फूल यह तूने जो बालों में लगा रखा हैं
एक दिया है जो अंधेरों में जला रखा है ………
यह ग़ज़ल अपनी जवानी के दिनों में हम सभी ने सुनी है और उसमें इश्क़ के बहुत सारे रंग देखे हैं. इस बेहतरीन ग़ज़ल को गायक मेहदी हसन ने युवाओं का गीत बना दिया था.
भारत और सीमा पार के जिन गायकों ने ग़ज़ल गायकी को बुलंदी पर पहुँचाया उनमें निस्संदेह एक अज़ीम नाम मेहदी साहब का भी है . उनकी गायी ग़ज़लों में लोग उन्हें इतना गहराई तक डूबा पाये हैं कि उसके शायर की जगह उसे मेहदी साहब की ग़ज़ल कहते हैं . जो लोग उन्हें पाकिस्तानी गायक समझते हैं उन्हें शायद ही पता हो कि उनकी जड़ें भारत और ख़ासकर राजस्थान की लोकगायकी में बसी हुई हैं.
शेखावटी इलाके के झुंझुनूं ज़िले की अलसीसर तहसील के एक गाँव लूणा में मुस्लिम गवैयों के कुछ परिवार लंबे समय से रहते आ रहे थे. इलाक़े भर में ध्रुपद गायकी का बड़ा नाम माने जाने वाले उस्ताद अज़ीम खान इसी लूणा की गायकी परंपरा से थे और अक्सर अपने छोटे भाई उस्ताद इस्माइल खान के साथ रईसों की महफ़िलों में गाने जाते थे. शेखावटी के रईसों ने कला और संगीत को हमेशा संरक्षण दिया था.
18 जुलाई 1927 को इन्हीं अज़ीम खान के घर एक बालक जन्मा जिसे मेहदी हसन नाम दिया गया. मेहदी यानि ऐसा शख्स जिसे सही रास्ते पर चलने के लिए दैवीय रोशनी मिली हुई हो. गाँव के बाकी बच्चों की तरह मेहदी हसन का बचपन भी लूणा की रेतीली गलियों-पगडंडियों के बीच बकरियां चराने और खेल-कूद में बीत जाना था लेकिन वे एक कलावन्त ख़ानदान की नुमाइंदगी करते थे सो चार-पांच साल की आयु में पिता और चाचा ने उनके कान में पहला सुर फूंका. उस पहले सुर की रोशनी में जब इस बच्चे के मुख से पहली बार ‘सा’ फूटा, एक बार को समूची कायनात भी मुस्कराई होगी. आठ साल की उम्र में पड़ोसी प्रांत पंजाब के फाजिल्का में मेहदी हसन ध्रुपद और ख़याल गायकी की अपनी पहली परफॉर्मेंस दी. आगे के दस-बारह साल जम के रियाज़ किया और अपने बुजुर्गों की शागिर्दी करते हुए मेहदी हसन ने ज्यादातर रागों को उनकी जटिलताओं समेत साध होगा.
1947 में विभाजन के बाद हसन ख़ानदान पाकिस्तान चला गया वहाँ साहीवाल जिले के चिचावतनी क़स्बे में नई शुरुआत की , लेकिन पाकिस्तान में सब कुछ हसन परिवार के मन का नहीं हुआ परिवार की जो भी थोड़ी-बहुत बचत थी वह कुछ ही मुश्किल दिनों का साथ दे सकी. पैसे की लगातार तंगी के बीच संगीत खो गया.
दो जून की रोटी के लिए मेहदी हसन ने पहले मुग़ल साइकिल हाउस नाम की साइकिल रिपेयरिंग की एक दुकान में नौकरी हासिल की. टायरों के पंचर जोड़ते, हैंडल सीधे करते करते कारों और डीजल-ट्रैक्टरों की मरम्मत का काम भी सीख लिया. जल्दी ही उस इलाके में मेहदी नामी मिस्त्री के तौर पर जाने जाने लगे और अड़ोस-पड़ोस के गांवों में जाकर इंजनों के अलावा ट्यूबवैल की मरम्मत के काम भी करने लगे.
संगीत के नाम पर एक सेकंड हैंड रेडियो था. काम से थके-हारे लौटने के बाद वही उनकी तन्हाई का साथी बनता. किसी स्टेशन पर क्लासिकल बज रहा होता तो वे देर तक उसे सुनते. फिर उठ बैठते और तानपूरा निकाल कर घंटों रियाज़ करते रहते.
उस दौर में भी मेहदी हसन ने रियाज़ करना न छोड़ा. इंजन में जलने वाले डीजल के काले धुएं की गंध और मशीनों की खटपट आवाजों के बीच उनकी आत्मा संगीत के सुकूनभरे मैदान पर पसरी रहती. रात के आने का इंतज़ार रहता.
इसी तरह रियाज़ करते हुए दस साल बीत गये तब कहीं जाकर 1957 में उन्हें रेडियो स्टेशन पर ठुमरी गाने का मौक़ा हासिल हुआ. उसके बाद सालों बाद उन्हें अपनी रुचि के लोगों की सोहबत मिली . पार्टीशन के बाद के पाकिस्तान में इस्लाम के नियम क़ायदे हावी होते जा रहे थे और कला-संगीत को प्रश्रय देने वाले दिखते ही नहीं थे . बड़े गायक और वादक जैसे तैसे अपना समय काट रहे थे. सत्ता की भी उनमें कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी.
पच्चीस साल लगातार सुर साधना करने के बाद मेहदी हसन इस नैराश्य को स्वीकार करने वाले नहीं थे. अच्छी बात यह हुई कि इस बीच उन्होंने संगीत के साथ-साथ शहरी में भी गहरी समझ पैदा कर ली थी. उस्ताद शायरों की सैकड़ों गज़लें उन्हें कंठस्थ थीं , दोस्तों के साथ बातचीत में वे शेरों को कोट किया करते थे.
फिर अचानक मेहदी हसन ल ने विशुद्ध क्लासिकल छोड़ ग़ज़ल गायकी को अपना अभिव्यक्ति माध्यम बना लिया पाकिस्तानी फ़िल्मों में गाया लेकिन वहाँ की फ़िल्म इंडस्ट्री बहुत छोटी थी , असली शोहरत मंच से मिली और और पूरे भारतीय उप महाद्वीप में उनकी गायकी गूंज उठी. उन्होंने मीर, ग़ालिब और फैज़ जैसे उस्ताद सूत्रों को तो गाया ही और फरहत शहज़ाद, सलीम गिलानी और परवीन शाकिर जैसे अपेक्षाकृत नए शहरों को भी अपनी गायकी में शामिल किया. उनकी प्रस्तुति में दो कला-विधाओं यानी शायरी और गायकी का चरम था उन्होंने अपने सुरों में ग़ज़लों को अलग ऊँचाई दी और अपनी परफॉरमेंस में रदीफ़-काफ़ियों ने नई नई पोशाकें पहनाईं .
मेहदी हसन के पास बेहद लम्बे और कभी न थकने वाले अभ्यास की मुलायम ताकत थी जिसकी मदद से उन्होंने संगीत की अभेद्य चट्टानों के बीच से रास्ते निकाल दिए. पानी भी यही करता है.
(लेखक स्टैट बैंक के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं)