( कृष्ण बिहारी पाठक व्याख्याता, हिंडौन सिटी से डॉ.प्रभात कुमार सिंघल का साक्षात्कार )
अपनी सीमाओं के बाद भी बालमन को शिक्षित – संस्कारित करने में इन परीकथाओं की भूमिका असंदिग्ध है। हाल ही में नाथद्वारा में आयोजित दो दिवसीय साहित्य मंडल के समारोह में हिंडोन के व्याख्याता कृष्ण बिहारी पाठक से बाल साहित्य में परी कथाओं की प्रांगिकता पर चर्चा हुई तो उन्होंने उक्त विचार व्यक्त किए। उन्होंने बताया कि शब्दावली विकास से लेकर संज्ञानात्मक विकास तक, संस्कृतियों के आदान-प्रदान से लेकर समस्या समाधान तक, भावात्मक लोच से लेकर तार्किक सोच तक, तनाव मुक्ति से आत्मशक्ति तक, भूगोल खगोल और प्रकृति के बहुआयाम से विश्वग्राम तक, नैतिकता, मानवता, सृजनात्मकता से लबरेज परीकथाओं का सजीला – सुरीला संसार बालमन के लिए आवश्यक भी है और अनुकूल भी।
उनका कहना था बाल साहित्य चाहे किसी भी देश-काल, समाज – संस्कृति का हो और वह चाहे किसी भी विधा में उपस्थित हो, बाल साहित्य कहलाने के लिए उसमें दो प्राथमिकताएं अवश्य तय होनी चाहियें। प्रथम तो यह कि वह बालकों के लिए हितकर हो तथा दूसरी यह कि वह रुचिकर हो। हितकर का संबंध उन पहलुओं से है जो बालक – बालिकाओं के संज्ञानात्मक, नैतिक, सामाजिक, सृजनात्मक, तार्किक, भावात्मक और संवेदनात्मक विकास का समर्थन करते हैं और रुचिकर का संबंध मनोरंजन, आनंद, रहस्य, रोमांच और जिज्ञासा के पोषण से है।
वे कहते हैं ,बाल साहित्य यदि हितकर नहीं होगा तो वह भविष्य के सर्वांगपूर्ण नागरिक के रूप में बालक को विकसित नहीं कर सकेगा और रुचिकर नहीं हुआ तो बालक उससे जुड़ नहीं पाएंगे, उसे आत्मसात नहीं कर सकेंगे।
इस तरह से बालकों के संदर्भ में रुचिकर और हितकर होना बाल साहित्य की दो आधारभूत कसौटियाँ हैं जिन पर उसकी सफलता और चरितार्थता को कसा जा सकता है, उसकी प्रासंगिकता को परखा जा सकता है।
वे परिकथा के संदर्भ में कहते हैं परी, जादूगर, राक्षस, राजा – रानी आदि पर केंद्रित बाल साहित्य जिसे समग्र रूप में ‘परीकथा’ कह सकते हैं। यद्यपि यह विडम्बना ही है कि भारतीय बाल-साहित्य में परीकथाओं के स्वरूप और उनकी रचना के संबंध में आज भी भ्रम बना हुआ है. यहाँ हठ पूर्वक परीकथा उसे माना जाता है कि जिसकी पात्र कोई ‘परी’ हो। यह भी कि परीकथा का स्वप्निल-संसार केवल काल्पनिक होता है और उसका यथार्थ से कोई संबंध नहीं होता तथा परीकथा’ में हर असम्भव को सम्भव बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। इस हठ से निकलकर समग्रता के साथ व्यापक संदर्भ में परीकथाओं के संप्रत्यय को समझे जाने की आवश्यकता अभी बनी हुई है।
परीकथाओं में निहित अवास्तविक परिस्थितियों, कल्पनाशीलता और अतिरंजना के चलते यह प्रश्न बार बार उठता है कि परीकथाएं बाल साहित्य में कितनी आवश्यक हैं के प्रश्न पर वह बताते हैं कि आज के प्रजातांत्रिक परिदृश्य में राजा-रानी जैसे विशिष्ट चरित्रों पर केंद्रित साहित्य की कैसी भूमिका है यह भी विचारणीय है। प्रस्तुत आलेख में परीकथाओं की वर्तमान प्रासंगिकता की पड़ताल का एक प्रयास किया गया है। साहित्य में कथा या कहानी विधा कहते ही ‘कल्पना’ तत्व की मौजूदगी को स्वीकार्यता मिल जाती है।कहने का अभिप्राय यह है कि कल्पना यदि कथा में नहीं होगी तो क्या कथेतर या अन्य अकादमिक और ज्ञान अनुशासनों में होगी? कल्पना यदि बाल साहित्य में नहीं होगी तो कहाँ उसे समुचित स्थान मिल सकेगा?बात बहुत हद तक ठीक भी है परंतु कल्पना की मात्रा और परास कैसी और कितनी होनी चाहिए यह अनुसंधान का विषय है।
मानव जीवन को सफल, समुन्नत और सुविधासम्पन्न बनाने के पीछे निश्चय ही विज्ञान का हाथ है परंतु विज्ञान के होने में मानव मन की कल्पनाशीलता का कितना बड़ा योगदान है यह कहने की आवश्यकता नहीं है। जीवन और जगत में कल्पनाशीलता के महत्व को चिह्नित, रेखांकित करते हुए ही हमारे पूर्वज मनीषियों, शिक्षाविदों और मनोवैज्ञानिकों ने बचपन से ही कल्पनाशीलता को सहेजने, संवारने और उसका मुक्त प्रसार करने की आवश्यकता का अनुभव किया है।उन्होंने बाल साहित्य की विविध विधाओं में और उनके मौखिक, लिखित रूप भेदों में कल्पनाशीलता के आग्रह को सबसे ऊपर और प्राथमिकता के साथ स्थान दिया।
वे बताते हैं कि बढ़ता हुआ बालक पहले-पहल दादी-नानी की कहानियों में जादुई संसार में विचरण करती परियों, राक्षसों, बोलते हुए पशु-पक्षी, पेड़ – पहाड़ और न जाने कितने ही अनगिनत अचरज भरे अवयवों से परिचय पाता है। यह परिचय बालमन में उपस्थित कल्पनाशीलता के प्रसार और उन्नयन के लिए एक ‘ट्रिगर’ का कार्य करता है । सुपर नैचुरल पाॅवर्स अर्थात अतिप्राकृतिक शक्तियों से ओतप्रोत नायक – नायिकाओं, प्रतिनायक-नायिकाओं की जादू भरी दुनिया, अचरज भरे करतबों की कहानियाँ समग्र रूप में परीकथा कहलाती हैं, कहने का अर्थ यह है कि प्रत्येक परीकथा के पात्र या चरित्र चित्रण में परी का होना अनिवार्य नहीं है, अतिप्राकृतिक शक्तियों से संपन्न मानवेतर सृष्टि के साथ कल्पना मिश्रित पात्रों की उपस्थिति से भी कोई कथा परीकथा कहलाती है। पहले-पहल ये कथाएं मौखिक परंपराओं के रूप में शुरू हुईं और दंतकथाओं, किंवदंतियों के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से आगे बढ़ती रहीं।
परीकथाओं के औचित्य या प्रासंगिकता पर वे कहते हैं इसका अर्थ यह भी है कि हम जीवन में कल्पनाशीलता की आवश्यकता और औचित्य के प्रश्न पर चिंतन कर रहे हैं।ऐसे ही किसी प्रसंग में प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन की एक पंक्ति उद्धृत की जाती है। बच्चों की बौद्धिकता को लेकर पूछे गए प्रश्न के उत्तर में महान वैज्ञानिक ने यह कहा था कि बच्चों को बुद्धिमान बनाना है तो उन्हें परीकथा पढाएं तथा अधिक बुद्धिमान बनाना है तो अधिक परीकथा पढाएं।
उन्होंने बताया कि परीकथाओं को मोटे तौर पर अचरज भरी और नैतिक कथा शीर्षक से दो भागों में बांटा जा सकता है। आश्चर्यजनक कहानियाँ ऐसी कहानियाँ हैं जिनका उद्देश्य पाठक में विस्मय और आश्चर्य को प्रेरित करना होता है। इन कहानियों में अक्सर अलौकिक तत्व होते हैं और नायक की जय यात्रा पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।जबकि नैतिक कहानियों का उद्देश्य दुनियादारी के दुख – संघर्ष, छलछंदों के बीच उपस्थित बालमन में मानव मूल्यों और जीवन मूल्यों का संचार करना है।
नैतिक श्रेणी में समाहित परी कथाएँ बच्चों को जीवन के दैनिंदन संघर्षों, चुनौतियों, आशा – आकांक्षाओं से न केवल परिचित करातीं हैं अपितु इन भावसंवेगों और परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार प्रतिमान भी बालमन में विकसित करतीं हैं। संबंधों का निर्माण और निर्वहन सिखातीं हैं और रिश्तों से स्वस्थ तरीके से निपटना सिखाती हैं। इन कौशलों को हासिल करना अंततः एक बच्चे के स्वास्थ्य, जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकता है, या भविष्य में उसके मूल्यों और विश्वासों को भी प्रभावित कर सकता है।
परियों की कहानियाँ सभी संस्कृतियों और उम्र के लोगों के लिए प्रासंगिक सार्वभौमिक विषयों को संबोधित करती हैं। ये अच्छाई – बुराई और सही-गलत के बीच संघर्ष दिखाकर संघर्ष की सीख देती हैं और अंततः जीवन मूल्यों में विश्वास जगाती हैं। एक ओर वे मूल्यवान जीवन के सबक जैसे कि सेवा, सहयोग, दयालुता, प्रेम, करुणा और मुश्किल में दृढ़ रहना सिखाती हैं तो दूसरी ओर इनमें अक्सर जादू और अन्य तत्व होते हैं जो बच्चों में कल्पना को जगाने में मदद कर सकते हैं, जो मानसिक विकास और कल्याण के लिए महत्वपूर्ण है। अपने चारों ओर उपस्थित मानवीय और मानवेतर सृष्टि से बालमन को जोड़ने में ये कथाएं बड़ी भूमिका अदा करतीं हैं। जड़ चेतन या चर अचर के लिए संवेदनाओं का प्रसार यहीं से शुरू होता है। बच्चों के व्यवहार के अध्ययन निष्कर्ष बताते हैं कि बच्चे अपने अनुभवों के आधार पर अपनी चिंताओं, भय और बचाव को व्यक्त करने के लिए एक परी कथा का उपयोग कर सकते हैं।
परी कथाओं की व्यापकता पर उनका कहना है कि परी कथाओं का वितान व्यापक होता है अर्थात धरती, आकाश, समुद्र, पाताल, सूरज, चंदा, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सबका इनमें समावेश होता है जिसका सर्वाधिक लाभ यह मिलता है कि बढ़ते हुए बालक – बालिकाओं की शब्दावली में आशातीत वृद्धि होती है। नए नए शब्दों, संज्ञाओं और विमाओं के बारे में उनकी जानकारी बढ़ती है। ज्ञान – विज्ञान की जटिल जानकारियों और अबूझ रहस्यों को बालक खेल खेल में सहजता से हृदयंगम कर लेते हैं। इतना ही नहीं शब्दावली के संज्ञान और विकास का दायरा ‘लोकल टू ग्लोबल’ अर्थात स्थानिक से वैश्विक होता जाता है और इस तरह से अंतर-सांस्कृतिक मूल्यों को भी बहुत जल्दी से वे सीख लेते हैं ।
वे कहते हैं कि परीकथाओं में अनिवार्यतः निहित कल्पना तत्व के चलते यह तर्क दिया जाता है कि वे यथार्थ जीवन और जीवन अनुभवों से दूर ले जाती हैं। यह तर्क सही है कि परी कथाओं में कुछ विषय ऐसे होते हैं जो अवास्तविक हैं, लेकिन ऐसे प्रसंगों के बाद भी इन कथाओं का समग्र प्रभाव सकारात्मक ही है और बच्चों के विकास के लिए मौलिक तत्व प्रदान करता है।
परीकथाओं के महत्व पर वे बताते हैं, परीकथा समस्याओं और चुनौतियों का सामना करने के लिए एक सकारात्मक दृष्टि और ऊर्जा प्रदान करतीं हैं। संघर्षों से टकराने और जूझने का सामर्थ्य भरतीं हैं। ऐसी कथाओं में सच्चाई और अच्छाई की राह पर चलने वाला एक चरित्र नायक या नायिका के रूप में सामने आता है। ऐसे नेकनीयत चरित्र को जीवन की कठिनाइयों के बीच देखकर जीवन में पहली बार बालमन में इस धारणा को स्वीकृति मिलती है कि परेशानियां सभी के जीवन में आतीं हैं। परी कथाएँ न केवल बाल विकास में सहायता करती हैं, बल्कि वे चिकित्सीय तरीके से सीखने के लिए सामग्री का एक समृद्ध स्रोत भी प्रदान करती हैं, उदाहरण के लिए, दुनिया भर में परी कथाओं में अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष एक लगातार विषय है। चिकित्सीय अर्थ में, इसे आंतरिक संघर्ष और अहंकार के बीच तनाव के रूप में व्याख्या किया जा सकता है। कई बच्चे और युवा आंतरिक आंतरिक संघर्ष से पीड़ित हो सकते हैं, चाहे वह बदमाशी, चिढ़ाने, घर में समस्याओं आदि से हो।ऐसे में परियों की कहानियों का विश्लेषण करना बहुत हितकारी है।
परीकथाओं की प्रासंगिता पर वह कहते हैं, परेशानियों, चुनौतियों और कठिनाईयों के प्रति यह स्वीकृति का भाव जीवन पथ पर सदा काम आता है। वर्तमान परिदृश्य में जब हम यह देखते हैं कि छोटी छोटी असफलताओं के चलते बालक और युवा गहन निराशा अवसाद के गर्त में जाकर गलत कदम उठाने लगे हैं ऐसे में परीकथाओं में निहित इस संघर्ष तत्व की महत्ता और अधिक स्पष्ट और प्रासंगिक हो जाती है।
अनेक विपरीत परिस्थितियों और कठिनाइयों में पड़कर भी जब इन कथाओं के नायक नायिका सच्चाई और अच्छाई के मार्ग से तिल भर भी विचलित नहीं होते तो इन्हें पढकर सुनकर बालमन में नैतिक मूल्यों और जीवन के आदर्शों की संरचना स्थायी रूप से निर्मित होने लगती हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि बचपन में सीखे गए आदर्श और व्यवहार प्रतिमान ही बालक के व्यक्तित्व को निर्मित – निर्धारित करते हैं और जीवन भर कायम भी रहते हैं। इस दृष्टि से परीकथाओं का महत्व असंदिग्ध है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में बालकों के हित में सी – लर्निंग अर्थात सामाजिक भावात्मक एवं नैतिक अधिगम पर बहुत अधिक बल है। इक्कीसवी सदी की चुनौतियों में से एक बडी चुनौती एकाकीपन, अवसाद और निराशा से उपजी समस्याओं की है जिसके उत्तर में सी-लर्निंग को लाया जा रहा है। सी – लर्निंग के घटकों को बहुत सहजता से ये परीकथाएं न केवल परिभाषित और जीवंत कर सकती हैं अपितु बालमन को सामाजिक, भावात्मक एवं नैतिक दृष्टि से सशक्त और समर्थ बनाने में मददगार भी हैं।
वे बताते हैं कि भू – सांस्कृतिक विविधताओं के बाद भी दुनिया भर के लोगों की भावनाओं, संवेदनाओं में अद्भुत साम्य मिलता है।दुख-सुख, हर्ष और उल्लास, पीड़ा – प्रेम, करुणा – क्रोध आदि की अभिव्यंजना सभी देश-दिशाओं के लोगों में प्रायः एकरस ही हुआ करती हैं। परीकथाओं के कलेवर में यह सत्य तथ्य बालमन के समक्ष साक्षात होता है और विश्वसमाज के एकरस होने के इस बड़े स्वप्न ‘वसुधैव कुटुंब ‘ को साकार करने में परीकथाओं की कितनी कारगर भूमिका हो सकती है यह स्पष्ट होता है।
उनका मानना है कि समय के साथ – साथ परीकथाओं की विषय और वस्तु दोनों में परिवर्तन हुए हैं। आधुनिक युग की परीकथाएँ अक्सर अपने पहले के समकक्षों से काफी अलग होती हैं।जहां एक समय इनका प्रयोग पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं और सामाजिक मानदंडों को सुदृढ़ करने के लिए किया जाता था वहीं आज की परीकथाएं अपने पात्रों, विषय-वस्तु और दर्शकों के मामले में कहीं अधिक विविधतापूर्ण हैं।बदलते समय के साथ इन कथाओं के कलेवर में परिवर्तन निश्चय ही इनके अस्तित्व के लिए हितकर होगा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि परीकथाओं में समयानुकूल परिवर्तन के बाद भी उनकी मूल्य दृष्टि यथावत है।इसीलिए मानवता, सच्चाई, निष्ठा और ईमानदारी जैसे शाश्वत मूल्यों की स्थापना में परीकथा केंद्रित बाल साहित्य की भूमिका अभी भी महत्वपूर्ण है कि ये मानवता के और जीवन के चिरंतन मूल्य हैं जीवन के प्रारंभ से लेकर आने वाले समय में इनकी उपयोगिता बराबर बनी रहेगी।
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प्रस्तुति : डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा