कनिष्क पाण्डेय की पुस्तक ‘खेलों में भारत के स्वर्णिम पल’ से कुछ ऐसे पलों के बारे में जब खेल स्पर्धाओं में हमारे खिलाड़ियों ने देश का गौरव बढ़ाया।
स्वतंत्र भारत का पहला हॉकी ओलम्पिक स्वर्ण पदक
बलबीर सिंह ने 1948 के ओलम्पिक खेलों के दौरान मेजबान ग्रेट ब्रिटेन के खिलाफ फाइनल में भारत के चार गोल में से दो गोल दागे। उनके इन गोल की बदौलत स्वतंत्र भारत ने अपना पहला ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीता।
यह स्वर्ण पदक एक ऐसे समय प्राप्त हुआ जबकि भारत के कई खिलाड़ी बँटवारे की वजह से दो मुल्कों (भारत-पाकिस्तान) में जाकर बस गये थे और स्वतंत्र भारत में खिलाड़ी डेब्यू कर रहे थे। भारत की टीम रेलवे के लिए खेलनेवाले किशन लाल की कप्तानी में बनाई गई तथा इस टीम की उपकप्तानी केडी सिंह (बाबू) को दी गई। टीम में इनके अलावा लेसली क्लॉडियस और पंजाब से बलबीर सिंह सीनियर जैसे खिलाड़ी, जिनको कि पूर्व ओलम्पिक खेलने का गौरव प्राप्त था, को टीम में शामिल किया गया।
टीम का मैनेजर ए.सी. चटर्जी को बनाया गया। भारत की इस टीम का स्वर्ण पदक जीतने के सपने को साकार करना किसी चुनौती से कम नहीं था और वह भी तब जब इस टीम में अनुभवी खिलाड़ियों की कमी रही हो। लेकिन कहते हैं, फौलादी हौसले हों तो किसी लक्ष्य को हासिल करना एक आसान काम हो जाता है।
1928 (एमस्टरडैम), 1932 (लॉस एंजल्स) और 1936 (बर्लिन) ओलम्पिक में पहले ही हॉकी में गोल्ड जीत चुके भारत के लिए 1948 में लंदन में हो रहा ओलम्पिक इसलिए भी खास मायने रखता था क्योंकि इस बार भारत आजाद होने के तुरन्त बात अपने देश के झंडे के साथ मैदान में उतर रहा था। लंदन में इंडिया का पहला मैच ऑस्ट्रेलिया के साथ था। पहले ही मैच में इंडिया को 8-0 से सफलता मिली। बलबीर सिंह सीनियर ने अकेले 6 गोल दागे थे। इसी मैच से मिले कॉन्फिडेंस से टीम ने अगले मैच में अर्जेंटीना को 9-1 से पस्त किया। क्वार्टरफाइनल में फिर स्पेन को 2-0 से शिकस्त दी। सेमीफाइनल में हॉलैंड को 2-1 से हराकर टीम फाइनल में पहुँच गई। फाइनल में मुकाबला उसी देश की टीम से था जो हम पर लगभग 200 वर्ष राज कर चुका था और मुकाबला जीतकर भारतीय टीम के लिए एक बदला चुकाने जैसा मौका था।
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि भारत के कई खिलाड़ी नंगे पाँव इस मैदान पर खेले और मैदान पर घास होने की वजह से कई बार भारतीय खिलाड़ी फिसल जाते थे और गिर पड़ते थे। लेकिन अपने मन में लिए लक्ष्य को कभी भी अपने बुलन्द हौसले से डिगने नहीं दिया। पहले दो गोल बलबीर सिंह ने दाग दिए और इस बढ़त को आगे बढ़ाते हुए भारतीय टीम के दूसरे खिलाड़ी जैनसन पैट्रिक और तरलोचन सिंह ने एक-एक गोल दागे और भारत ने अपने अन्तरराष्ट्रीय खेल में स्वर्ण पदक जीतकर अपना परचम लहराया। हालाँकि यह भारत का चौथा ओलम्पिक गोल्ड था, मगर इनमें से 3 गोल्ड मेडल भारत ने आजादी पूर्व जीते थे। यह जीत का क्षण स्वतंत्र भारत के खेल इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।
इस जीत के लिए इन भारतीय टीम के सदस्यों को फ्रांस चैकोस्लोवाकिया और स्विट्जरलैंड में 15 दिन के टूर पर भेजा गया और लौटने पर उनका भव्य स्वागत किया गया। स्वागत समापन के रूप में नेशनल स्टेडियम में एक प्रदर्शनी मैच का आयोजन किया गया जिसे देखने उस समय के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तथा प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी पहुँचे थे।
‘फ्लाइंग सिख’ का राष्ट्रमंडल खेलों में पहला स्वर्ण पदक
मिल्खा सिंह, (जो कि ‘फ्लाइंग सिख’ नाम से मशहूर हुए) ने कार्डिफ में 1958 के कॉमनवेल्थ गेम्स में ट्रैक प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता। हालाँकि उस समय ज्यादातर लोगों ने उनके बारे में कभी नहीं सुना था लेकिन उनके एथलेटिक खेलों का कारनामा आज तक बच्चों-बच्चों की जुबाँ पर है। इस प्रतियोगिता में उन्होंने एक नया इतिहास रच डाला और अब उन्हें भारत के महानतम एथलीटों में से एक माना जाता है।
उन्हें देश के पहले ट्रैक एंड फील्ड सुपरस्टार के रूप में जाना जाता है। मिल्खा सिंह ने 1956 ओलम्पिक में एक नई प्रतिभा के तौर पर भारत का प्रतिनिधित्व किया। इसके बाद उन्होंने 1960 के रोम ओलम्पिक खेलों में 400 मीटर के फाइनल में चौथा स्थान प्राप्त किया। पदक से चूकते हुए भी उन्होंने अपनी प्रतिभा को जनमानस में स्थापित किया। यह क्षण देश के लिए भी एक एथलेटिक प्रदर्शन के हिसाब से एक गौरव का पल था। इन ओलम्पिक खेलों में ज्यादातर कैरेबियाई मूल के एथलेटिक का दबदबा बना हुआ था लेकिन यहाँ से यह विश्वास जगा कि हाँ भारतीय एथलीट भी ओलम्पिक जैसी प्रतिस्पर्धाओं में पदक जीत सकता है। उसके बाद के वर्षों में उन्होंने 200 मीटर और 400 मीटर की स्पर्धाओं में कई नेशनल रिकॉर्ड बनाए।
एक एथलीट के तौर पर उनकी बड़ी उपलब्धि टोक्यो में होनेवाले 1958 एशियन खेलों में 200 मीटर और 400 मीटर का स्वर्ण पदक जीतना था। यह कारनामा उन्होंने 47 सेकेंड में शानदार गति से 400 मीटर दौड़कर हासिल किया और अपने निकटतम प्रतिद्वन्द्वी पाब्लो सोम्बलिंगों से करीब 2 सेकेंड पहले पूरा किया। उनका दूसरा गोल्ड और भी खास था, क्योंकि उन्होंने एशिया के सर्वश्रेष्ठ धावक पाकिस्तानी मूल के अब्दुल खालिक को 200 मीटर की दौड़ में हराकर स्वर्ण पदक प्राप्त किया। अब्दुल खालिक वही धावक थे जिन्होंने एक नया रिकॉर्ड बनाने के साथ ही 100 मीटर रेस, एशियन गेम्स का स्वर्ण पदक अपने नाम किया था।
1958 में आयोजित ब्रिटिश एम्पायर एंड कॉमनवेल्थ गेम्स में उन्होंने दो रेस, 200 मीटर और 400 मीटर, में नया कीर्तिमान स्थापित किया। इस दौड़ प्रतियोगिता में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के विश्व रिकॉर्ड धारक मैलकम स्पेंस को पीछे छोड़कर प्राप्त किया। यह पल ऐतिहासिक था, क्योंकि इस खेल में उन्हें ट्रैक एंड फील्ड स्पर्धाओं में राष्ट्रमंडल खेलों का स्वर्ण पदक जीतनेवाला पहला भारतीय बना दिया था। यह रिकॉर्ड अगले 52 साल तक बना रहा। उनके स्वर्ण पदक के जीत की खुशी को मनाने के लिए उस समय के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अगला दिन सार्वजनिक अवकाश घोषित किया।
हॉकी विश्व कप 1975 में भारत की जीत
1975 में भारत ने मलेशिया के क्वालालम्पुर में आयोजित हॉकी विश्व कप का फाइनल मैच पाकिस्तान को 2-1 के स्कोर से हराकर जीता। 15 मार्च 1975 को आयोजित इस मैच में हॉकी टीम के कप्तान अजीत पाल और असलम शेर खान ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह जीत स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है।
भारतीय हॉकी टीम ने जब क्वालालम्पुर वर्ल्ड कप अपने नाम किया तो स्टेडियम में तिरंगा लहराया और उस क्षण पूरी टीम भावुक हो गई। भारत को पहली बार वर्ल्ड कप जितवाने में जो खिलाड़ी हीरो रहे, वे थे हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचन्द के पुत्र अशोक कुमार ध्यानचन्द सिंह और पेनल्टी कॉर्नर विशेषज्ञ असलम शेर खान। असलम शेर खान ने सेमीफाइनल में भारत के लिए मलेशिया के खिलाफ बराबरी दिलानेवाला अहम गोल दागा था। अशोक कुमार ने भारत के लिए वर्ल्ड कप में पाकिस्तान के खिलाफ फाइनल में निर्णायक गोल कर वर्ल्ड कप भारत की झोली में डाला।
पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ इस फाइनल मुकाबले में बढ़त बनाते हुए शुरुआती गोल किया और यह गोल उनके खिलाड़ी जाहिद द्वारा किया गया। चूंकि हॉकी खेल में पाकिस्तानी टीम भी एक सशक्त टीम मानी जाती थी, अतः इस प्रथम गोल के बाद भारतीय टीम में कुछ निराशा छा गई। लेकिन एकजुट होते हुए टीम के खिलाड़ी अशोक कुमार, गोविन्दा और सुरजीत सिंह के साथ हाफ लाइन के खिलाड़ी वरींदर सिंह ने कप्तान को भरोसा दिलाया कि अगर हम हौसले से खेले तो हम निश्चित ही अभी भी जीत सकते है। अपना जज्बा दिखाते हुए फुर्तीले खिलाड़ी सुरजीत ने 25वें मिनट में पाकिस्तान के खिलाफ एक रोमांचकारी गोल दाग दिया और टीम को बराबरी पर ला दिया। अपने लक्ष्य की ओर केन्द्रित रहते हुए अशोक कुमार ने फिर एक गोल दाग कर खिताब भारत के नाम किया। यह रोमांचकारी मैच भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है।
भारत ने 1983 में जीता क्रिकेट विश्व कप
भारतीय क्रिकेट इतिहास में दो ऐसे खुशी के पल आये हैं जो हमारे इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हैं और इससे हर भारतीय और क्रिकेट प्रेमियों का सिर फख्र से ऊँचा हुआ है। यह अवसर पहली बार 1983 में खेले गये क्रिकेट विश्व कप में आया जब भारतीय टीम ने कपिल देव की कप्तानी में वेस्ट इंडीज के खिलाफ खेलते हुए यह कारनामा कर दिखाया। 25 जून, 1983 को लॉर्ड्स के मैदान में खेला गया यह मैच आज भी लोगों को सोचने पर रोमांचित कर देता है।
हालाँकि इस मैच में वेस्ट इंडीज टीम के सामने भारत को प्रबल दावेदार नहीं माना गया था लेकिन भारतीय क्रिकेट टीम के हौसले इतने बुलन्द थे कि उस वक्त यह टीम किसी को भी धूल चटा सकती थी। हालाँकि यह मैच आशाओं के विपरीत लो स्कोर मैच रहा और टॉस जीतने के बाद वेस्ट इंडीज टीम ने भारत को बल्लेबाजी करने का मौका दिया। गावस्कर सरीखे खिलाड़ी मात्र 2 रन पर पैवेलियन लौट गये। इससे लोगों के बीच कुछ निराशा छाई लेकिन इस निराशा को छाँटते हुए महेन्द्र अमरनाथ ने एक छोर सम्भाल लिया और दूसरे छोर पर श्रीकांत तूफानी मूड में बल्लेबाजी करते रहे। इस लो स्कोरिंग गेम में भारत ने 183 रन बनाकर आउट हुई।
उस समय ऐसा लगा रहा था कि भारतीय टीम का जीतना और वो भी वेस्ट इंडीज जैसी सशक्त टीम के सामने, शायद मुश्किल होगा। लेकिन भारतीय गेंदबाजों ने अपनी फिरकी का जादू इस तरह चलाया कि वेस्ट इंडीज के खिलाड़ियों को ताश के पत्तों की तरह ढेर कर दिया। विलियन रिचर्ड्स जैसे खिलाड़ी जिन्होंने आनन-फानन 33 का स्कोर कर लिया था और जिस लय में वो खेल रहे थे लोगों को इस मैच के एकतरफा जल्दी समाप्त होने की उम्मीद थी। लेकिन मदनलाल ने जब 4 चौके खा लेने के बाद फिर से अपने कप्तान से गेंद माँगी तो सभी लोग हतप्रभ रह गये कि कपिल देव ऐसा कैसे कर सकते हैं। लेकिन मदनलाल ने अपने इरादे का पक्का परिचय देते हुए विव रिचर्ड्स को दूसरी गेंद में कपिल के हाथों कैच करवाकर पैवेलियन के लिए चलता कर दिया। यहाँ से फिर यह मैच इस तरह मुड़ा कि भारत ने आखिरकार इस मैच को जीत कर इतिहास रच ही दिया। इस जीती टीम को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हैदराबाद हाउस में बुलाकर स्वागत किया और सभी को बधाई दी।
102 साल की उम्र में मान कौर ने जीता मास्टर्स एथलेटिक्स में स्वर्ण
पटियाला की रहनेवाली मान कौर ने 102 वर्ष की उम्र में विश्व मास्टर्स एथलेटिक्स की 200 मीटर दौड़ प्रतियोगिता में स्वर्ण जीतकर देश के एथलेटिक इतिहास में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज कराया और देश का नाम ऊँचा किया।
1916 में जन्मीं मान कौर 102 साल की उम्र में स्पेन की मलागा में आयोजित मास्टर्स एथलेटिक्स चैम्पियनशिप की 200 मीटर रेस में 100 से 104 साल के आयुवर्ग में स्वर्ण पदक हासिल कर चुकी हैं। उनके इस हैरतंगेज कारनामे को विश्व के एथलेटिक समुदाय ने सलाम किया है। यह भारत के लिए सचमुच एक गौरवशाली क्षण था। 102 साल की उम्र में अपने हौसले को इस तरह कायम रखना सभी के लिए मिसाल है। यह भी कम हैरतंगेज नहीं है कि मान कौर ने 93 साल की उम्र में दौड़ना शुरू किया और उन्हें दौड़ने के लिए उत्साहित करनेवाला कोई और नहीं उनका 79 वर्षीय बेटा गुरदेव सिंह था।
इस उम्र में दौड़ना शुरू करने के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। और एथलेटिक प्रतियोगिता में एक से एक कारनामा करती चली गईं। उन्होंने न्यूजीलैंड के ऑकलैंड स्काई टॉवर पर ‘स्काई वॉक’ कर रिकॉर्ड बनाया।https:// rajkamalprakashan.com/blog/ पाँ च मीटर की दूरी तक भाला फेंका और स्वर्ण पदक जीता। इस प्रकार इन्होंने कुल 4 स्वर्ण पदक हासिल किये हैं। न्यूजीलैंड में जीता गया गोल्ड मेडल मान कौर के करियर का 17वाँ गोल्ड मेडल था। जब वह 94 साल की थीं, उन्होंने चंडीगढ़ में हुए नेशनल टूर्नामेंट में सौ-दो सौ मीटर दौड़ में गोल्ड मेडल जीता था। उन्होंने अमेरिका में सौ-दो सौ मीटर रेस में गोल्ड मेडल जीता था। इतना ही नहीं, उन्होंने इस दोनों रेस में वर्ल्ड रिकॉर्ड भी बना डाला। वर्ष 2001 में उन्हें एथलीट ऑफ द ईयर चुना गया था।
8 मार्च, 2020 को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन इन्हें नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
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