डूब कर पार उतर गए हैं हम
लोग समझे कि मर गए हैं हम
ए ग़म-ए-दहर तेरा क्या होगा
ये अगर सच है कि मर गए हैं हम
होंटों से शफ़क़ ढलक रही है गोया
यूँ फबके हुए जिस्म में रक़सा है शबाब
पैमाने से मय छलक रही है गोया
इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो
अक़्ल से सिर्फ़ ज़ेहन रौशन था
इश्क़ ने दिल में रौशनी की है
ख़ुदा से क्या मोहब्बत कर सकेगा
जिसे नफ़रत है उस के आदमी से
ज़िंदगी से तो ख़ैर शिकवा था
मुद्दतों मौत ने भी तरसाया
अल्फ़ाज़ की रग रग में रचाता हूँ लहू
ताबिंदा ख़यालों को पिलाता हूँ लहू
हर शेर की मेहराब में मशअ’ल की तरह
मैं अपनी जवानी का जलाता हूँ लहू
बीते हुए लम्हों का इशारा ले कर
रूमान का बहता हुआ धारा ले कर
उतरी है मिरे ज़ेहन में फिर याद तिरी
महताब की किरनों का सहारा ले कर
सीख ले जो तिरी ज़ुल्फ़ों से परेशाँ होना
मेरे विज्दान ने महसूस किया है अक्सर
तेरी ख़ामोश निगाहों का ग़ज़ल-ख़्वाँ होना
ये तो मुमकिन है किसी रोज़ ख़ुदा बन जाए
ग़ैर मुमकिन है मगर शैख़ का इंसाँ होना
अपनी वहशत की नुमाइश मुझे मंज़ूर न थी
वर्ना दुश्वार न था चाक-गिरेबाँ होना
रहरव-ए-शौक़ को गुमराह भी कर देता है
बाज़ औक़ात किसी राह का आसाँ होना
क्यूँ गुरेज़ाँ हो मिरी जान परेशानी से
दूसरा नाम है जीने का परेशाँ होना
जिन को हमदर्द समझते हो हँसेंगे तुम पर
हाल-ए-दिल कह के न ऐ ‘शाद’ पशीमाँ होना