Thursday, November 21, 2024
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Homeधर्म-दर्शनपूर्वजों के ऋण से उऋण होने और श्रध्दा का पर्व है श्राध्द

पूर्वजों के ऋण से उऋण होने और श्रध्दा का पर्व है श्राध्द

अश्विनी मास में 15 दिन श्राद्ध के लिए माने गए हैं। पूर्णिमा से लेकर अमावस्या तक का समय पितरों को याद करने के लिए मनाया गया है। सबसे पहला श्राद्ध पूर्णिमा से शुरू होता है। इस दिन पहला श्राद्ध कहा जाता है, जिन पितरों का देहांत पूर्णिमा के दिन हुआ हो, उनका श्राद्ध पूर्णिमा तिथि के दिन किया जाता है। इन 15 दिनों में सभी अपने पितरों का उनकी निश्चित तिथि पर तर्पण, श्राद्ध करते हैं। ऐसा करने से पितृ प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद देकर प्रस्थान करते हैं। अमावस्या के दिन पितरों को विदा दी जाती है।

हिंदू पंचांग (कैलेंडर) में आश्विन मास के संपूर्ण कृष्णपक्ष में पितरों को संतुष्ट करने के लिए समर्पित किया गया है। इसी कारण इसे ‘पितृपक्ष’ कहा जाता है। भारतीय काल-गणना के अनुसार, इस समय सूर्य कन्या राशि में होता है। इसलिए ‘कन्या’ राशि में सूर्य की स्थिति में पड़ने वाले पितृपक्ष को जनसाधारण में ‘कनागत’ के नाम से भी जाना जाता है। इस बार पितृपक्ष 17 सितंबर, 2024 भाद्रपद पूर्णिमा से शुरू हो गया है. इस दिन श्राद्ध पूर्णिमा भी है. 2 अक्टूबर, 2024 को सर्व पितृ अमावस्या यानी आश्विन अमावस्या (Ashwin Amavasya) के दिन इसका समापन होगा।
सात सौ साल के इस्लामिक राज और दो सौ साल के ईसाई शासन के बाद भी आज हम अपने त्योहार मना पाते हैं, अपने देवी देवताओं की पूजा कर पाते हैं और अपने देश मे गर्व से रह पाते हैं, ये सब इसीलिए सम्भव हो पाया क्योंकि आपने तलवार के डर अथवा पैसों के मोह में अपना धर्म नहीं बदला ।हम सदैव आपके ऋणी रहेंगे, ये पितृपक्ष आपके अदम्य शौर्य और आपके निःस्वार्थ भक्ति को समर्पित ।

आपके गौरवशाली वंशज
” उदित होती हुई उषा, बहती हुई नदियाँ, सुस्थिर पर्वत और पितृगण सदैव हमारी रक्षा करें ।”

-ऋग्वेद की यह प्रार्थना हमारी संस्कृति में पितरों की भूमिका को रेखांकित करती है । अपनी परम्परा में पितरों की उपस्थिति को अनुभव करना ही सच्ची पितृपूजा है। यह न कोई अशुभ कर्मकांड है, न ही रूढ़िगत मानसिकता का द्योतक। प्रत्येक संस्कारशील प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने पितरों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करे। पितृपूजा हमें अपनी कुल-परम्परा का स्मरण कराती है। हमारे सामाजिक संस्कार, हमारा विचार- दर्शन, हमारी मर्यादाएँ और हमारे भौतिक, आध्यात्मिक उत्तराधिकार पितरों पर ही अवलम्बित हैं । इसलिये प्रातःकाल पितरों का स्मरण कर हम अपनी विरासत के प्रति जागृत होते हैं ।

यह सच्चाई है कि कर्मकांड की उलझनों में दबा हुआ और कभी- कभी देवी-देवताओं से जड़ सम्बंध रखने वाला हमारा मन पितरों को सम्मान देते समय भाव विभोर ही नहीं हो उठता, गम्भीर भी हो जाता है। शास्त्रकारों ने साल का पूरा एक पखवाड़ा ही पितृपूजा के लिये सुरक्षित रख छोड़ा है, जो सम्भवतः सबसे लम्बा जनसुलभ धार्मिक अनुष्ठान है। हम इसे पितृपूजा या श्राद्धपक्ष के रूप में जानते हैं ।

पितरों के प्रति प्रकट की जाने वाली श्रध्दा को पितृयज्ञ कहा गया , जिसके विवरण ऋग्वेद से लेकर धर्मसूत्रों तक में भरे पड़े हैं। सूत्रकाल में पहली बार “श्राध्द ” शब्द का प्रयोग हुआ । “श्रध्दया दीयते यस्मात् श्राध्दं येन निगद्यते” कहकर श्राध्द की सर्वमान्य परिभाषा की गई। श्राध्दविधि का जन्मदाता मनु है। उसने भी श्राध्द का अर्थ पितृयज्ञ ही किया। पुरातनकाल से ही पितरों की दो श्रेणियाँ मिलती हैं । पहली श्रेणी में वे पितर आते हैं, जो अत्यंत प्राचीनकाल के हैं, और अपनी चरितार्थता के कारण अब देवताओं की कोटि में हैं । दूसरी श्रेणी में वे पितर आते हैं, जो निकटवर्ती तीन पीढ़ियों के हैं । सामान्यतः श्राध्द दूसरी श्रेणी के पितरों का किया जाता है। इस श्राध्द में पिता, पितामह, प्रपितामह को उनकी सदाशयता के साथ स्मरण करते हुए आह्वान किया जाता है। उनके स्वागत में बर्हि बिछाई जाती है, जिस पर आकर वे बैठते हैं, और उन्हें “कव्य” प्रदान किया जाता है।

दूसरे देशों की तुलना में हमारे यहाँ पितृपूजा का साहित्य और प्रयोगविज्ञान इतना समृद्ध है कि शास्त्रचर्चा के बिना ही सामान्य जन की इसमें गहरी पैठ हो जाती है । यह बात अलग है कि हमारा पितृ विषयक ज्ञान आज भी अधूरा और अस्पष्ट है । पितरों को तिलांजलि देकर , पिंडदान कर और ब्राह्मणों को भोजन खिलाकर श्राध्द की पूर्णता मानने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। और तो और ,भोजन को ही श्राध्द मान लेने का रिवाज चल पड़ा है। श्राध्द के दिन अपने मतलब के लोगों को बुलाकर उन्हें “लंच” या “डिनर” देना पितृपूजा नहीं, यह बात कम लोगों को समझ में आती है । ऐसे बुलाये गए लोगों को “श्राध्दमित्र” कहा गया है।

आपस्तम्ब ने तो यहाँ तक लिखा है कि श्राध्द करने वाला यदि अपने सगे-सम्बंधियों और मिलने वालों को भोजन कराता है, तो वह भोजन भूत-प्रेतों के हिस्से में चला जाता है। इसलिए अदृश्य और अज्ञात प्राणियों के लिये चारों दिशाओं में हव्य डालने को श्राध्द का अनिवार्य अंग बनाया गया। श्राध्द कर्म पितृपक्ष में ही नहीं किया जाता , अपितु विवाह आदि शुभप्रसंगों पर भी किया जाता है। इस श्राध्द को “नांदी श्राध्द ” कहते हैं ।

ऋग्वेद के दशम मंडल में एक पितृसूक्त मिलता है, जिसमें सुंदर प्रार्थना के द्वारा पितरों का आह्वान किया गया है। सूक्त की एक ऋचा का भाव इस प्रकार है :
“वे सभी पितर जो हैं यहीं या नहीं हैं कहीं ,
जानते हैं हम या जिन्हें जानते ही नहीं ,
हे अग्नि ! जानते हो तुम निश्चय ही उन सभी को ,
आओ । उन सभी के संग स्वीकार करो
यज्ञ का यह श्रध्दा- प्रसंग।”

सामान्यतः माता-पिता की दिवंगत पीढ़ी को संयुक्त रूप से पितर कहा जाता है। माता-पिता हमारी वंश-परम्परा के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि हैं ।कालिदास ने “जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ” कहकर जगत के माता-पिता की वंदना की है। प्राचीन वैदिक परम्परा में तो ऋतु, मास, रात्रि, वनस्पति और प्राणिक जगत को पितर कहकर सम्बोधित किया गया है। इस तरह जो पर्यावरण हमारी रक्षा करता है , वह पितर ही है। इसलिये पितरों की स्मृति में वृक्ष लगना, प्याऊ बनवाया, औषधालय खुलवाना महत्व का कार्य समझा जाता है।

लोग अपने घरों के नाम पितृस्मृति, मातृस्मृति रखकर भी पितरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।

प्राचीन पितरों का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने आने वाली पीढ़ी के लिये सत्य, प्रकाश और अमृत का मार्ग प्रशस्त किया। इन पितरों के कई नाम बताये गये हैं, जिनमें आंगिरस, अथर्वण, वशिष्ठ, भृगु और नवग्वा प्रमुख हैं । फिर भी हमारी परम्परा वैवस्वत यम को पहला व्यक्ति मानती है, जिसने पितृलोक की दुनिया बसाई। प्राचीन ऋषि पितृलोक को अत्यंत उज्ज्वल और अमृतमय आकाश के रूप में देखते थे। उन्होंने इस लोक को पितरों की आध्यात्मिक विजय के रूप में भी देखा। यह लोक आनंद, उल्लास और राग-रागिनियो से सदैव भरा-पूरा है।

कहा जाता है कि नचिकेता ने सशरीर इस लोक की यात्रा की थी। वह वहाँ तीन दिन रह कर आया था, और यम से भी मिला था। प्रार्थना साहित्य में देवताओं के बाद पितरों का ही क्रम आता है। देवताओं को पाने के लिए भी पितरों का ही सहारा लेना पड़ता है। इसीलिए हम देवपूजा से पहले गोत्रोच्चारण के द्वारा अपनी पितृ-परम्परा का ध्यान करते हैं ।पितृपूजा का शुद्ध सात्विक रूप केवल इतना ही है कि हम आत्मा की अमरता में अपनी गहरी आस्था व्यक्त करें । हमारी पितृ-परम्परा आत्मा का ही रूप है ,और वही एकमात्र गंतव्य है। इसीलिए मनु ने कहा था – अमृत पथ पर चलते रहे पिता ,पितामह हमारे।रास्ता निर्द्वन्द्व अब वही है, बस वही है।।

मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से तृप्त हों। साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक, चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों।’ – वायु पुराण

श्राद्ध का मुहूर्त कब-कब है

पूर्णिमा तिथि की शुरुआत- 17 सितंबर की सुबह 11.44 बजे
पूर्णिमा तिथि का समापन- 18 सितंबर की सुबह 8.04 बजे
कुतुप मूहूर्त- सुबह 11:51 से दोपहर 12:40 बजे
रौहिण मूहूर्त- दोपहर 12:40 से 13:29 बजे
अपराह्न काल- 13:29 से 15:56 बजे

श्राद्ध की प्रमुख तिथियां कब-कब हैंपितृ पक्ष की शुरुआत- 17 सितंबर, 2024प्रतिपदा तिथि का श्राद्ध- 18 सितंबर, 2024

द्वितीया तिथि का श्राद्ध- 19 सितंबर, 2024

तृतीया तिथि का श्राद्ध- 20 सितंबर, 2024

चतुर्थी तिथि का श्राद्ध- 21 सितंबर, 2024

पंचमी तिथि का श्राद्ध- 22 सितंबर, 2024

षष्ठी-सप्तमी तिथि का श्राद्ध- 23 सितंबर, 2024

अष्टमी तिथि का श्राद्ध- 24 सितंबर, 2024

नवमी तिथि का श्राद्ध- 25 सितंबर, 2024

दशमी तिथि का श्राद्ध- 26 सितंबर, 2024

एकादशी का श्राद्ध- 27 सितंबर, 2024

द्वादशी तिथि का श्राद्ध- 29 सितंबर, 2024

त्रयोदशी तिथि का श्राद्ध- 30 सितंबर, 2024

चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध- 1 अक्टूबर, 2024

पितृ पक्ष का समापन- 2 अक्टूबर

एक निवेदन

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