Thursday, January 23, 2025
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भारतीय वाद्यों की रोचक यात्रा

भारतीय शास्त्रीय संगीत में अनेक प्रकार के वाद्यों का प्रयोग वैदिक काल से निरंतर चला आ रहा है । सभी प्रकार के वाद्यों का अपना एक विशेष स्थान है, किन्तु सभी प्रकार के वाद्यों में तंत् वाद्यों को अग्रणीय माना जाता है । आधुनिक काल में तंत्री  वाद्यों के दो प्रकार देखने को मिलते है। सारिकायुक्त वाद्य एवं सारिकाविहीन वाद्य । वैदिक काल से प्राचीन काल तक भारत में केवल  सारिकाविहीन वाद्यों का प्रचलन था, सारिकायुक्त वाद्यों का कोई अस्तित्व नहीं था । लगभग 6वीं शताब्दी में महर्षि मतंग के द्वारा वीणा पर सारिकाओं  की स्थापना का सफल प्रयोग किया गया, महर्षि मतंग का यह प्रयोग भारतीय वाद्यों में क्रांतिकारी सिद्ध हुआ । मतंग काल से लेकर आधुनिक काल तक अनेक नवीन सारिकायुक्त वाद्यों का आविष्कार निरंतर चला आ रहा है । आधुनिक काल में सारिकयुक्त वाद्यों ने अपनी उपस्थिति से भारतीय संगीत को और भी वैभवशाली बनाया है तथा  सम्पूर्ण विश्व में  भारतीय संगीत के प्रचार-प्रसार में सारिकायुक्त वाद्यों ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है ।

भारतीय संगीत उतना ही प्राचीन है, जितना मानव जीवन । सृष्टि की उत्पत्ति और संगीत की उत्पत्ति दोनों एक दूसरे के पूरक है “क्योंकि  इन दोनों की उत्पत्ति के सिद्धांतों में गहरा संबंध हैं।” मानव जीवन के विकास के साथ-साथ संगीत के विकास के भी स्पष्ट प्रमाण मिले हैं । संगीत, अपनी निरंतर बहती अमृत धारा से मानव, जीव-जन्तु तथा प्रकृति के कण-कण में नव ऊर्जा का संचार करता आ रहा है । भारतीय संगीत के तीन अंग माने जाते है – गायन, वादन तथा नृत्य । संगीत के उद्भव काल से ही उक्त अंग त्रय में वाद्यों को विशिष्ट स्थान पर रखा गया है l  भारतीय संगीत में वाद्यों के इतिहास में अनेक वाद्यों के प्रचार में आने तथा नेपथ्य में जाने की अनेक कहानियाँ प्राप्य है तथापिभारतीय संगीत में समय-समय पर अनेक नवीन वाद्यों के आविष्कार का क्रम आधुनिक काल तक प्रवाहमान है ।

वाद्यों के इतिहास पर दृष्टिपात करने पर वैदिक काल से ही भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक वाद्यों के प्रचार के संकेत मिलते है । अनेक प्रकार के वाद्य होने के कारण इस क्षेत्र में अध्ययन के लिए विद्वानों को वाद्यों के वर्गीकरण की आवश्यकता की अनुभूति हुई तब संगीत मनिषियों ने वाद्यों को चार भागों में वर्गीकृत किया- तत्, अवनद्ध, सुषिर एवं घन । जिस तरह संगीत के तीन अंगों गायन, वादन एवं नृत्य में गायन को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, उसी प्रकार वाद्यों के चतुर्वर्ग में तत् वाद्यों को विशिष्ट स्थान पर रखा जाता है । तत् वाद्यों के इतिहास का गहराई से अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि वैदिक काल से लेकर प्राचीन काल के पूर्वार्द्ध तक भारतीय संगीत में एक ही प्रकार के तत् वाद्यों का प्रचलन रहा है । इस कालावधि में सभी प्रकार के तत् वाद्य सारिकाविहीन थे । सर्वप्रथम महर्षि मतंग ने 6वीं शताब्दी में सारिकाओं के महत्व को समझा और वीणा पर सारिकाओं को स्थापित किया । सारिकायुक्त वाद्यों की परंपरा मतंग मुनि से आरंभ हुई और आधुनिक युग तक चली आ रही है तथा तत् वाद्यों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है ।

भारतीय शास्त्रीय संगीत में वाद्यों की परंपरा प्राचीन काल से ही अत्यंत समृद्ध एवं उत्कृष्ट है। वाद्य संगीत एक ऐसी विद्या है, जिसमें स्वर तथा लय के माध्यम से, बिना किसी अन्य कला की सहायता से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने तथा संगीत के अलौकिक जगत में अबाध रूप से रसास्वादन कराने की क्षमता है। भारतीय संगीत में लगभग सभी विद्वानों ने सर्वसम्मति से वाद्यों के चार प्रकार के वर्गीकरण को उचित माना है । वाद्यों के चतुर्वर्ग में विशिष्ट स्थान प्राप्ततत् वाद्यों में वैदिक काल से 6वीं शताब्दी तक सारिकाविहीन वाद्यों का प्रचलन रहा है ।

इस काल खण्ड में काण्ड वीणा, कात्यायनी वीणा, आलाबु वीणा, विपंची वीणा, वल्लकी वीणा, महती वीणा आदि तत् वाद्यों का उल्लेख मिलता है l यह सभी प्रकार के वाद्य सारिका रहित थे । लगभग 6वीं शताब्दी में महर्षि मतंग ने सारिकाओं के महत्व एवं आवश्यकता का अनुभव किया जिसके फलस्वरूप सारिकाओं  का आविष्कार हुआ । महर्षि मतंग से पहले वीणा पर सारिकाओं का उल्लेख देखने को नहीं मिलता ।

महर्षि मतंग ने किन्नरी नामक वीणा का अविष्कार किया और उस पर 14 से 18 सारिकाओं को स्थापित किया । महर्षि मतंग का यह आविष्कार भारतीय वादन संगीत के लिए क्रांतिकारी सिद्ध हुआ, जिसके फलस्वरूप अनेक प्रकार के सारिकायुक्त वाद्यों का निर्माण आधुनिक काल तक चला आ रहा है । मतंग स्वयं चित्रा वीणा के वादक थे, इसलिए इन्हे “चैत्रिक” भी कहा जाता है । वाद्यों पर सारिकाओं  की व्यवस्था होने से वाद्यों पर स्वरों को साधना सरल हो गया । जबकि सारिकाविहीन वाद्यों पर स्वरों को साधना अत्यंत कठिन कार्य है । सारिकाएं दो प्रकार की होती है, चल सारिकाएं एवं अचल सारिकाएं । चल सारिकाओं को राग में लगने वाले स्वरों के अनुसार उस थाट के स्वरों पर खिसका कर स्थापित किया जाता है, चूँकि इन सारिकाओं का स्थान आवश्यकतानुसार बदला जा सकता है इसीलिए  इन्हे चल सारिकाएं कहा जाता है । अचल सारिकाएं वह है जिन्हें डाँड पर खिसकाया नहीं जा सकता ।

यह सारिकाएं अपने-अपने स्थान पर स्थापित रहती है । अचल सारिकाओं  में यह सुविधा रहती है कि सारिकाओं को खिसकाएं बिना प्रायः सभी रागों का वादन हो सकता है तथा चल सारिकाओं में यह सुविधा होती है कि चल सारिकाओं को राग के थाट के स्वरों पर मिल लेते है, जिसमें बेसुरा होने का जोखिम कम रहता है । आचार्य श्री कैलाशचंद्र देव बृहस्पति के अनुसार अचल सारिकाओं की अवधारणा ईरानी संगीत से आई है, मुस्लिम परंपरा में यह “पर्दा” कहलाती है । “यह पर्दे  ईरानी वाद्यों में अचल होते थे और इनसे उद्भूत स्वरों की ‘स्वयंत्र’ संज्ञाएं थीं l

फलतः ईरानी प्रभाव से भारतीय वीणाओं में सारिकाएं अचल हुईं । ईरानी पर्दों  के आधार पर बारह मुकाम सिद्ध हुए थे । भारतीय भाषाओ में ये “मुकाम” लोचन जैसे पंडितों के द्वारा “संस्थान” कहलाये और उत्तर भारतीय तंत्री वादकों ने इन्हे “ठाठ” कहा l”आचार्य बृहस्पति के इस कथन से यह सिद्ध होता है कि अचल सारिकाएं भारतीय वाद्यों की परंपरा में नहीं थी, अपितु ईरानी पर्दों  के प्रभाव में आने से भारतीय वाद्यों में भी अचल सारिकाओं  का प्रचलन आरंभ हुआ, किन्तु एक अन्य अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि मतंग मुनि द्वारा आविष्कृत किन्नरी वीणा में  सारिकाएं अचल थी ना कि चल । अतः यह कहना कठिन है कि अचल सारिकाओं कि अवधारणा कहाँ से आई है । यह भारतीय है या ईरानी ; इस तथ्य को लेकर विद्वान एकमत नहीं है । दोनों प्रकार की सारिकाओं कि अपनी-अपनी विशेषता है तथा दोनों प्रकार की सारिकाओं का प्रयोग भारतीय वाद्यों में हो रहा है । सारिकाओं को अन्य कई नामों से भी जाना जाता है जैसे- सुंदरी, कट, हारावाली, सार तथा पर्दा, इन सभी नामों का अर्थ एक ही है । वर्तमान समय  में “पर्दा” शब्द अधिक प्रचलित है ।

भारतीय संगीत के प्रमुख सारिकायुक्त वाद्यों का वर्णन इस प्रकार है :-

1. किन्नरी वीणा                          6. रुद्र वीणा

2. सरस्वती वीणा                         7. मयूरी वीणा

3. सितार                                    8. इसराज

4. दिलरुबा                                 9. सुर बहार

5. मोहन वीणा                            10. दिलबहार

1. किन्नरी वीणा– भारतीय संगीत में  किन्नरी वीणा प्रथम सारिकायुक्त वाद्य है । किन्नरी वीणा में “सारिकाओं का निर्माण गिद्ध के वक्ष की छिद्रयुक्त कनिष्ठा उंगली के नाप के बराबर हड्डी से अथवा इतनी ही मोटाई की लोहे या कांसे की छड़ से किया जाता है ।”[iii] किन्नरी वीणा मुख्यतः दो प्रकार की बताई गई है- 1. मार्ग किन्नरी 2. देशी किन्नरी । पुनः मार्ग किन्नरी के दो भेद होते है, लघु मार्ग किन्नरी एवं बृहती मार्ग किन्नरी । लघु मार्ग किन्नरी में  14 सरिकाएं होती हैं । संगीत राज एवं भरत कोश ग्रंथों के अनुसार लघु मार्ग किन्नरी में  22 सारिकाएं होती हैं, किन्तु अधिकतर विद्वान इस वीणा में  14 सरिकाएं होने का समर्थन करते हैं l “भरतकोश ग्रंथ के लघु मार्ग किन्नरी को “मार्ग लघीयसी किन्नरी” नाम दिया गया है  ।”[iv]मार्ग किन्नरी वीणा का दूसरा प्रकार मार्ग बृहत किन्नरी है, यह आकार में  “मार्ग लघु किन्नरी” की अपेक्षा कुछ बड़ी होती है तथा इसमें  तीन तुम्बे होते हैं l इसके अतिरिक्त अन्य सभी लक्षण मार्ग लघु किन्नरी के समान होते हैं l

किन्नरी वीणा का दूसरा प्रकार देशी किन्नरी है । जिसके पुनः तीन भेद होते हैं l देशी लघु किन्नरी, देशी मध्यम किन्नरी, देशी बृहत किन्नरी । देशी लघु किन्नरी में 13 सरिकाएं स्थापित की जाती है । भरतकोश के अनुसार इसमें  14 से 18 सारिकाओं का प्रयोग किया जाता है । “इसमें  गिद्ध के पंख अथवा चरण की हड्डी की नलिका को अथवा लोहे या कांसे की नलिका को सारिका के रूप में  प्रयुक्त किया जाता है  ।”[v]देशी मध्यमा किन्नरी में  13 सारिकएं  होती है । यह आकार में देशी लघु किन्नरी से बड़ी होती है तथा देशी बृहत किन्नरी आकार में अन्य दोनों वीणाओ से बड़ी होती है । इसमें  तीन तुम्बे एवं 14 सारिकाओं का प्रयोग किया जाता है ।

2. रुद्र वीणा-रुद्र वीणा का सर्वप्रथम उल्लेख नारदकृत संगीत मकरंद में  मिलता है । प्रचलित रुद्र वीणा में सारिकाओं की संख्या 19 से 24 होती है । “इन्हें राल मिश्रित मोम से चिपका दिया जाता है l”[vi] “आवश्यकता पड़ने पर गरम करके मोम को पिघलाकर परदों को सरकाया जाता है l”[vii] इसमें  पीतल से ढकी लड़की की सारिकाओं का प्रयोग किया जाता है ।

3. सरस्वती वीणा – सरस्वती वीणा का वर्णन उत्तर मध्यकाल में प्राप्त होता है । इसे तंजौरी वीणा तथा रघुनाथ वीणा भी कहा जाता है । इसमें  सारिकाओं की संख्या 24 होती है । रघुनाथ नायक के समय में  इस वीणा का अधिक प्रचलन हुआ था । वर्तमान में  इस वीणा का प्रयोग कर्नाटक संगीत में  अधिक होता है ।

4. मयूरी वीणा– एक मत के अनुसार यह वाद्य सिखों के छठे गुरु “गुरु हरगोविंद जी द्वारा निर्मित वाद्य है । इस वाद्य को “ताऊस” नाम से भी जाना जाता है । “ताऊस” पर्शियन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है “मोर”। अर्थात मोर के समान आकृति होने के कारण इसे “ताऊस” अथवा “मयूरी वीणा” कहा जाता है । इस वाद्य में 20 सारिकाओं का प्रयोग किया जाता है ।

5. सितार-वर्तमान समय में  भारतीय संगीत में  सितार, अन्य वाद्यों की अपेक्षा सर्वाधिक प्रसिद्ध सारिकायुक्त वाद्य है । सितार के आविष्कार के विषय में  अनेक मत पाये जाते हैं । प्रारम्भिक सितार में चर्म की सारिकाओं का उल्लेख मिलता है, किन्तु वर्तमान समय में प्रचलित सितार में पीतल अथवा लोहे से बनी सारिकाओं  का प्रयोग किया जाता है । प्रारम्भ में  सितार में  केवल 8 सारिकाओं   का प्रयोग किया जाता था ।  आगे चलकर सितार वादको ने सारिकाओं की संख्या अपनी-अपनी वादन के सुविधा अनुसार कर ली । सितार में  सारिकाओं की संख्या 16 से 24 तक हो सकती है ।

6. सुरबहार- सुरबहार की बनावट सितार के समान होती है, किन्तु यह आकार में  सितार से बड़ा होता है । इसे “मंद्र सितार” या “सितार का मंद्र सप्तक” भी कहा जाता है । इसमें  सारिकाओं की संख्या 17 से 20 होती है । इसमें  जर्मन सिल्वर से बनी सारिकाओं को धागे से बांधा जाता हैं ।

7. इसराज- इसराज की उत्पत्ति सारंगी और सितार के मिश्रण से हुई  है । इसमें  सारिकाओं की संख्या 16 से 19 होती है । “इसराज का आकार बड़ा कर उसे “मंद्र बहार” कहते है ।”[viii]

8. दिलरुबा- एक मत के अनुसार दिलरुबा का आविष्कार मयूरी वीणा के आधार पर सिखों के 10वें गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह साहब ने किया था । इस वाद्य में  लगभग 17 से 19 सारिकाओं   का प्रयोग किया जाता है ।

9. मोहन वीणा– मोहन वीणा का आविष्कार लगभग 1988 ई०  में  पं० विश्व मोहन भट्ट द्वारा किया गया । “पंडित जी अपने वाद्य में  सरोद के समान गहराई, सितार के समान तीखापन और वीणा के बाज को एक साथ चाहते थे l”[ix] फलस्वरूप मोहन वीणा का आविष्कार हुआ जो तीनों विशेषतओं  को एक साथ पूर्ण करता है । मोहन वीणा में  22 सारिकाओं का प्रयोग किया जाता है । आधुनिक समय में मोहन वीणा एक ख्याति प्राप्त वाद्य है ।

10. दिलबहार- दिलबहार एक नवीन वाद्य है, इसका आविष्कार पं०  राधिका मोहन मोइत्रा ने सन् 1956 में किया । इस वाद्य में  सुरबहार, सितार, दिलरुबा, तथा सरोद का मिश्रण है, इन चारो वाद्यों की विशेषताएँ एक ही वाद्य “दिलबहार” में  समाहित है । इसमें  स्टील की 19 सारिकाओं    का प्रयोग किया जाता है ।

उपर्युक्त वाद्यों के अतिरिक्त सारिकाओं की सुविधा महत्व एवं आवश्यकता को देखते हुए अनेक प्रकार के नवीन सारिकायुक्त वाद्यों का आविष्कार वर्तमान समय में निरंतर रूप से हो रहे है, जिनमें विश्व वीणा, हंस वीणा, शंकर वीणा, श्रृंगार वीणा आदि वाद्यों के नाम आते है ।

सूचक शब्द :- संगीत, वाद्य, सारिका, वीणा, प्राचीन, तुम्बा.

(वर्षा मिश्रा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में  वाद्य विभाग संगीत एवं मंच कला संकाय में  शोध छात्रा, हैं)

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