बस्ती जिले का मिश्रौलिया गांव में पण्डित हरदयाल मिश्र का एक अच्छा खाता पीता रईस घराना रहता था। वह एक जमींदार थे। वे अपनी पालकी के साथ बस्ती राजा के यहाँ भी आया जाया करते थे। उन पर राजा साहब की कृपा दृष्टि बनी रहती थी। उनके पुत्र का नाम उदित नारायण मिश्र था। जो द्विजेश जी के पूज्य पिता थे। उदित नारायण मिश्र की पालकी बस्ती राजा के यहाँ आती जाती थी। उस समय महाराज पाटेश्वरी प्रताप नारायण सिंह बस्ती के राजा थे।
द्विजेश जी बचपन उनके दादा हरदयाल मिश्र के साथ ही बीता था। उदित नारायण मिश्र की मृत्यु के बाद उनके दो बेटों में से बड़े बलराम प्रसाद मिश्र,द्विजेश नाम से ब्रज भाषा में और जैश नाम से उर्दू में कविता करने के कारण प्रसिद्ध हुए । द्विजेश जी के बड़े पुत्र उमाशंकर मिश्र के एकमात्र पुत्र का नाम था गंगेश्वर मिश्र है। द्विजेश जी से कवि का उत्तराधिकार तो प्रेम शंकर मिश्र जी ने प्राप्त किया था किंतु द्विजेश जी की संगीत-साधना का दाय उनके भाई के पुत्र यानि भतीजे गंगेश्वर जी ने सँभाला था और वे बस्ती के अच्छे सितार-वादक थे जिससे कुछ ने शिक्षा भी प्राप्त की थी ।
द्विजेश जी के समय साहित्यकारों की एक चौकड़ी भी होती थी जिसमें वागीश शुक्ला के पूर्वज परिवार, प्रेमशंकर मिश्र, रामनारायण पांडेय पागल, और ठाकुर चौधरी आदि शामिल थे । किसी न किसी के घर-प्रायः यह चौकड़ी शाम को चार घंटे बैठकर काव्य चर्चा करती रहती थी।
1.राष्ट्रकवि बलराम मिश्र ‘द्विजेश’ का व्यक्तित्व और कृतित्व
जीवन परिचय:-
पंडित बलराम प्रसाद मिश्र द्विजेश हिन्दी साहित्य के रीति काल के अंतिम प्रतिनिधि कवि थे। वह काव्य धारा की सारी शक्तियों को उत्कर्ष पर पहुंचाते हुए बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक साहित्य सृजन करते रहे। उनके शरीर छोड़ने तक हिन्दी साहित्य में तीसरा सप्तक आ चुका था। उन्होंने अपनी काव्य रचना में देव और पद्माकर का ही रंग बनाए रखा। अपनी हिन्दी की रचनाओं के अलावा द्विजेश ने उर्दू और फारसी में शेरो-शायरी और गजलें भी लिखीं। प्रतिष्ठित सरयूपारीण जमींदार परिवार में द्विजेश का जन्म माघ कृष्ण 11, संवत 1929 विक्रमी तदनुसार 25 जनवरी 1886 ई. को बस्ती उत्तर प्रदेश के निकट मिश्रौलिया नामक ग्राम में हुआ था। बस्ती राज परिवार से इनका निकट का नाता था। संस्कृत, संगीत और साहित्य की खुशबू मानो इनके रग-रग में बसी थी।औपचारिक स्कूली शिक्षा का चलन उन दिनों बहुत कम होने के बावजूद तत्कालीन प्रथा के अनुसार उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, फारसी तथा सामान्य गणित की शिक्षा ग्रहण की थी। द्विजेश जी जब अपंग और शय्यासीन हुए तो प्रेम शंकर मिश्र जी उनकी शुश्रूषा और तदनंतर काशी-वास कराते थे।
बस्ती नगर पालिका बस्ती रोडवेज चौराहे से पुरानी बस्ती जाने वाले मार्ग को उनके नाम पर द्विजेश मार्ग का नामकरण भी किया है। पाण्डेय स्कूल के समाने द्विजेश भवन भी उनके शुभ चिन्तकों ने बनवा रखा है। यहां कभी- कभार साहित्यिक कार्यक्रम भी होते रहे हैं।
प्रमुख कृतियां:-
1. अप्रकाशित गजल संग्रह हस्ती:-
शेरो-शायरी से जुड़ा संग्रह ‘हस्ती’ आज तक नहीं छप सका है।
2.द्विजेश दर्शन:-
काव्य रचना संग्रह द्विजेश दर्शन उनका एक मात्र संग्रह रहा है। किशोरावस्था से ही द्विजेश ने काव्य रचना शुरू कर दी। ब्रजभाषा कविता की मुख्य धारा में थी। रचनाओं में वह एक सिद्धहस्त कवि के रूप में दिखाई देते हैं। वे रचनाएं लिखते गए लेकिन उनके संयोजन और प्रकाशन की ओर द्विजेश का ध्यान कभी नहीं रहा। वह प्रकाशन के प्रति बहुत लापरवाह रहे। उनके पुत्र प्रेमशंकर मिश्र ने प्रयास करके ब्रजभाषा में रचित कविताओं का संग्रह द्विजेश दर्शन का कुछ अंश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सौजन्य से प्रकाशित कराया है। जो कुछ द्विजेश दर्शन में छप सका वह रचनाओं का मात्र एक चौथाई हिस्सा ही है।
द्विजेश दर्शन की भूमिका में श्री नारायण चतुर्वेदी ने लिखा है कि इनके लेखन की बात ही कुछ और है। अपने व्यक्तिगत काव्य प्रेम के कारण अपने आसपास के बहुसंख्य लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम द्विजेश ने किया है। डा.रसाल ने द्विजेश के बारे में कहा था कि, शब्द उनके दास थे। जबकि डा. संपूर्णानंद ने लिखा कि, ब्रजभाषा के बुझते दीपक के इन पतंगों के प्रयत्न मेरे मन में आदर का भाव उत्पन्न करते हैं। मेरा ऐसा विश्वास है कि द्विजेश की काव्य रचनाओं में पाठक को तृप्ति का एहसास होता है। चेहरे मोहरे से किसी मुगल बादशाह की झलक देने वाले द्विजेश वेशभूषा और खानपान की शैली के नाते भी मशहूर थे। वह भारत की सभ्यता यात्रा में एक पड़ाव के प्रतिनिधि थे।
साहित्यकारों द्वारा प्रशंसाः- डा.संपूर्णानंद, डा.वागीश शुक्ल, डा. अरुणेश नीरन, श्रीनारायण चतुर्वेदी सहित तमाम लोगों ने अपने संस्मरणों में द्विजेश द्वारा रचित ब्रजभाषा काव्य को शब्द चमत्कार, ऊंची उड़ानों वाले अलंकार और अक्षर मैत्री का अद्भुत संयोजन करने वाला काव्य साहित्य बताया है। भक्ति भाव की प्रधानता वाले काव्य में उन्होंने अनूठी कल्पनाओं के साथ एक खास तरह के रंगारंग संयोजन को पिरोया है। द्विजेश दर्शन की भूमिका में श्रीनारायण चतुर्वेदी ने लिखा है कि इनके लेखन की बात ही कुछ और है। अपने व्यक्तिगत काव्य प्रेम के कारण अपने आसपास के बहुसंख्य लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम द्विजेश ने किया है। डा.रसाल ने द्विजेश के बारे में कहा था कि शब्द उनके दास थे। जबकि डा.संपूर्णानंद ने लिखा कि, ब्रज भाषा के बुझते दीपक के इन पतंगों के प्रयत्न मेरे मन में आदर का भाव उत्पन्न करते हैं। विश्वास है कि द्विजेश की काव्य रचनाओं में पाठक को तृप्ति का एहसास होता है। चेहरे मोहरे से किसी मुगल बादशाह की झलक देने वाले द्विजेश वेशभूषा और खानपान की शैली के नाते भी मशहूर थे। वह भारत की सभ्यता यात्रा में एक पड़ाव के प्रतिनिधि थे।
प्रेमशंकर मिश्र काअभिमत संस्मरण:-
पं. बलराम प्रसाद मिश्र द्विजेश के लिए उन दिनों देश के जाने माने दिग्गज कवि कलावंत महीनों मेरे यहाँ ठहरते। सुबह- शाम अखंड काव्य और संगीत गोष्ठियाँ हुआ करती थीं। महाकवि जगन्नाथदास रत्नाकर पं. अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, पं. रमा शंकर शुक्ल रसाल के अतिरिक्त रीवां के महाकवि ब्रजेश, पं. बालदत्त, यज्ञराज, विचित्र मित्र ऐसे आचार्य कवि, अजीम खाँ, झंडे खाँ ऐसे उस्ताद यनायत खाँ ऐसे सितारवादक, उनके पुत्र उस्ताद अजीम खाँ साहब ऐसे संगीतज्ञों की सन्निधि मुझे बचपन से प्राप्त हुई है। आज के आफताबे गजल उस्ताद मेहंदी हसन और सितार नवाज उस्ताद शाहिद परवेज ऐसे आज के विश्व विश्रुत कलाकारों का बचपना अपने पिताओं के साथ मेरे साथ गिल्ली गोली खेलते बीता है। इस तरह साहित्य और संगीत मेरी घुट्टी में रहा। विरासत में मुझे काव्य रचना और मेरे अग्रज और उनके पुत्र को सितार वादन मिला। सन 1959 में पिता का तिरोभाव हुआ।
डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ जी द्वारा मूल्यांकन:-
बस्ती जनपद के स्वनामधन्य साहित्यकार डा. मुनिलाल उपाध्याय ‘सरस’ ने बस्ती के छन्दकारों का साहित्यिक योगदान भाग 1 में पृष्ठ 91 से 111 तक द्विजेश जी का परिचय काव्य तथा शैली का वैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने वन्दना, भक्ति दर्शन, गंगा गरिमा वर्णन, श्रृंगार खण्ड, नखशिख वर्णन, विविध प्रकरण तथा द्विजेशजी के रहन सहन को बड़े मार्मिक ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। अपने विवरण के अन्त में डा. सरस जी ने लिखा है- ‘द्विजेशजी ब्रज भाषा श्रृंखला के अन्तिम सशक्त कवि थे। केशव व पद्माकर की परम्परा जिसे रंगपाल जी ने बस्ती के मंच पर स्थापित किया था द्विजेशजी ने अपने पाण्डित्य से गौरव दिया।….श्रृंगार के साथ साथ मानव जीवन के व्यवहारिक पक्ष पर लेखनी चलाकर द्विजेश जी ने यदि कविता की भाव भूमि को मानवीय चेतना दिया तो राष्ट्रीयता का मंत्र फूंक करके परतंत्र देश वासियों को स्वतंत्रता का संदेश भी दिया। द्विजेश जी की काव्यधारा वह मन्दाकिनी है जहां सन्त समागम का संगम और त्रिवेणी के पावनत्व का उद्गम है। 85 वर्षों तक द्विजेश जी ने बस्ती की धरती को निहारा और अन्ततः मनीषी साहित्य सूर्य अस्ताचल पहुंच साहित्य से विराम लिया।‘
द्विजेश दर्शन कविता संग्रह :-
भक्ति भाव की प्रधानता वाले काव्य में उन्होंने अनूठी कल्पनाओं के साथ एक खास तरह के रंगारंग संयोजन को पिरोया है। अपनी कविता में भगवान शिव को उलाहना देते हुए उन्होंने लिखा है कि यदि भोलनाथ ने उनका उद्धार नहीं किया तो वे पार्वती की अदालत में भक्ति को अपना वकील बनाकर मुकदमा लड़ेगें।
डिगरी इजराई में न तारिहौं दिगंबर तौं,
कोष करुना को कम कुरक करावैंगे।।
कुछ और छन्द नमूना स्वरूप प्रस्तुत है-
अवतरण
गेरी गिरापति की गिरी है जो गिरीस सीस,
हल सों हिमंचल के हिय मैं हली गई।।
ह्वाँते चलि मचलि मचावति जु घोर सोर,
तोरि फोरि ढोकनि को ढाँकति ढली गई।।
पहुँची प्रयाग कै ‘द्विजेश’ कल-कौतुक यों,
विंध्य-कासिका के प्रेम पथ यों पली गई।।
फेटति फवनि सीम मेटति सरस्वति को,
भानुजा को भेंटति समेटति चली गई।।
गुण-गान
जेतेआदिबसतअसाघ बसुधा मैं ब्याधि,
होते ते सुसाध देती जो पराग मूठी तैं।।
जाख से जलोदर कराल कमलोदर पै,
काठ से कठोदर पै कालिका सी रूठी तैं।।
अधम अधंगे मति भंगे जो अपंगे गंगे,
होत चट चंगेयामैं सत्य है न झूठी तैं।।
पातक पितज्वर विपत्तिविपमज्वर की,
काल से कफज्वर की औपधि अनूठी तैं।।
मुंडन पर उक्ति
जनमति संगी अंग जाको मम अंग ही तैं,
चल्यों गंग न्हान जातें संग यों विगारिगो।।
चलतहिं आदि ही तें अनमन होन लारयो,
जान्योना ‘द्विजेश’ कौनब्याधि कोपकरिगो।
कैकै किते जत्न सो प्रयाग लौं पहुँचि केहूँ,
अन्त मों पैं मुंडन को यो असौंच परिगो।।
मेरो मित्र पाप जो परम प्रिय मोको हाय,
पहुँच्यों न गंग पौर पंथ ही मैं मरिगो।।
यम के नाम
श्री जमराज जू। ‘द्विजेश’ को प्रनाम, हैं-
अराम, आठो जाम तौ कुशल नेक चहियो।
आज हौं अह्नाए गंग पाए विश्वनाथ पद,
होत फल याको जो सोजानि जिय लहियो।
जानते हो जैसो संभु, गंग की तरंग जैसी,
तूहूँ चित्रगुप्त बैठे चुपैचाप रहियो।।
देत हूँ चेताई भाई बनि न परैगी मोसों,
अब फेरि कोऊ मोहिं पातकी जु कहियो
यमदूत की विवशता
जम गन भाख्यो गति गंगजम सों ‘द्विजेश’,
कहि जम कोपि ”गंग सोंहै तोहिंका प्रसंग।
कह्यों,”स्वामि। गंग तें तो नितहम होते तंग,
सोई गंग कै रही तिहारी प्रभुता को भंग।
पूँछयोपुनिकौनगंग?कैसी गंग’कह्यो, नाथ-
जाके अंग मिली हैं तिहारी भगिनी हूँ-संग”
”गंगै कहा गुन-ढ़ंग”कह्यो,”पीनपापिन कों,
गंग गंग कहे गंगधर सों मिलानी गंग”।
यमराज का उलाहना
आय जम शिवहिं जवाब दीनी चाकरी सों,
”या अनीति हौं तो अब कब लौं सहा करैं।
पुन्य बारे स्वत ही सिधारैं सुरलोक सबै,
जोगकारे चाहैं जितै तितही रहा करैं।।
ज्ञान-बारे गुनहिं न पाप पुन्य एकौ कछू,
मग्न ह्वै ‘द्विजेश’ मुक्ति मार गचहा करैं।।
पतित कतारैं तिन्हें गंगैं देति तारे, हम-
झूठे जम-द्वारे बीच बैठि कै कहा करैं।।
ब्रह्मा का पश्चाताप
जम को उराहनो सुनत बोले यों बिरंचि,
‘तू तैं मोंहिं दूनो है ‘द्विजेश’ दुख दाहे को।।
हूँ जो दये गंग तो सगर सूनु के प्रसंग,
नहिं कछु सारे पीन पातकी पनाहे को।।
भूलि परे नाहक भगीरथ की भूमिका मैं,
आपनो न तौ प्रबंध चेते चित चाहे को।।
काह कहैं जो पै कहूँ ऐसो जानते तो भला,
जीतेजान जाह्नवी को जान देते काहे को”।
कामना
अति दुख सों मैं दौरि गंग मैया तेरे पौर,
आयों जानि हानि तातें मोंयों बिनै बानीतैं।।
ह्वै के दीन अनाधीन अति पातकी जु पीन,
जान्यों हौं ‘द्विजेश’ है प्रवीन दया दानी तैं।।
मानै जु तो मानै नहिं मानै तो सुनै मों यह,
विनय ‘द्विजेश’ हठ सठ ज्ञान हानी तैं।।
प्रिय तौ जु करुना कसम करुनैं की सोई,
करु ना जु मों पै अब करुनानिधानी तैं।।
लेखक परिचय:(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। (मोबाइल नंबर +91 8630778321;
वॉर्ड्सऐप नम्बर+919412300183)