आर्यभटीय (आर्यभट्ट, 5वीं शताब्दी)
आर्यभट्ट ने अपने ग्रंथ “आर्यभटीय” में गणितीय और खगोलीय सवालों को श्लोकों में लिखा। एक उदाहरण:
– “10 पुरुष और 10 महिलाएं एक काम को 10 दिन में पूरा करते हैं। यदि 5 पुरुष और 5 महिलाएं हों, तो वही काम कितने दिनों में पूरा होगा?”
इस तरह के सवाल अनुपात और समय-कार्य की गणना पर आधारित होते थे।
लीलावती (भास्कराचार्य, 12वीं शताब्दी)
भास्कराचार्य की “लीलावती” में गणित को कहानियों और पहेलियों के रूप में प्रस्तुत किया गया। एक प्रसिद्ध सवाल:
– “एक बंदर एक पेड़ पर चढ़ता है। वह दिन में 3 फीट चढ़ता है, लेकिन रात में 2 फीट नीचे खिसक जाता है। यदि पेड़ 10 फीट ऊंचा है, तो बंदर को शीर्ष पर पहुंचने में कितने दिन लगेंगे?”
(जवाब: 7 दिन, क्योंकि 6वें दिन वह 9 फीट पर होता है और 7वें दिन 3 फीट चढ़कर 10 फीट पर पहुंच जाता है।)
व्यावहारिक सवाल
प्राचीन भारत में व्यापार और भूमि मापन से जुड़े सवाल भी आम थे। जैसे:
– “एक व्यापारी के पास 100 रुपये हैं। वह 5 रुपये में 2 किलो चावल और 3 रुपये में 1 किलो दाल खरीदता है। यदि वह सारा पैसा खर्च कर दे, तो वह कितना चावल और कितनी दाल खरीद सकता है?”
इस तरह के सवाल रैखिक समीकरणों को हल करने की प्रक्रिया को दर्शाते थे।
ज्यामिति और क्षेत्रफल
वैदिक काल में यज्ञ वेदियों के निर्माण के लिए ज्यामिति के सवाल होते थे। “शुल्ब सूत्र” में ऐसा एक सवाल:
– “एक वर्गाकार वेदी का क्षेत्रफल 16 वर्ग हस्त है। उसकी भुजा की लंबाई कितनी होगी?”
(जवाब: 4 हस्त, क्योंकि √16 = 4।)
शुल्बसूत्र (वेदिक काल) – पाइथागोरस प्रमेय का उल्लेख
दीर्घचतुरश्रस्याक्ष्णया रज्जु: पार्श्वमानी तिर्यग्मानी च यत् पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति।
“एक आयताकार क्षेत्र की विकर्ण रज्जु (रस्सी) जो पार्श्वमानी (लंबाई) और तिर्यग्मानी (चौड़ाई) को अलग-अलग मापती है, वह दोनों को मिलाकर बनाती है।”
यह श्लोक पाइथागोरस प्रमेय (a² + b² = c²) का प्राचीन भारतीय संस्करण है, जो वेदिक यज्ञ वेदियों के निर्माण में प्रयोग होता था। यह दर्शाता है कि प्राचीन भारतीयों को ज्यामिति का गहरा ज्ञान था।
आर्यभट (आर्यभटीयम्, गणितपाद) – वृत्त की परिधि
चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥
“100 में 4 जोड़ें, उसे 8 से गुणा करें, फिर 62,000 जोड़ें। यह 20,000 के व्यास वाले वृत्त की परिधि का निकटतम मान है।”
यहाँ आर्यभट ने π (पाई) का मान लगभग 3.1416 बताया, जो आधुनिक मान (3.14159) के बहुत करीब है। गणना है:
(100 + 4) × 8 + 62,000 = 62,832।
परिधि = 62,832 / 20,000 ≈ 3.1416। यह प्राचीन गणित में सटीकता का उदाहरण है।
खहरात् परं न च परं न च संख्याविशेषः।
तस्मात् खमेव परमं परमं च तदेव॥
“शून्य से बड़ा कुछ नहीं है, न ही कोई विशेष संख्या है। इसलिए शून्य ही सबसे बड़ा और सबसे ऊँचा है।”
भास्कराचार्य ने शून्य को न केवल एक placeholder के रूप में, बल्कि गणितीय संचालन में एक महत्वपूर्ण संख्या के रूप में स्थापित किया। यह भारतीय गणित की दशमलव प्रणाली और शून्य की खोज का आधार है।
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ब्रह्मगुप्त (ब्राह्मस्फुटसिद्धांत) – ऋणात्मक संख्याएँ**
धनं ऋणेन संनादति ऋणं धनेन संनादति च यथा।
धनं धनेन संनादति ऋणं ऋणेन संनादति च॥
“धन और ऋण का योग शून्य देता है, जैसे ऋण और धन का योग शून्य देता है। धन और धन का योग धन होता है, और ऋण और ऋण का योग ऋण होता है।”
यह श्लोक ऋणात्मक संख्याओं के नियमों को दर्शाता है। ब्रह्मगुप्त पहले गणितज्ञ थे जिन्होंने ऋण संख्याओं को औपचारिक रूप से परिभाषित किया, जैसे: (+a) + (-a) = 0, (-a) + (-a) = -2a।
लीलावती (भास्कराचार्य) – समांतर श्रेणी**
आदिमान्त्यविषमसंख्यया विभागार्धेन संनादति।
आद्यन्तफलयोगेन च गुणितं संनादति च॥
“पहले और अंतिम पद की संख्या को जोड़कर, उसे विषम संख्याओं की संख्या से भाग देने के आधे से, या पहले और अंतिम फल को जोड़कर उसे संख्या से गुणा करने से (योग) प्राप्त होता है।”
**गणितीय महत्व:**
यह समांतर श्रेणी के योग का सूत्र है:
S = n/2 × (a + l) या S = (a + l) × n/2,
जहाँ n = पदों की संख्या, a = पहला पद, l = अंतिम पद। यह व्यावहारिक गणनाओं में प्रयोग होता था।