भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन ऐसे शबद बोलने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी केवल सिक्ख समुदाय के प्रेरणापुंज व आदर्शों ही नहीं अपितु समूचे हिंदू समुदाय हेतु प्रेरणापुंज रहें हैं। वे सिक्ख समुदाय की गुरु पीठ पर दसवें गुरु के रूप में विराजे थे। उन्होंने श्री गुरुग्रंथ साहिब को पूर्ण किया व उसे ही गुरु मानने की सीख अपने अनुयायियों को दी थी।
पटना में वर्ष 1666 की पौष शुक्ल सप्तमी को जन्में गुरु गोबिंदसिंह का मूल नाम गोबिंद राय था। नानकशाही कैलेंडर के अनुसार ही पौष मास, शुक्ल पक्ष, सप्तमी को गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश परब मनाया जाता है।
गुरु गोबिंदसिंह जी ने वर्ष 1699 की बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना थी। इसके पूर्व गुरु गोबिंद सिंह ने अपने सभी अनुयायियों को आनंदपुर साहिब में एकत्रित होनें का आदेश दिया था। उस सभा में उन्होंने सभी अनुयायियों के समक्ष अपनी तलवार म्यान से निकाली और अपनी उस चमकदार तलवार को लहराते हुए कहा – “वो पाँच लोग सामने आयें जो धर्म की रक्षा के लिए अपनी गर्दन भी कटवा सकते हों”। गुरु के इस आदेश पर सर्वप्रथम दयाराम आगे बढ़कर गुरुजी के पास आए तो गुरु गोबंदसिंग उन्हें अपने तंबू में ले गए, और जब गुरुजी बाहर आए तो उनके हाथों में रक्त सनी, रक्त टपकती हुई तलवार थी। इस प्रकार शेष चारो शिष्य भी रक्त टपकती तलवार देखकर भयभीत नहीं हुए व तंबू के भीतर क्रमशः निडर होकर जाते रहे। उनके ये वीर शिष्य थे, हस्तिनापुर के धरमदास, द्वारका के मोहकम चंद, जगन्नाथ के हिम्मतसिंग और बीदर के साहिब चंद। सभा में उपस्थित अन्य शिष्यों को लगा कि उन पांचों का बलिदान दे दिया गया है। किंतु, कुछ मिनिटों बाद ही ये पांचों शिष्य तंबू से भगवा पगड़ी व भगवा वेश धारण करके बाहर निकल आए। खालसा पंथ की स्थापना के दिन गुरु की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए इन शिष्यों को ही “पंज प्यारे” का नाम दिया गया। इस प्रकार खालसा पंथ की स्थापना हुई थी।
हिंदू समुदाय के अलग-अलग मत, पंथ, संप्रदाय के इन वीर हिंदू युवकों को गुरु साहब जी ने एक कटोरे में कृपाण से शक्कर मिलाकर उसका जल पिलाया और एक समरस, सर्वस्पर्शी व भेदभावरहित हिंदू समाज का प्रतीक उत्पन्न किया। इन पंज प्यारों के नाम के आगे गुरुजी ने सिंह उपनाम लगाकर इन्हें दीक्षित किया था। इस सभा में ही उन्होंने यह जयघोष भी प्रथम बार बोला था – “वाहे गुरुजी का खालसा वाहे गुरुजी की फ़तह”। गुरुसाहब ने खालसा पंथ की स्थापना हिंदू समाज को विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचाने व अपने सनातन धर्म की रक्षा करने हेतु की थी। इतिहास साक्षी है कि खालसा पंथ ने अपने इस लक्ष्य के अनुरूप ही सनातन की रक्षा के लिए अनगिनत युद्ध लड़े, असंख्य प्राणों की आहुतियाँ दी, अनहद मुस्लिम विरोधी अभियान संचालित किए थे।
मात्र नौ वर्ष की आयु में गुरु गोबिंद सिंग ने मुगलों द्वारा काटे गए, अपने पिता के सिर को देखने की भीषण व दारुण घटना को भोगा था।
गुरु गोबिंद सिंह केवल धार्मिक गुरु नहीं थे, वे एक उद्भट योद्धा, अद्भुत साहित्यकार, अनुपम समाजशास्त्री व रणनीतिज्ञ भी थे।
गुरु गोबिंद सिंह के सैन्य अभियानों व चुनौतियों से घबराकर क्रूर मुगल शासक औरंगज़ेब ने गुरु जी को एक संदेश भेजा – “आपका और मेरा धर्म एकेश्वरवादी है, तो भला हमारें मध्य क्यों शत्रुता होनी चाहिए? हिंदु रक्तपिपासु औरंजेब ने लिखा – “आपके पास मेरी प्रभुसत्ता मानने के अलावा कोई चारा नहीं है जो मुझे अल्लाह ने दी है। आप मेरी सत्ता को चुनौती न दें वर्ना मैं आप पर हमला करूँगा”। उत्तर देते हुए, गुरु साहब जी ने लिखा “सृष्टि में मात्र एक सर्वशक्तिमान ईश्वर है जिसके मैं और आप दोनों आश्रित हैं किंतु आप इसको नहीं मानते और अन्यायपूर्ण भेदभाव करते हैं। आप हम हिंदुओं का संहार करते हैं। ईश्वर ने मुझे न्याय स्थापित करने व हिंदुओं की रक्षा हेतु जन्म दिया है। हमारें व आपके मध्य शांति नहीं हो सकती है, हमारे रास्ते अलग हैं?” इस पत्र के बाद औरंगज़ेब भड़क उठा और उसने अपनी समूची शक्ति गुरु गोबिंद सिंह के पीछे लगा दी।
‘फ़ाउंडर ऑफ़ खालसा’ के लेखक अमरदीप दहिया लिखते हैं – “गुरु ने अपने सभी सेना प्रमुखों को आदेश दिया – “मुग़ल सेना की संख्या बहुत बड़ी होने के कारण हमने क़िले में रहकर छापामार युद्ध ही करना होगा”।
इस ऐतिहासिक संघर्ष में गुरु साहब जी ने खालसा पंथ के भाई मुखिया व भाई परसा को घुड़सवारों, पैदल सैनिकों और साहसी युवाओं के साथ आनंदपुर पहुंचने के लिए कहा। युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र व अफ़ग़ानिस्तान से घोड़े बुलवाये गए। रात-दिन सैन्य प्रशिक्षण होने लगा। खालसा सेना छः भागों में जमाई गई। पाँच टुकड़ियां पाँच किलों की रक्षा के लिए कूच कर गई और छठी को आपद स्थिति हेतु सुरक्षित रखा गया।
इस पृष्ठभूमि में अत्यंत भीषण युद्ध हुआ। मुगलों ने भयंकर हमला किया। इस युद्ध के संदर्भ में इतिहासकार मैक्स आर्थर मौकॉलिफ़ अपनी पुस्तक ‘द सिख रिलीजन’ में लिखते हैं, “इन पाँचों गढ़ों से सिख तोपचियों ने मुगलों को बड़ी संख्या में मार गिराया। मुगल सैनिक खुले में लड़ रहे थे इसलिए सिक्ख सैनिकों की अपेक्षा उन्हें अधिक हानि हुई। मुगलों की दुर्बल होती स्थिति देखकर उदय सिंह और दया सिंह के नेतृत्व में सिक्ख सैनिक किले से बाहर निकल आए और मुगल सैनिकों पर टूट पड़े। मुगल सेनापति वज़ीर ख़ाँ और ज़बरदस्त ख़ाँ ये देखकर दंग रह गए कि किस तरह एक छोटी सी सेना मुगलों के दाँत खट्टे कर रही थी।” गुरुजी की सेना, सेनापति, उनके घोड़े, उनकी सैन्य चमक-दमक, भव्यता, वीरता का बड़ा अच्छा वर्णन इस पुस्तक में है।
आर्थर ने लिखा “बड़ी संख्या में हताहत हो रहे ये मुस्लिम आक्रमणकारी अपनी रणनीति परिवर्तित करने को विवश ही गए व सीधे युद्ध करने के स्थान पर उन्होंने इस सनातनी सेना को उनके किलों के भीतर घेर-बाँधकर रखने की रणनीति अपनाई। सिक्ख सैनिक अपने किलों से बाहर ही न निकल पाएँ और उन्हें खाद्य सामग्री व अन्य साधन न मिल पाएँ, इस प्रकार की योजना मुग़लों ने बनाई।” इस युद्ध में कुछ संधियाँ भी हुई और उन संधियों को मुस्लिम आक्रामकों ने किस प्रकार बेईमानी पूर्वक भंग किया इसका विवरण भी इस पुस्तक में है। गुरु गोबिंद सिंह के सेनापति, माता जी, पुत्र, परिजन, सहयोगी किस प्रकार छद्मपूर्ण हताहत किया गए यह दुखद तथ्य भी स्मरणीय है। गुरु जी के दोनों पुत्रों द्वारा इस्लाम स्वीकार करने के स्थान पर दीवार में चुनकर भीषण मृत्यु का वरण करने का भी उल्लेख आता है। गुरु जी की हत्या भी छद्दमपूर्वक उन्हें अकेला पाकर की गई थी। सात अक्टूबर, वर्ष 1708 को गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु ग्रंथसाहिब को नमन करते हुए कहा – “आज्ञा भई अकाल की, तभी चलाया पंथ, सब सिखन को हुकम है गुरु मान्यो ग्रंथ।” इसके बाद उन्होंने 7 अक्टूबर, 1708 लो अपने प्राण छोड़ दिए, तब गुरु गोबिंद सिंह मात्र 42 वर्ष के युवा थे।
महत्वपूर्ण बात है कि आज सिक्ख समुदाय के कुछ मुट्ठी भर अराष्ट्रीय तत्व गुरु गोबिंद सिंह जी की सीख, उनके साहित्य व उनके सनातन की रक्षा के मूल भाव की उपेक्षा कर रहें हैं व सिक्खिज्म के नाम पर भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं। गुरु जी का साहित्य कई गुरुद्वारों से योजनाबद्ध नीति से ग़ायब करा दिया गया है। गुरु गोबिंद रचित जापु साहिब, दशम ग्रन्थ, अकाल स्तुति, बिचित्तर नाटक, चंडी चरित्र, ज्ञान प्रबोध, चौबीस अवतार, शस्त्रमाला, अथ पख्याँ चरित्र लिख्यते, आदि ग्रंथ जो कि सनातन का महिमागान करते हैं उन्हें, हिंदू-सिक्ख में भेद उत्पन्न करने हेतु पठन-पाठन से हटा दिया जाना एक गहरा षड्यंत्र है। देवी की आराधना करते हुए गुरु जी कहते हैं –
पवित्री पुनीता पुराणी परेयं ।
प्रभी पूरणी पारब्रहमी अजेयं ॥
अरूपं अनूपं अनामं अठामं ।
अभीतं अजीतं महां धरम धामं ll
पवित्री पुनीता पुराणी परेयं ।
प्रभी पूरणी पारब्रहमी अजेयं ॥
अरूपं अनूपं अनामं अठामं ।
अभीतं अजीतं महां धरम धामं ll
आज आवश्यकता इस बात की है कि सर्व साधारण सिक्ख समाज अलगाववादी तत्त्वों से बचे व गुरु साहब जी के लेखन का हृदयपूर्वक मनन करे।
( प्रवीण गुगनानी, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार में सलाहकार (राजभाषा) हैं )
संपर्क -9425002270