास’ हुआ, उसने संविधान में रचे नाज़ुक सन्तुलन को हिला दिया। और माहौल में तारी ‘अराजक अभिव्यक्तियों’ ने मामले को विस्फोट की कगार पर ला दिया।

5 जून, 1974 को पटना के गांधी मैदान में हुई ऐतिहासिक सार्वजनिक सभा में जेपी ने इन्दिरा को चेतावनी देते हुए हिन्दी के चर्चित जनकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता ‘जनतंत्र का जन्म’ से ये पंक्तियाँ दोहराईं :सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने यह कविता 1950 में भारत के एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनने के उपलक्ष्य पर लिखी थी। ‘वीर रस’ से ओतप्रोत यह कविता सदियों से शोषण की ज़ंजीरों में जकड़े इस मुल्क के लोगों के अन्तत: राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने का जयघोष है। लेकिन जब 1974 में जेपी ने इसे भरी सभा के सामने मंच से उद्धृत किया, संविधान से परे जाकर आज़ादी हासिल करने का यह उद्घोष मारक स्वर लिये था। नाटकीय अन्दाज़ में की गई ‘सिंहासन ख़ाली करो’ की उद्घोषणा इन्दिरा की निरंकुश सत्ता के ताबूत में आख़िरी कील ठोके जाने की आवाज़ सरीखी सुनाई पड़ी थी।

‘जनता’ को अपने पाले में करने की होड़ शुरू हो चुकी थी। इस होड़ में इन्दिरा की कोशिश थी कि वे मध्यस्थ संस्थाओं को एक किनारे कर जनता तक सीधी अपनी पैठ बनाएँ। उधर जेपी जनजागरण के अस्त्र का इस्तेमाल कर इन्दिरा की सत्ता को डिगाना चाहते थे। जब जेपी ने बिहार विधानसभा को भंग करने की माँग उठाई, तो चुने हुए सदन को कार्यकाल पूरा होने से पहले भंग करने को इन्दिरा ने अलोकतांत्रिक बताकर ख़ारिज कर दिया। इस निर्णय पर उन्हें अपनी पार्टी और समर्थक सीपीआई से बाहर भी समर्थन मिला। अख़बार ‘दि पायनियर’ ने लिखा कि जेपी द्वारा ‘क़तई बलात् और ग़ैर-लोकतांत्रिक’ तरीक़ों का सहारा लेकर विधानसभा भंग करने की माँग करना ‘साक्षात आग से खेलने’ बराबर है।

 ‘दि हिन्दू’ ने सवाल पूछा कि क्या जेपी अपने भव्य नैतिक क़द का सहारा लेकर “क़ानून व्यवस्था एवं पूरे लोकतांत्रिक ढाँचे के प्रति अवमानना और अव्यवस्था का द्वार नहीं खोल रहे?” पर इस लोकतांत्रिक रीति पर निष्ठा के समर्थन में दिक़्क़त ये थी कि ख़ुद उत्तर-औपनिवेशिक राज्य बार-बार राष्ट्रपति शासन के इस्तेमाल द्वारा और निवारक नज़रबन्दी जैसे क़ानूनों द्वारा लगातार इसकी साख को धक्का पहुँचाता रहा था। इन्दिरा के सत्ता में आने से बहुत पहले ही राज्य कितने ही औपनिवेशिक क़ानूनों को झाड़-पोंछकर अपने इस्तेमाल में ला चुका था। 1958 में लाए ‘आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट’ को ही देख लीजिए, जिसे असम और मणिपुर के ‘अशान्त क्षेत्रों’ पर नियंत्रण के लिए सन्दूक़ में से निकाला गया। या फिर 1962 के ‘डिफेंस ऑफ़ इंडिया रूल्स’, जिनका इस्तेमाल भारत-चीन युद्ध के समय चीनी मूल के भारतीय नागरिकों के ख़िलाफ़ किया गया।

कश्मीर को चुनावों में धाँधली और पुलिस के बल पर इकट्ठा रखा गया। इन्दिरा ने इन तमाम असामान्य कार्यकलापों को और गति दी, जिससे वे अपनी ही हुकूमत द्वारा पैदा किये गए इस संकट से किसी तरह निपट सकें। उधर जेपी ने लोकतंत्र की परिभाषा को विस्तार देते हुए उसे ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ में बदलने की कोशिश शुरू की। लेकिन इसे उम्मीद के मुताबिक समर्थन न मिलते देख वे पीछे हट गए और इन्दिरा को सत्ता से हटाने के सीमित लक्ष्य के साथ चल रहे अन्य विपक्षी पार्टियों के आन्दोलन में ख़ुद को झोंक दिया। इस तरह दोनों में से किसी भी पक्ष का लक्ष्य लोकतंत्र को सच्चे अर्थों में फलीभूत करना या सामाजिक बदलाव लाने के उद्देश्य से इसके संस्थानों को ज़्यादा अर्थवान बनाना नहीं था। सत्ता हासिल करने को आतुर दोनों पक्ष तमाम नियम-क़ायदों को धता बताते हुए अखाड़े में कूद पड़े।

जनवरी, 1975 में बिहार में एक बम धमाके में हुई एल.एन. मिश्रा की मृत्यु के साथ इस युद्ध ने एक भयावह मोड़ ले लिया। मिश्रा को राजनीतिक हलक़ों में इन्दिरा गांधी की पार्टी का भ्रष्ट दलाल समझा जाता था। बस फिर क्या था, आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया। विपक्ष ने आरोप लगाया कि हुकूमत के भ्रष्ट सौदों को लेकर कहीं उनका वो कुशल दलाल मुँह न खोल दे, इसलिए उसे पहले ही ठिकाने लगा दिया गया है। इन्दिरा ने पलटवार करते हुए जवाबी आरोप लगाया कि यह बम धमाका दरअसल उनके ख़िलाफ़ साजिश था और जेपी ने जिस हिंसा को हवा दी है, यह सब उसी का नतीजा है। इन्दिरा का आरोप था कि यह दरअसल उनकी हत्या किये जाने की ‘ड्रेस रिहर्सल’ है। “जब मेरी हत्या होगी, तब भी ये लोग कहेंगे कि इसके पीछे ख़ुद मेरा हाथ था।”

कहते हैं कि दुर्भाग्य कभी अकेले नहीं आता। 12 जून, 1975 इन्दिरा गांधी के लिए कुछ ऐसी ही तारीख़ बन गई। दिन की शुरुआत हुई मनहूस ख़बर से। सुबह-सुबह दिल का दौरा पड़ने से गोविन्द वल्लभ पंत अस्पताल में डी.पी. धर की मृत्यु की सूचना आई। सत्तावन साल की आयु में असमय चले गए धर मूलत: कश्मीरी थे, इन्दिरा के पुराने दोस्त थे और उनकी सरकार में कभी मंत्री रह चुके थे। मृत्यु के समय वे सोवियत संघ में भारत के राजदूत के पद पर कार्यरत थे। इस ख़बर की मनहूसी उतरी भी नहीं थी कि अगली ख़बर ने दस्तक दी। गुजरात में हुए विधानसभा चुनावों में पाँच पार्टियों के संयुक्त गठबन्धन के ख़िलाफ़ कांग्रेस पार्टी को चुनावी हार मिली थी।

विपक्षी उम्मीदवार राजनारायण द्वारा दायर मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय  न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इन्दिरा की चुनावी जीत को निरस्त करते हुए उन्हें दो पैमानों पर भ्रष्ट चुनावी आचरण का दोषी पाया। पहले मामले में उन्होंने पाया कि इन्दिरा के निजी सचिव रहे यशपाल कपूर सरकारी सेवा से इस्तीफ़ा देने से पहले ही उनके चुनावी एजेंट बन गए थे। दूसरा मामला उत्तर प्रदेश राज्य सेवा के अधिकारियों द्वारा इन्दिरा के चुनाव प्रचार अभियान में मदद किये जाने का था। ऐसा पाया गया कि सरकारी अधिकारियों ने उनकी सभा के लिए बिजली उपलब्ध करवाने से लेकर भाषण देने के लिए ऊँचा मंच बनवाने तक का कार्य अंजाम दिया। न्यायाधीश सिन्हा ने इन्दिरा के चुनाव को निरस्त करते हुए उनके चुनाव लड़ने पर छह साल की रोक लगा दी। इस निर्णय के ख़िलाफ़ उच्चतम न्यायालय में अपील करने के लिए इन्दिरा गांधी को बीस दिन का समय मिला।

विपक्ष के मुँह ख़ून लग चुका था। विपक्षी सांसद पीलू मोदी ने घोषणा की कि इन्दिरा अब विधिसम्मत प्रधानमंत्री नहीं रही हैं : “हमें तो यह देखना होगा कि इस ढोंगी से अब कैसे निपटा जाए।” बाक़ी तमाम ग़ैर-सीपीआई दलों ने भी एक स्वर में उनके इस्तीफ़े की माँग उठाई। जेपी ने भी फ़ौरन बयान जारी करते हुए न्यायाधीश सिन्हा के निर्णय की दाद दी और इन्दिरा के इस्तीफ़े की माँग की। कुछ ही दिनों बाद जेपी ने अपनी माँग को और विस्तार से दोहराया और कहा कि इन्दिरा का कहना कि ये तो बस ‘तकनीकी’ भूल है, निरर्थक बात है। उन्होंने फिर ज़ोर दिया कि इन्दिरा ने क़ानून तोड़ा है और उन्हें इस्तीफ़ा देना चाहिए। इलाहाबाद के निर्णय ने एक झटके में इन्दिरा के ख़िलाफ़ लिखे जा रहे राजनीतिक आरोपपत्र को क़ानूनी अभियोग में बदल दिया था।

इन्दिरा इस सबसे चकित थीं। उनके निजी सचिव पी.एन. धर लिखते हैं कि वे एकान्तप्रिय हो गई थीं और सबसे खिंची-खिंची सी रहने लगी थीं। हक्सर के योजना आयोग में चले जाने और डी.पी. धर की मृत्यु के बाद अब उनके योग्य कश्मीरी सहयोगियों की टोली में से सिर्फ़ पी.एन. धर ही उनके साथ बचे थे। धर लिखते हैं कि इन्दिरा का आवास उन दिनों सलाहकारों, मंत्रियों, क़ानूनी विशेषज्ञों एवं अन्य मददगारों से भरा रहता था। धर बताते हैं कि उनकी पहली प्रतिक्रिया इस्तीफ़ा दे देने की रही।

ऐसे में आर.के. धवन (यशपाल कपूर के सम्बन्धी, जो पी.एन. धर के बाद इन्दिरा के निजी सचिव की जगह ले आपातकाल के दौरान बहुत ख़ास भूमिका निभानेवाले थे) ने संजय गांधी और पी.एन. धर से लम्बे विचार-विमर्श के बाद धड़ाधड़ फ़ोन कॉल करना शुरू किया और इन्दिरा के समर्थन में विशाल प्रदर्शन की तैयारी में जुट गए। पड़ोसी राज्यों हरियाणा और उत्तर प्रदेश से बसों में भर-भरकर जनता को दिल्ली लाया जाने लगा और एक के बाद एक रैलियाँ निकाली जाने लगीं। संजय गांधी और उनके सिपहसालारों धवन, बंसीलाल (हरियाणा के मुख्यमंत्री) और ओम मेहता (गृह राज्य मंत्री) ने मोर्चा सँभाल लिया और इन्दिरा को अन्त तक लड़ने की नसीहत देने लगे। क़ानूनी जानकारों का भी कहना था कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला क़ानून की कच्ची ज़मीन पर खड़ा है और उच्चतम न्यायालय में अपील करने पर यह पलट जाएगा।

कुछ दूसरे लोग उन्हें सलाह दे रहे थे कि जब तक ये क़ानूनी पचड़ा सुलझ नहीं जाता, वे इस्तीफ़ा देकर फ़ौरी तौर पर यह ज़िम्मा अपने कैबिनेट सहयोगी जगजीवन राम को सौंप दें। लेकिन इन्दिरा महसूस कर रही थीं कि यह मामला इतना फ़ौरी भी नहीं। उन्हें अब यक़ीन हो चला था कि यह उनके ख़िलाफ़ किसी बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है। उन्होंने चिली के सल्वाडोर अलेंदे के तख़्तापलट की ओर इशारा करते हुए सीआईए और अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन पर अपना शक जताया। पर संजय गांधी, सिद्धार्थ शंकर राय (पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री), बंसीलाल, अन्य पार्टी सदस्य और सीपीआई उन्हें लगातार इस्तीफ़ा नहीं देने के लिए मना रहे थे।

इस बीच संजय के सिपहसालार आज्ञाकारी मंत्रियों की मदद से पड़ोस के राज्यों से ट्रेनों, बसों और ट्रकों में भर-भरकर ख़ूब नारा लगानेवाली भीड़ को इकट्ठा करते रहे। उधर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले के ख़िलाफ़ इन्दिरा की अपील उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन थी, इधर उन्होंने 20 जून को बोट क्लब के बगीचे में एक महा जनसभा को सम्बोधित किया। उनके बाज़ुओं के पीछे उनके दोनों बेटे संजय और राजीव और साथ में बहू सोनिया खड़े थे। उन्होंने नेहरू-गांधी परिवार की महती परम्परा को याद करते हुए ‘मरते दम तक’ अपनी हर साँस देशसेवा में क़ुर्बान करने की क़सम खाई। 24 जून को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश वी.के. कृष्ण अय्यर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले पर रोक लगा दी।

न्यायाधीश की टिप्पणी थी कि इन्दिरा द्वारा किये चुनावी दुराचार उच्च न्यायालय के फ़ैसले में उल्लेखित क़ानून में दर्ज ‘अति गम्भीर चुनावी दुराचारों’ की श्रेणी में नहीं आते हैं, और इसलिए यह फ़ैसला आगे सम्भवत: टिक नहीं पाएगा। लेकिन फ़ैसले पर रोक कुछ शर्तों के साथ थी। इन्दिरा प्रधानमंत्री पद पर बनी रह सकती थीं और संसद की कार्यवाही में शामिल हो सकती थीं लेकिन जब तक उच्चतम न्यायालय की पूर्ण खंडपीठ उनकी अपील पर फ़ैसला न सुना दे, उनके सांसद के तौर पर वेतन लेने और वोट डालने के अधिकार पर रोक लगाई गई थी। ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ अख़बार के सम्पादकीय ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा, “ ‘ए’ माइनस ‘बी’ बराबर ‘सी’ जैसे किसी बीजगणित के फ़ॉर्मूले को लागू करते हुए जस्टिस अय्यर ने निष्कर्ष निकाला कि सशर्त रोक (जैसी वे चाहें) में प्रधानमंत्री के संसद के किसी भी सदन की कार्यवाही में भागीदारी के अधिकार को जोड़ें तो नतीजा पूर्ण रोक में से मतदान का अधिकार घटाकर निकलता है।” इससे धेला कुछ स्पष्ट नहीं हुआ।

जोश से भरे विपक्ष ने अगले ही दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली का आयोजन किया। जेपी ने भरी सभा में भाषण देते हुए इन्दिरा पर सत्ता में बने रहने के लिए फासीवादी तौर-तरीक़ों के इस्तेमाल का इल्ज़ाम लगाया। उन्होंने पुलिस और सैन्य बलों का आह्वान करते हुए कहा कि वे संविधान विरोधी नीतियों की अवज्ञा करें सरकार को चुनौती दी कि वो चाहे तो उन पर राजद्रोह का मुक़दमा कर दे। साथ ही उन्होंने 29 जून से प्रधानमंत्री के घर के बाहर हफ़्ता भर चलनेवाले प्रदर्शनों की भी घोषणा की, जिसका उद्देश्य इन्दिरा पर इस्तीफ़े के लिए दबाव बनाना होगा।

युद्ध की रेखाएँ खिंच चुकी थीं। इलाहाबाद का फ़ैसला तात्कालिक कारण तो बना, लेकिन इस संकट के पीछे दोनों पक्षों का इकसार क़िस्म के हथकंडे अपनाना भी रहा : “इकसार लोक-लुभावन अदाएँ, संवैधानिक उपचारों को ठुकराने की इकसार आदत, प्रतिकूल जनाक्रोश की सवारी करने की भविष्य में भारी पड़नेवाली इकसार ग़लती और विपक्ष की हार को अपनी जीत समझने की इकसार भूल।” इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने भी इस ओर इशारा किया है कि यह इन्दिरा और जेपी का साथ मिलकर खड़ा किया संकट था, क्योंकि दोनों ही पक्ष “प्रतिनिधि संस्थाओं में ज़रा भी विश्वास नहीं” जता रहे थे। लेकिन पक्ष-विपक्ष के इस अन्दाज़े-बयाँ में समानताओं को रेखांकित करने के साथ ही हमें ‘निष्क्रिय क्रान्ति’ से उपजी आज़ादी और राज्य की परियोजना के असफल हो जाने के चिह्नों को भी यहाँ नज़रअन्दाज़ नहीं करना चाहिए।

आंबेडकर ने पहले ही चेताया था कि सामाजिक बदलाव लाए बिना सिर्फ़ राजनीतिक स्वतंत्रता की स्थापना अन्तत: लोकतंत्र को जोखिम में डालनेवाली साबित होगी। ‘अंकुर’ और ‘निशान्त’ में हम इस चेतावनी की शुरुआती अनुगूँजें सुन चुके थे। सड़क पर उमड़ता आक्रोश किस ओर जा रहा है, सबको दिखाई दे रहा था। इन्दिरा ने इस संकट का सामना सत्ता के केन्द्रीकरण द्वारा करना ठीक समझा, और उम्मीद करने लगीं कि इस तरह वे जनता और राज्य के बीच एक दूरगामी तारतम्य कायम कर पाएँगी। जेपी ने दिनकर की कविता के माध्यम से इन्दिरा को गद्दी छोड़ने का सीधा सन्देश दिया।

संकट का समय था और भारतीय राजनीति अपनी क्षुद्रता को प्रदर्शित कर रही थी। यह इसलिए हुआ क्योंकि कांग्रेस और उनके विपक्षी दल दोनों ही आंबेडकर की कही बातों का मान नहीं रख पाए। आंबेडकर ने कहा था कि अगर भारत को अपने लोकतंत्र को सँवारना है तो लोकतंत्र के पौधे को सतह से नीचे उतरकर जड़ों तक जाना होगा। इसे सबके लिए समता के अधिकार को ज़मीन पर मुकम्मल करना ही होगा। लेकिन भारतीय नेताओं ने राजनीति में नैतिकता का दामन बहुत पहले छोड़ दिया और इसे केवल सत्ता हासिल करने के संघर्ष तक सीमित कर दिया। 1975 में जो हुआ, उसकी जड़ें इस नाकामी में छिपी थीं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले ने इस वृहत्तर संकट पर परदा डालते हुए बात राजनीतिक द्वंद्व से हटाकर क़ानूनी दायरे में पहुँचा दी। विपक्ष भी अब इन्दिरा को हराने के लिए बड़बोले क़ानूनी विमर्शों में रास्ता तलाशने लगा। इसके जवाब में इन्दिरा ने उसी क़ानून का सहारा लेते हुए क़ानून के राज को ही मुल्तवी कर दिया। यह इन्दिरा का आख़िरी मोर्चा था, ख़ुद के रचे इस दलदल से निकलने और अपनी सत्ता बचाने का।

साभार-  https://rajkamalprakashan.com/blog से

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