Thursday, March 27, 2025
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करोगे याद तो …की लोक संवेदना

करोगे याद तो… ये तीन शब्द जीवन के साथ चलने वाले वे शब्द हैं जो व्यक्ति को हर पल अपने होने के अहसास के साथ एक नये विचार का सारथी होने का गौरव प्रदान करते हैं। इस माने में भी कि विचारों का प्रवाह अपने साथ जीवन के कई पड़ावों की ध्वनि को साथ लेकर आगे बढ़ता है और एक नवीन प्रसंग को उभारता हुआ जीवन के संग – संग चलता है।
इन्हीं सन्दर्भों को अपने भीतर उजास की भाँति संजोये रहकर सृजनात्मक सन्दर्भों को समृद्ध तथा अपने रचनात्मक परिवेश को गति प्रदान करते हुए लेखक – पत्रकार पुरुषोत्तम पंचोली ने अपनी लोक संवेदना को उद्घाटित किया कृति ‘ करोगे याद तो ‘ में।
संस्मरणात्मक रूप में उभरती यह कृति रेखाचित्र – सी आभा और आख्यान शैली की कथात्मकता को उजागर करती है। जिसमें लेखक ने अपने चिरपरिचित स्वभाव और लोक परिवेश से समृद्ध भावों के साथ सटीक भाषा में अपने चतुर्दिक परिवेश और उससे अनुभूत चेतना को वास्तविकता से प्रस्तुत किया है। जहाँ शब्द भावों के साथ यात्रा करते हुए न जाने कितने पड़ावों पर ठहरकर बतियाते हैं और जीवन के प्रसंगों को साझा करते हैं।
 ‘ शब्द  – युद्ध ‘ के प्रणेता बने सृजनधर्मी पुरुषोत्तम पंचोली ने अपने इस रचनात्मक वितान में लोक परिवेश को उसी रूप में उकेरा है जैसा उन्होंने जिया है। इस माने में भी कि – “वह एक गाँव था। वह मेरे लिए जमीन का टुकड़ा और भूगोल का हिस्सा भर नहीं था। मैं वहाँ जन्मा मात्र नहीं था। गाँव ने परिपूर्ण गवईपन से मुझे पाला और पोषा। यह मेरा सौभाग्य था कि किशोर हो जाने तक शहरी छिनालपना मुझे छू भी नहीं पाया था। मैने धरती की कुँवारी गंध को सूंघा, नदियों और कुओं के पानी की गमक और महक को जिया। मैं ‘मनख’ बनने को उन्मुख हुआ। माटी और पानी से मैं अस्तित्व में आया। धूप को सहा, सर्दी से ठिठुरा और बरसात में भीगा। मुझे सूरज ने दहकाया, बादलों ने बहकाया, फूलों ने हुलसाया, खुशबू ने भरमाया, चाँदनी रातों ने मेरी अन्तर-आग को सुलगाया… खाँखरे के पत्तों, टेसू के फूलों, तेंदू के फलों ने मेरे मन को भरा, मैंने ‘धपड़ों’ को जिया। ….स्वीकारता हूँ कि शहर ने मुझे अहसान फरामोश बनाया। मेरे गाँव, मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। अंजुरीभर फूल तुम्हारे लिए !”
अपने जन्म स्थल के साथ यह रागात्मक जुड़ाव और बदलते परिवेश का प्रभाव ही उनकी इस कृति के रचाव का हेतु बना और लेखक ने लोक से जुड़ाव और परिवेश से रचाव को ‘ करोगे याद तो ‘ में उकेर दिया। यह आह्वान करते हुए कि अपने जीवन के उन प्रसंगों को याद करोगे तो तुम्हें आंतरिक प्रेरणा से बाह्य जगत के भौतिक सन्दर्भों में जीवन जीने की समझ का कौशल विकसित होगा।
तभी तो लेखक अन्त में ‘ वह मुझसे छूटता नहीं है, बुरी लतों की तरह ! ‘ की स्मृतियों में भावात्मक रूप से जुड़ता हुआ इसी गाँव और वर्तमान की संवेदना के सेतु को उभारते हुए कहता है –
” गाँव जैसा भी था…. थका-मांदा, गंदला संदला, आड़ा-टेढ़ा, आँका-बाँका और वहाँ के लोग जो कुछ भी थे, सीधे-सादे, टेढ़े-तिरछे, यहाँ तक कि छाकटे वे भले ही रहे हों, बेईमान और नीच, धूर्त तो बिलकुल नहीं थे।
दरअसल परिस्थितियों के वैषम्य और विफलताओं के नेरन्तैर्य ने उनकी सादगी और आदमियत पर इतने क्रूर प्रहार किए कि उनकी मौलिक मृदुलता शनैः शनैः मौन होती हई कुंद पड गई। मौलिकता और आधुनिकता की समस्त चमत्कारिकता के बावजूद गाँव की ‘हुलस’ समय की काली कीमियागिरी से मात खा गई। लोगों का खिलन्दडपन और औदार्य उनके नफीस, सरल और भावुक मिजाज के उलट ज़र्द और जर्जर पड़ते सौहार्द को भाँपते हुए मुझे नीली नुकीली टीस सालती, सुलगाती रही। लेन-देन की ऊभ-चूभ और व्यवहार-बर्ताव में झाँकता छलकता छिनालपना देख सदैव ही कातर विस्मय से चकित हुआ हूँ।
‘क्या है जो किसी ज्वर की तरह अन्दर ही अन्दर सुलगता है।’
मैं उस सुलगन के धुंए में धँसता भाँपता हूँ। अनगिनत मौकों पर लाचारगी और विवशता ने गाँव वालों को तपाया और झुलसाया तो बहुत पर जैसा कि कहा जाता है- ‘खाली बर्तन के पैंदे में भी कुछ न कुछ बचा रहता है’, गाँव में ‘अपनत्व’ की ओस का आकार भले ही घट गया हो वह सूखी, मिटी नहीं। भौतिकता की दुरभिसंधियों और संस्कृति-संक्रमण के संत्रास के साथ परम्परा की पुनीत रस-धार पतली भले ही पड़ गई हो खत्म नहीं हुई है।”
इसी रसधार का प्रभाव रहा कि लेखक की यादों के गलियारों में व्यक्ति और परिवेश की जुगलबंदी का स्वर एक अनुनाद को निरंतरता से ध्वनित किये रहता है। कदाचित्  इसीलिए कि ” अच्छी – बुरी, खट्टी – मीठी या कि कसैली यादों का सिलसिला है कि टूटता ही नहीं। वह मुझसे छूटता ही नहीं, बुरी लतों की तरह…..”   फिर चाहे फिसड्डी गाँव में प्रगतिशील ‘शिवबूचा’ हो या घाणी का बैल और घर-जवांई। पी.टी.आई. ने बताया…., चाचा नेहरू, कलई वाले चाचा, चम्पा-चमेली, श्रीमान… करूणा निधान ! , रघुवीर का मजनू हो जाना…, नाथ जी की रोटी, बोर्ड की परीक्षा, मेला और गोंद के पापड़, गाँव का हरकारा हो या श्याम जी हलवाई, नेंसी नर्स की प्रेम-कथा, रामनिवास पेंटर, बंजारिनों का आशिक सूरज दर्जी या फिर भोलाराम नेताजी, सतूल्या की पतंग, सरपंचनी का जादू , नेताजी ज्वाला प्रसाद हो या नमस्ते सदावत्सले मातृभूमि…, यह इश्क सूफियाना, तुम कहाँ जाओगे…, बेशर्म बेल-सी बदहाली, टपकती पीड़ाओं का सावन, सरगमी सर्दियों में कहर, गर्मियों की धूल-धक्कड़ : ‘लू’ और ‘नीलू’ ! जैसे स्मृतियों को खंगालते और तत्कालीन परिवेश से आत्मसात् कराते रेखाचित्र – से उभरते आलेख।
यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि शीर्षकों का मुहावरापन जहाँ विषयवस्तु तक पहुँचने की जिज्ञासा को बढ़ाते हैं वहीं रचना के भीतर की भाव – संवेदना,  तत्सम्बन्धी सन्दर्भ से आत्मसात् होने का अवसर देती है। इस माने में कि यह अवसर व्यक्ति की चेतना जागृत करने का आधार बनता है और व्यक्ति अपने जीवन के विविध स्तरों से बतियाने का मार्ग प्रशस्त करता है। यही नहीं वह अपने भीतर एक दिशा बोध की अनुभूति करता है। यह अनुभूति ही व्यक्तित्व निर्माण का आधार बनती है। कदाचित् इसीलिए लेखक ‘ नमस्ते सदावत्सले मातृभूमि…’ आलेख के माध्यम से उजागर करता है कि ” मेरे जीवन में संगठन, सेवा, वाक् – कला और स्वाध्याय के अलावा अनुशासन का बीजारोपण भी शाखा की ही देन है।”
स्वीकार और अंगीकार की यह भावना लेखक को ईमानदारी, निष्ठा और समर्पण से कार्य करने की प्रेरणा देते हुए आत्मविश्वास से भरपूर संवाद के साथ अपनी विशेष पहचान बनाने वाले साहसी पत्रकार, प्रखर वक्ता एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी को समर्पित व्यक्तित्व के रूप में अडिग रखती है जिसे उनकी इस कृति “करोगे याद तो” में यत्र- तत्र – सर्वत्र अनुभूत किया जा सकता है।
यही नहीं देशज शब्द जहाँ आलेखों की मूल भावना को उजागर कर उसकी अभिव्यक्ति को सरस बनाते हैं वहीं कुछ शब्दों की बुनावट और उनका प्रभाव इन आलेखों को विशिष्टता प्रदान करता है यथा – औत्सुक्य, निरापत्ति, नाकारगी, अन्तःपुरों, वार्धक्य, अनुसूचित –  सा, अध्यापकी, एलानिया, विस्मय –  विमुग्ध इत्यादि।
अन्ततः यही कि सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर से वर्ष 2020 में प्रकाशित एवं “स्नेहिल  “बबुआ” (दीपंकर) और देश – प्रदेश के उन समस्त बबुआओं को ! जिनके लिए ‘ गाँव ‘ , औत्सुक्य और तिलिस्म की मिल – जुल मल्हार हैं ” को समर्पित यह ऐसी कृति है जिसमें व्यक्ति को अपने आप से संवाद करने का अवसर मिलता है, अपने और अपने संस्कारित परिवेश को समझने की डगर मिलती है और मिलता है वह गाँव जहाँ से व्यक्ति को अपने होने का अहसास प्रत्येक क्षण प्रेरित करता है।
तभी लेखक संचेतना जागृत करते हुए कहता है – “तुम कहाँ जाओगे…” जिसमें वह गाँव छोड़ भाग जाने की भी सोचकर अन्ततः वहाँ के पूरे परिवेश के मोह – पाश में निर्विघ्न जकड़ा रहता है…। यही सहज जकड़ और सरल पाश प्रत्येक व्यक्ति को गाँवों की गमक से जोड़े रखती है और तभी  सार्थक हो जाते हैं तीन शब्द – “करोगे याद तो …”
– विजय जोशी
कथाकार एवं समीक्षक, कोटा

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