Thursday, November 21, 2024
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बुनकरों की थाली से निवाला छीनती मशीनें

भारत गांवों का देश कहलाता है और गांवों की धडक़न लघु और कुटीर उद्योगों से चलती है. महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना में गांवों को आर्थिक रूप से सम्पन्न बनाने के लिए हाथकरघा को बढ़ाने पर विशेष रूप से जोर दिया गया है. मिसाल के तौर पर गांधीजी स्वयं के हाथों से बुने कपड़ों का उपयोग करते थे. विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार करने और स्वदेशी वस्तुओं को बढ़ावा देने के लिए आंदोलन की शुरुआत 7 अगस्त 1905 से हुई थी. इसी आंदोलन के चलते तत्कालीन भारत के लगभग हर घर में खादी बनाने की शुरूआत हुई थी.

स्वदेशी उद्योग और विशेष रूप से हथकरघा बुनकरों को प्रोत्साहित करने के लिए, और 7 अगस्त 1905 को चलाए गए स्वदेशी आंदोलन को सम्मान देते हुए सरकार ने हर साल 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया था. प्रधानमंत्री ने 2015 में हथकरघा दिवस की शुरुआत करते हुए कहा था कि सभी परिवार घर में कम से कम एक खादी और एक हथकरघा का उत्पाद जरूर रखें. 7 अगस्त 2015 को चेन्नई में मद्रास विश्वविद्यालय की शताब्दी के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रथम राष्ट्रीय हथकरघा दिवस का उदघाटन किया था, जिसके बाद से यह प्रतिवर्ष मनाया जा रहा है. हथकरघा गरीबी से लडऩे में एक अस्त्र साबित हो सकता है, जैसे स्वतंत्रता के संघर्ष में स्वदेशी आंदोलन था. प्रत्येक वर्ष 7 अगस्त को राष्ट्रीय हाथकरघा दिवस मनाने का संकल्प प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लिया था जिसका यह दसवां पड़ाव है.

चंदेरी के बुनकर हों या कोसे के कपड़ों को उत्पादन करने वाले कारीगर नई तकनीक के सामने हाथ डालते नजर आ रहे हैं. जिन बुनकर परिवारों को हथकरघा व्यवसाय से इश्क है, वे ही इसे स्वयं को खपा रहे हैं लेकिन युवा वर्ग शहरों की ओर पलायन कर अन्य व्यवसाय में अपना भविष्य देख रहे हैं. अक्सर चंदेरी आकर सेलिब्रेटी बुनकरों के साथ फोटो ख्ंिाचा जाते हैं और ज्यादा हुआ तो एकाध हिन्दी फिल्म सुई धागा जैसे बन जाती है. लेकिन इससे बुनकरों का कोई लाभ नहीं होता है. सरकार उनकी बेहतरी का ढिढ़ोरा पीटती है लेकिन जमीनी तौर पर बुनकरों की थाली फांके पर ही गुजरती है. गांधी का सपना, अबसपना ही बनकर रह गया है और केन्द्र सरकार का हेंडलूम दिवस एक उत्सवी परम्परा.

उल्लेखनीय है कि प्राचीन काल से ही भारत में हथकरघा उद्योग का विशेष महत्व रहा है. आज भी हैंडलूम यानी हथकरघा के जरिए लाखों लोगों को रोजगार मिला हुआ है. खासकर ग्रामीण क्षेत्र के लिए यह जीवनयापन का एक महत्वपूर्ण जरिया है. सबसे खास बात ये है कि हैंडलूम व्यापार भारत के पर्यावरण के भी अनुकूल है. भारत में आर्थिक गतिविधियों के सबसे बड़े असंगठित क्षेत्रों में से एक है जो ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों के लाखों बुनकरों को रोजगार प्रदान करता है. इनमें से अधिकांश महिलाएं और आर्थिक रूप से वंचित समूहों के लोग हैं. देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में हथकरघे का योगदान और बुनकरों की आमदनी में वृद्धि करने के उद्देश्य से साल में एक दिन राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाया जाता है. जमीनी हकीकत में इसका कोई लाभ बुनकरों को नहीं मिलता है.

हैंडलूम का हिंदी अर्थ है ‘हथकरघा’ जो दो शब्द हैंड (हाथ) और लूम (करघा) से मिलकर बना है. ‘करघा’ धागा या धागा बुनकर कपड़ा बनाने के लिए एक उपकरण होता है जिसे हाथ से संचालित होकर चलने वाला यह उपकरण ‘हथकरघा’ (हैंडलूम) कहलाता है. यह एक पुरानी तकनीक है जिसका उपयोग बुनकर कपड़े बनाने के लिए करते हैं. करघा आमतौर पर खंभे, लकड़ी के लॉग और रस्सियों से बना होता है. हथकरघा का उपयोग विभिन्न उत्पादों जैसे साड़ी, कालीन/गलीचे, शॉल आदि को बुनने के लिए किया जा सकता है. हथकरघा के अलग-अलग प्रकार हैं जैसे पिट करघा, फ्रेम करघा, खड़े करघा हथकरघा उद्योग से निर्मित सामानों का विदेशों में भी खूब निर्यात किया जाता है. लेकिन खूबसूरत बुनाई और कढ़ाई करने वाले कारीगरों की जगह अब मशीनों ने ले ली है. मशीनों ने बुनकरों की थाली से निवाला छीन लिया है.

उल्लेखनीय है कि हथकरघा क्षेत्र महिला सशक्तिकरण की कुंजी है. 70 प्रतिशत से अधिक हथकरघा बुनकर और संबंधित श्रमिक महिलाएं हैं. भारत में कृषि के बाद हथकरघा सबसे बड़े रोजगार प्रदाताओं में से एक है. देश में यह क्षेत्र लगभग 23.77 लाख हथकरघा से जुड़े 43.31 लाख व्यक्तियों को रोजगार प्रदान करता है. इन संख्याओं में से 10 प्रतिशत अनुसूचित जाति (एससी) से हैं, 18प्रतिशत अनुसूचित जनजाति (एसटी) से हैं, और 45प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से हैं. भारत में, हथकरघा क्षेत्र कपड़ा उत्पादन में लगभग 15 प्रतिशत योगदान देता है और देश की निर्यात आय में भी योगदान देता है.

केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने उस्ताद योजना के तहत बुनकरों के प्रशिक्षण की भी व्यवस्था कराई जिससे उन्हें तकनीकी रूप से और समृद्ध किया जा सके. सरकार भी बुनकरों को फैशन जगत से जोडऩे की बात दोहराती आयी है और बुनकरों को सीधे बाजार से उपलब्ध कराने की बात कहती आयी है. हथकरघा क्षेत्र के पुनरोत्थान के लिए कदम उठाए जा रहे है.

2017 में सरकार ने बड़ा फैसला करते हुए कहा था कि देश में जगह जगह स्थापित बुनकर सेवा केंद्रों (डब्ल्यूएससी) पर बुनकरों को आधार व पैन कार्ड जैसी अनेक सरकारी सेवाओं की पेशकश की जाएगी. ये केंद्र बुनकरों के लिए तकनीकी मदद उपलब्ध करवाने के साथ-साथ एकल खिडक़ी सेवा केंद्र बने हैं. और इन खिडक़ी से कभी बुनकरों के घर रोशन होने की कोई खबर नहीं आती है. हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात कार्यक्रम में कहा कि देश 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाएगा और लोगों का एक छोटा सा प्रयास कई लोगों के जीवन को बदल देगा, उन्होंने लोगों से हैशटैग ‘माई प्रोडक्ट माई प्राइड’ के साथ सोशल मीडिया पर स्थानीय उत्पादों को अपलोड करने और खादी और हथकरघा के कपड़े खरीदना शुरू करने का आग्रह किया.

सरकारों का काम होता है लोकलुभावन योजना और दिवस मनाया जाना. वास्तव में ये दिवस केवल कागजी और उत्सवी होते हैं जिसका बुनकरों की जिंदगी से कोई सरोकार नहीं होता है. परसाई जी के व्यंग्य की पंक्ति याद आती है जिसमें उन्होंने कहा था कि दिवस तो कमजोरों का मनाया जाता है. कभी थानेदार दिवस मनाते आपने देखा है. तो जनकवि की यह पंक्ति भी सामयिक है कि ‘तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है’।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं व समसामयिक विषयों पर लिखते हैं)

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