कश्मीरी पंडितों के लिए कई त्यौहार और पूजा-अनुष्ठान विशिष्ट हैं, जिनमें से कुछ प्राचीन काल से चले आ रहे हैं।ऐसा ही एक विशिष्ट कश्मीरी त्यौहार ‘खेचरी-मावस’ या यक्ष-अमावस्या है जो पौष (दिसंबर-जनवरी) के कृष्णपक्ष की अमावस्या के दिन मनाया जाता है । प्रागैतिहासिक कश्मीर में विभिन्न जातियों और जातीय समूहों के एक साथ रहने और सह-मिलन की स्मृति में, इस दिन कुबेर को बलि के रूप में खिचड़ी चढ़ाई जाती है जो दर्शाता है कि यक्ष का पंथ बहुत पहले से ही कश्मीर में मौजूद था। खेचरी-मावास एक लोक-धार्मिक त्यौहार प्रतीत होता है। इस शाम एक मूसल या कोई भी पत्थर (अगर मूसल उपलब्ध न हो) तो उसे धोकर चंदन और सिंदूर से अभिषेक किया जाता है और इसे कुबेर की छवि मानकर पूजा की जाती है। खिचड़ी के नैवेद्य को मंत्रों के साथ कुबेर को अर्पित किया जाता है और इसका एक हिस्सा पूजक द्वारा अपने घर की बाहरी दीवार पर इस विश्वास के साथ रखा जाता है कि यक्ष इसे खाने आएंगे।
खेचरी-मावास न केवल कश्मीरी पंडितों के धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है, बल्कि इसमें कश्मीर के पौराणिक इतिहास का भी समावेश है। यह पर्व यक्षों के ऐतिहासिक अस्तित्व को प्रमाणित और स्थापित करता है। यक्ष कश्मीर के प्राचीन मूल निवासियों में से एक जनजाति थे, जो हिमालय के ऊपरी पर्वतीय क्षेत्रों में रहते थे। उनका विस्तार वर्तमान उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश से लेकर कश्मीर तक था। हिंदू शास्त्रों ने यक्षों को गंधर्वों, किन्नरों, किरातों और राक्षसों के साथ अर्ध देवताओं का दर्जा दिया है। यक्ष भी कश्मीरी हिंदुओं की तरह देवों के देव महादेव भगवान शिव के कट्टर उपासक थे। यक्षपति भगवान कुबेर भगवान शिव के घनिष्ठ मित्र भी माने जाते हैं। भगवान कुबेर धन के स्वामी हैं और पौराणिक नगर अलकापुरी में निवास करते हैं, जो पर्वत मेरु की एक शाखा पर स्थित है। पर्वत मेरु भगवान शिव का निवास स्थान है। यक्षों के राजा भगवान कुबेर को धनपति, नर-राजा, राज-राजा और रक्षेंद्र भी कहा जाता है। वे सोने, चांदी, हीरे और अन्य बहुमूल्य रत्नों के स्वामी हैं। इसके अतिरिक्त वे उत्तर दिशा के अधिष्ठाता देवता भी माने जाते हैं। उनके भक्त और प्रजाजन, जिन्हें यक्ष/पिशाच कहा जाता है, असाधारण शक्तियों के धनी माने जाते हैं। प्राचीन समय में, यक्ष कश्मीर के विशाल पर्वत श्रृंखलाओं में निवास करते थे और शीतकालीन महीनों में कश्मीर की घाटियों में उतरते थे। कश्मीर के नाग निवासियों द्वारा उनका आतिथ्य खिचड़ी जैसे स्वादिष्ट व्यंजनों से किया जाता था।
जैसा कि कहा गया है खिचड़ी-अमावस्या की संध्या पर चावल, हल्दी और मूंग दाल मिलाकर खिचड़ी पकाई जाती है। यह खिचड़ी कभी-कभी मांस या पनीर के साथ भी तैयार की जाती है, जो परिवार की रीत पर निर्भर करती है। खिचड़ी को श्रद्धा के साथ तैयार किया जाता है और इसे ताजे मिट्टी के पात्र (टोक), घास से बनी गोल आकृति (अरी) या थाली पर रखा जाता है, यह भी परिवार की रीति पर निर्भर करता है। इसके बगल में एक मूसल (काजवठ) को घास से बनी गोलाकार/आरी पर सीधा खड़ा करके रखा जाता है। इसे तिलक लगाया जाता है और फिर पूजा की जाती है। इसके बाद खिचड़ी का एक भाग घर की आंगन की दीवार पर रखा जाता है।
इसके पश्चात इसे मूली और गांठ गोभी के अचार के साथ नैवेद्य के रूप में ग्रहण किया जाता है। मूसल भगवान कुबेर और उनके भक्त यक्षों के पर्वतीय निवास का प्रतिनिधित्व करता है। यक्षों की ऐतिहासिक उपस्थिति को उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और कश्मीर के मध्य और उत्तरी जिलों में उनके नाम पर बसे गांवों द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है। यहां तक कि श्रीनगर में भी यक्षों के नाम पर आधारित एक बस्ती है, जिसे “यछपोरा” कहा जाता है, जो पुराने शहर में स्थित है।
विस्थापन के बाद भी जो कश्मीरी पंडित जहाँ पर भी बसे हैं, अपने प्राचीन सभी त्योहारों को श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाते हैं क्योंकि ये धार्मिक अनुष्ठान उनकी गहरी और अटूट आस्था को व्यक्त करते हैं। खिचड़ी अमावस्या भी इन्हीं में से एक है।